Ticker

6/recent/ticker-posts

इतिहास की परिभाषा एवं अर्थ (Definition and Meaning of History) (MA, SSC,UPSC,PCS,SI,NET,JRF)

इतिहास का अर्थ एवं स्वरूप Meaning and nature of history

magadhIAS

प्रश्न 1. इतिहास से क्या तात्पर्य है ? इसके स्वरूप की विवेचना करें। (What do you mean by history ? Discuss its nature.)


उत्तर- इतिहास' शब्द की व्युत्पत्ति 'इति-ह-आस' इन तीन शब्दों से मानी गयी है जिसका अर्थ है 'निश्चित रूप से ऐसा हुआ।' आचार्य दुर्ग ने अपनी 'निरुक्त भाष्य वृत्ति' में इसकी व्याख्या करते हुए लिखा है-' इति हैवमासीदिति यत् कथ्यते तत् इतिहास: ' अर्थात् 'यह निश्चित रूप से इस प्रकार हुआ था यह जो कहा जाता है, वह इतिहास है।

इसकी व्युत्पत्ति जर्मन शब्द 'गेस्चिचटे' से मानी जाती है जिसका अर्थ है विगत घटनाओं का विशेष एवं बोधगम्य विवरण । इति-ह-आस में अन्तिम शब्द अधिक महत्त्व रखता है, क्योंकि इसका उल्लेख प्राचीन वाङ्मय में बहुत स्थानों पर हुआ है।

विद्वानों ने इतिहास को जिस प्रकार से पृथक्-पृथक् अर्थों में लिया है उसी प्रकार परिभाषा भी भिन्न-भिन्न प्रकार से दी है। कुछ लोगों ने इतिहास को एक कहानी, एक ज्ञान, राजनीतिशास्त्र, सामाजिक विज्ञान, विशुद्ध विज्ञान, चिन्तण विद्या, अतीत वर्तमान का संलाप, भूत-भविष्य कहा है तो कुछ ने सभ्यता, संस्कृति, सत्यान्वेषण, उत्पादन, प्रगति आदि से सम्बोधित करके परिभाषित करने का प्रयास किया है। 

इन्हीं विविधताओं को देखकर चार्ल्स फर्थ खीझ जाते हैं और कहते हैं कि इतिहास को परिभाषित करना बहुत कठिन कार्य है। इतिहास की परिभाषाओं को देखने से यह ज्ञात होता है कि एक ही विद्वान ने उसे भिन्न-भिन्न पहलुओं के आधार पर कई प्रकार से परिभाषित करके स्वयं अपने से प्रश्न करने को विवश कर दिया है कि वह वास्तव में इतिहास को कुछ समझ भी पाया है अथवा नहीं।



इतिहास को 'कहानी' कहकर परिभाषित करने वाले मनीषियों में रेनियर, ट्रैवेलियन, पेरिने, तुइजिंगा, औलिवर और फ्रेंच अकादमी के साथ-साथ कार्लाइल और डॉ० राममनोहर लोहिया का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है रेनियर कहते हैं—'इतिहास सभ्य समाज में सन्निवासित मानवीय अनुभवों की कहानी है। जी०एम० ट्रैविलियन हैं कि इतिहास अपरिवर्तनीय रूप में एक कहानी है, जबकि हेनरी पेरिने की मान्यता है कि समाज में रहने वाले मनुष्यों के कार्यों एवं उपलब्धियों की कहानी ही इतिहास है । 


तुइजिंगा के अनुसार तिहास अतीत की कथात्मक घटनाओं का उल्लेख है । यह स्मरणीय वस्तुओं की कहानी अंतएव इतिहासकार को चाहिये कि वह इसकी कहानी को बतला दें, किन्तु कोई उपदेश अथवा नैतिक विचार न व्यक्त करें। यदि हम देखें तो पायेंगे कि इतिहास में कतिपय घटनाएँ एक कहानी की तरह प्रस्तुत की गयी होती हैं, किन्तु उन्हें केवल कहानी कहकर उसके महत्त्व को घटाना सर्वथा अनुचित है। इतिहास में कथा वृतान्त होने पर भी वह केवल एक कहानी - नहीं है।


इतिहास से हमें बहुत प्रकार की जानकारी मिलती है, ज्ञान प्राप्त होता है। अतएव कुछ मनीषी यह उचित ही बतलाते हैं कि इतिहास एक ज्ञान है। चार्ल्स फ के अनुसार, इतिहास अनेक प्रकार के उदाहरणों द्वारा ज्ञान सम्प्रेषित करता है। 


सर वाल्टर रेले भी यही मानते हैं। कि इतिहास का मूल उद्देश्य अतीत की घटनाओं से हमें शिक्षा लेना होता है ताकि हमारा पथ-प्रदर्शन हो सके। ए० एल० राउज के अनुसार इतिहास ज्ञान पर आधृत एक क्रिया है। 'कालिंगउड तथा क्रोचे ने भी यही स्वीकार किया है कि ऐतिहासिक ज्ञान मानवीय ज्ञान का स्रोत है।


डॉ॰ गोविन्दचन्द्र पाण्डेय के शब्दों में 'ऐतिहासिक ज्ञान सापेक्षतावाद तथा इससे वैज्ञानिक ज्ञान के यथार्थवादी स्वरूप के पार्थक्य पर बल देकर वह ऐतिहासिक ज्ञान की विशेषताओं पर प्रकाश डालता है। अतएव इतिहास एक अद्वितीय प्रकार का ज्ञान है तथा यह मानव के सम्पूर्ण ज्ञान का स्रोत है। 

यदि हम इस आधार पर इतिहास को परिभाषित देखते हैं तो भी ऐसा अनुभव होता है कि कहीं कुछ भूल हो गयी है। वास्तव में इतिहास को एक 'कहानी' कहने के स्थान पर एक 'ज्ञान' कह देना अधिक अच्छा है, इससे इतिहास का महत्त्व बढ़ता हुआ ही दिखायी देता है। किन्तु केवल ज्ञान से सम्बद्ध कर उसके क्षेत्र को सीमित करने का प्रयास उचित नहीं है; क्योंकि इसकी ज्ञान-सम्बन्धी परिभाषा में कहीं भी यह नहीं उल्लिखित है कि सब कुछ का ज्ञान इतिहास ही है, अपितु यह माना गया है. कि इतिहास भी एक प्रकार का ज्ञान अथवा ज्ञान की एक शाखा है ।ज्ञान के सातत्य से ही इतिहास को यह भी कहा जा सकता है कि वह राजनीति की कला का ज्ञान प्रदान करने वाला है। 


न्यूमोटिस तथा पोलीवियस के अनुसार राजनीतिज्ञों को शिक्षित करने वाला शास्त्र इतिहास है। यह ज्ञान का एक संग्रह है, ऐसा ग्रीक रोमन विद्वानों का विचार है । 


आजकल यदि इतिहास के विषय में ऐसा कहा जाय तो प्रश्न उठेगा कि राजनीतिशास्त्र के विषय में क्या कहा जाय ? आज उक्त कथन में जो भूल दिखलायी देती. है उसका मुख्य कारण यही है कि उस समय इतिहास को राजनीतिशास्त्र के अन्तर्गत ही रखा गया था और उसका अध्ययन एक स्वतंत्र विषय के रूप में नहीं होता था ।

प्रो० कार ने इतिहास को एक स्थान पर दो परिभाषित किया है वस्तुतः इतिहास, 'वस्तुत: इतिहासकार तथा तथ्यों के बीच अन्तःकिया की अधिनि प्रक्रिया तथा वर्तमान और अतीत के बीच अनवरत परिसंवाद है।' उनके अनुसार यदि इतिहास अतीत और वर्तमान के मध्य अनवरत परिसंवाद है तो इसमें अतीत की घटनाओं और उभरते हुए भावी परिणामों के बीच अनवरत परिसंवाद की संज्ञा दी जा सकती है। 


प्रो० कार  इतिहास को अधिक अथवा कम संयोगों है का एक अध्याय मानते हैं। वह इसे आन्दोलन, गति, एक संघर्ष प्रक्रिया, व्याख्या आदि भी कहते हैं। डॉ० के०एस० लाल कहते हैं-' इतिहास मानव जीवन के महान् कार्यों का अध्य है। यह मानव जाति की महान और असाधारण सफलताओं का संकलन है।' 


के अनुसार, 'भविष्य का मार्ग प्रदर्शित कर सकने वाली भूतकाल की घटनाओं की यह क्रमबद्ध खोज, जिसका आधार व्यक्तिगत विचार न होकर प्रामाणिक तथ्य हों, को इतिहास कहते हैं । 

रमेशचन्द्र मजुमदार के अनुसार, इतिहास का सम्बन्ध आन्तरिक सत्य के प्रति जिज्ञासा है। सत्य का अन्वेषण ही इतिहास हैं। 

प्रो० डी० डी० कोसाम्बी के शब्दों में, 'उत्पादन के संसाधनों एवं सम्बन्धों में उत्तरोत्तर परिवर्तनों का तिथि क्रमानुसार प्रस्तुतीकरण ही इतिहास है। 

लोहिया के अनुसार, इतिहास यूनानी दुःखान्त नाटकों के अटल तर्क की तरह ही चलता है। इसे उपन्यास जैसा पढ़ने योग्य बनाया जा सकता है परन्तु तब इसका कोई उद्देश्य या रूपरेखा न होगी। इसमें उत्थान और पतन, दोनों ही सम्पृक्त होते हैं।

संक्षेप में हम कह सकते हैं कि इतिहास मानव समाज की प्रगति का एक क्रमबद्ध अध्ययन है और उसकी प्रगति में सहायक भी हैं । यद्यपि यह भी इतिहास की उचित परिभाषा नहीं होगी। 


क्योंकि इतिहास सभ्यता के विकास और विनाश, दोनों का ही विवरण है, अतएव यह कहना कोई अर्थ नहीं रखता कि इतिहासकार को निर्धन बनाने वाला शास्त्र ही इतिहास है। उसे केवल संस्कृति से सम्बद्ध करना भी उचित नहीं है, 

जैसा कि स्पेंगलर ने लिखा है 'जीवन अपनी आन्तरिक प्रवृत्ति और मौलिक प्रेरणा से विकास और निर्माण की जिस प्रक्रिया में गतिमान् है उसी का नाम 'इतिहास' है।' इतिहास में केवल गति, नियति और प्रक्रिया ही - पा सकते हैं। उनके अनुसार इतिहास अक्षुण्ण क्रमबद्ध प्रक्रिया नहीं है। इतिहास की प्रवृत्ति रेखात्मक नहीं अपितु वृत्तात्मक होती है इतिहास पूरे विश्व का होता है और पूरे विश्व की 1 संस्कृतियों से सम्बद्ध होता है। 


इतिहास संस्कृतियों की जीवन-लीला है जिसके नियम निश्चित एवं अपरिवर्तनीय हैं। संस्कृतियों की जीवन लीला से ही इतिहास की प्रक्रिया चलती है। ار संस्कृति जब ढलने लगती है तो सभ्यता की अवस्था में पहुँच कर सार्वजनिक 'ऐतिहासिक' (हिस्ट्रीलेस) मानव में विलीन हो जाती है। 


स्पेंगलर इतिहास की पुनरावृत्ति में विश्वास करते हैं। यह इतिहास में कबूतरी सुख विधि का प्रयोग करने के पक्ष में रहे और गोंद तथा ऊँची शैली से असन्तुष्ट रहे । स्पेंगलर ने इतिहास की गति प्रधान प्रक्रिया और विश्व की परिवर्तनशील चर्या के विषय में उत्तम विचार प्रस्तुत किये हैं तथा इतिहास में आन्तरिक स्वरूप का अनावरण किया है । परन्तु उनके ये विचार भी इतिहास को ठीक से परिभाषित नहीं कर सके अता यही स्वीकार कर लेना उचित जान पड़ता है कि इतिहास की उपयुक्त परिभाषा, वही है जो हमें यह बताती है कि 'इतिहास मनुष्य समाज का उसके जीवन में सभी क्षेत्रों में विस्तृत अध्ययन है।' 


इतिहास केवल राजनीतिक घटनाओं का क्रमानुसार अध्ययन नहीं है, वह तो उसके अध्ययन में केवल सुविधा प्रदान करता है। वास्तव में इतिहास मनुष्य के संगठित सामाजिक समूहों का चाहे वे कितने भी प्रगतिशील या पिछड़े हुए हों उनके आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक आदि जीवन के सभी पहलुओं का अध्ययन हैं।


इतिहास की प्रकृति ( स्वरूप ) किसी भी वस्तु को देखने, समझने और उसके स्वरूप को स्पष्ट करने में सबकी अपनी-अपनी दृष्टि और समझ का पृथक्-पृथक् महत्त्व होता है। जो जिसे जिस रूप में देखता व समझता है, उसी रूप में अभिव्यक्त करता है । इतिहास के स्वरूप के बारे में भी कुछ इसी प्रकार की बात देखने में आती है। प्राच्य और पाश्चात्य, दोनों ही इतिहासकारों ने इतिहास की प्रकृति को ठीक उसी प्रकार से भिन्न-भिन्न रूपों में अभिव्यक्त किया है जिस प्रकार से उन्होंने उसके अर्थ एवं परिभाषा को पृथक्-पृथक् पद्धति से प्रस्तुत किया है।


कतिपय इतिहासकारों एवं विद्वानों द्वारा इतिहास के स्वरूप को जिस प्रकार परिभाषित किया गया है उसकी यदि समीक्षा की जाय तो हम पायेंगे कि किसी ने इसके स्वरूप को कहानी एवं सामाजिक विज्ञान जैसा बतलाया है तो किसी ने ज्ञान, समसामयिक विचार और 'अतीत वर्तमान के मध्य सेतु जैसा माना है। कुछ ने प्रमुख घटनाओं का संग्रह अथवा संसार को सार्वभौम परिचय कहा है। आगे कुछ महत्त्वपूर्ण लोगों द्वारा इतिहास के स्वरूप- विवेचन को प्रस्तुत किया गया है।


हेगेल ने इतिहास के स्वरूप को सामयिकतायुक्त तर्क मानते हुए बतलाया है कि तार्किक प्रक्रिया के द्वन्द्वात्मक और विरोधात्मक होने के कारण अर्थात् वाद, प्रतिवाद और समवाद के क्रम पर आश्रित होने के फलस्वरूप इतिहास की प्रक्रिया इसी प्रकार द्वन्द्वात्मक और विरोधात्मक होती है, जिसे डाइलेक्टिक कहते हैं। हेगेल ने इतिहास के स्वरूप को एक बुद्धि-संगत प्रक्रिया के रूप में, किन्तु प्रकृति से भिन्न स्वरूप में स्वीकार किया है और कहा है कि इतिहास का स्वरूप ऐसा होना चाहिये जिसमें प्रक्रिया रेखावत् चलती हो एवं आवृत्तियों में नवीनता भी पायी जाती हो। 


हेगेल के कथन की समीक्षा करने पर उसमें इतिहास के स्वरूप विश्लेषणान्तर्गत यह कमी पायी जाती है कि उन्होंने बुद्धि और भावना, दोनों को एक-सी मानते हुए यह कहने की भूल की है कि सभी कर्म बुद्धि पर आश्रित होते हैं, तथापि यह विशेष प्रशंसनीय भी हैं कि इतिहास की प्रकृति को उसने ठीक काण्ट और हेरदर की भाँति "विश्व इतिहास" में फलीभूत होते देखकर इतिहास के स्वरूप को व्यापक बनाने का भरसक प्रयास किया है।

जॉन डिवी की मान्यतानुसार इतिहास का स्वरूप निरन्तर परिवर्तनशील और सामाजिक आवश्यकताओं के अनुसार सदैव विकसित होता रहा है । विकसित होने पर जब वह विस्तृत हो जाता है तब अध्ययन की सुविधा के लिये उसके स्वरूप को छोटे-छोटे भागों में बाँटकर . ही अध्ययन करने में सुगमता रहती है। इस आशय से वह इतिहास के स्वरूप निर्माण में "इतिहासकार की भूमिका को महत्त्वपूर्ण मानते हैं। किन्तु उनका यह मानना अमान्य कर दिया गया है कि इतिहास में पुनरावृत्ति नहीं होती है। अनेक विद्वानों ने अपने कर्तर्पय उदाहरणों द्वारा यह सिद्ध करके दिखला दिया है कि इतिहास में पुनरावृत्ति होती है


हेगेल के सर्वश्रेष्ठ अनुयायी काले चावल के विषय में ऐसा कहा जाता है कि इतिहास के स्वरूप - विश्लेषण में वह हेगेल का एक अर्थ में अनुयायी था तो दूसरे अर्थ में विरोधी भी था। अनुयायी इसलिये कि उसने अपने इतिहास-दर्शन में हेगेल की इन्द्वात्मक पद्धति को स्वीकार किया था, और विरोधी इस अर्थ में कि उसने विज्ञानवाद को भौतिकवाद से विशिष्टता स्थापित किया था। 


इस तरह वह दार्शनिक व्याख्याओं के स्थान पर ऐतिहासिक व्याख्या करना चाहता था। इसी आधार पर जहाँ हेगेल को इतिहास-दर्शन का प्रवर्तक कहा जाता है, वहीं मार्क्स को ऐतिहासिक समाज-विज्ञान अथवा समाज-वैज्ञानिक इतिहास-विश्लेषण का प्रवर्तक कहा जाता है।



आचार्य नरेन्द्रदेव की दृष्टि में इतिहास का स्वरूप सत्याचरण एवं सुसंस्कारयुक् समाज से संबद्ध है । वह इतिहास के राष्ट्रीय समाजवादी स्वरूप को विशेष आदर देते थे और लोकतंत्र में संघर्ष से भी अनुराग रखते थे। किन्तु 

प० जवाहरलाल नेहरू ने इतिहास के स्वरूप को 'विश्व इतिहास की एक झलक' में ही देखने का यथासम्भव प्रयास किया था। डॉ० राममनोहर लोहिया का इतिहास- चक्र स्पेगलर और वापसी को अपेक्षा इंगले और कार्ल मार्क्स के अधिक विपरीत लगता है जिसमें भौगोलिक परिवर्तन को अपरिहार्य माना गया है। —

इसी प्रकार विभिन्न विद्वानों ने इतिहास के स्वरूप को अपने-अपने मन्तव्यानुसार अभिव्यक्त "किया है। किन्तु सभी वर्णन हमें इतिहास को मुख्यतया दो स्वरूपों में सामने लाते हैं इनमें पहला इतिहास के वैज्ञानिक स्वरूप से सम्बद्ध है तो दूसरा उसके कलात्मक स्वरूप से । आगे, यह स्पष्ट किया गया है कि इतिहास एक विज्ञान अथवा कला है, अथवा विज्ञान और कला दोनों है, अथवा दोनों ही न होकर कुछ और है/


(1) इतिहास एक विज्ञान है सर्वप्रथम गिबन, वाल्टेयर, वुल्फ, रान्के आदि ने इतिहास को विज्ञान की श्रेणी में लाने का प्रयास किया था । रान्के ने तो इतना प्रयास किया है कि उसे आधुनिक विज्ञान का प्रवर्त्तक तक कहा जाने लगा। किन्तु, इतिहास को पूर्णतया विज्ञान की श्रेणी दिला सकने में वह भी असमर्थ रह गया। वह भी इन दो बाधाओं से इतिहास को मुक्त न कर सका (1) राष्ट्रीयता की भावना, और 

(2) इतिहास के दर्शन पर बल देना। प्रो० जे० बी० व्यूरी के अनुसार उसकी सबसे बड़ी भूल यह थी कि उसने इतिहास को राजनीति में सम्मिलित कर दिया था जिससे उसका अध्ययन क्षेत्र सीमित हो गया था, जबकि इतिहास का अध्ययन-क्षेत्र विस्तृत है। प्रो० व्यूरी के अनुसार यही भूल सीले ने भी की। उसने भी इतिहास को राजनीति विज्ञान से सम्मिलित करने का उपक्रम किया है।

इतिहास को विज्ञान की श्रेणी में लाने में एक कठिनाई 'धर्म' की थी जो कि पूर्णतया इसके साथ सम्मिलित था। 1859 में प्रो. डार्विन ने 'ओरिजिन ऑफ स्पेसीज' द्वारा इससे परे रहकर इतिहास को विज्ञान को श्रेणी में लाने और उसे प्रार्थक भावना या दर्शन से मुक्त रखने में सफलता प्राप्त की थी। उसने इतिहास के अध्ययन को वैज्ञानिक आधार दिया और उसे अन्य विद्वानों से सम्बद्ध कर दिया। जंत्रीव्यू में यही बात कही है- "डार्विन ने इतिहास के अध्ययन को वैज्ञानिक आधार दिया और उसे अन्य विज्ञानों से संबद्ध कर दिया।" किसी भी वैज्ञानिक पति में अवलोकन, सत्यापन तथा वर्गीकरण, सामान्यीकरण,भविष्यवाणी एवं वैज्ञानिक प्रवृत्ति इतिहास में परिकल्पना का निर्माण सामग्री का वर्गीकरण,सत्यापन और सामान्य नियमन सम्भव है, इसलिये वह एक विज्ञान है ।

(2) इतिहास एक कला है जो विद्वान इतिहास को एक विज्ञान नहीं मानते हैं वे भी उसे एक कला मानते हैं। कुछ विद्वान विज्ञान के साथ-साथ इसे कला मानते हैं। कला उस ज्ञान को कहते हैं जो ज्ञान का व्यावहारिक प्रयोग करके तथा अच्छाई और बुराई का निर्णय करके, व्यक्ति या समाज को अच्छाई की ओर ले जाने का प्रयत्न करता है। इतिहास में ऐसा होता है, अतएव वह कला भी है। इतिहासकार एक कलाकार होता है, वह भूतकाल की परिस्थितियों का अध्ययन करके भविष्य के मार्ग का निर्माण करता है। दूसरे शब्दों में, सत्यता और घटनाओं की प्रामाणिकता के आधार पर भविष्य के निर्माण का आधार बनाता है । 

गिबन, मेकाले, कार्लाइल प्रभृति इतिहासकार ऐसा ही करते थे। हेनरी पिरने ने इतिहास को प्राचीन काव्य से सम्बद्ध करके उसे कला कहा है। कला के समर्थकों ने ही इतिहास को साहित्य की शाखा माना है। क्रोचे ने भी तथ्यों का प्रस्तुतीकरण इतिहासकार का पवित्र कर्त्तव्य माना है। इतिहासकार और कलाकार में यही सामंजस्य है कि इतिहासकार एक कलाकार के रूप में अनुभव करता है। कला और इतिहास में थोड़ा-सा अन्तर कंवल यही है कि कला में सम्भावनाओं का वर्णन होता है, जबकि इतिहास में यथार्थता का प्रस्तुतीकरण होता है परन्तु दोनों ही अपने मस्तिष्क से काम लेते हैं, जिसका उत्तरदायित्व ता उनका अपना होता है और उनकी प्रस्तुति उनकी मानसिक प्रक्रिया का परिणाम होता है। इतिहास • इसलिए भी कला है कि उसमें यथार्थता के साथ विवरण सम्बन्धी कुशलता, रोचकता, दृष्टान्तों का चयन तथा चरित्र-चित्रण की विशेषताओं पर विशेष ध्यान दिया जाता है। यदि उसमें कला जैसी रोचकता न होती तो उसका अध्ययन नीरस बन जाता । 


अतएव फिल् वह निश्चित रूप से कला है।अतः हम कह सकते हैं कि इतिहास न तो केवल विज्ञान है और न ही केवल कला है, अपितु वह विज्ञान भी हैं और कला भी । विज्ञान में वह एक सामाजिक विज्ञान और कला में कल्पना प्रधान न होकर यथार्थ प्रधान है। जहाँ हम इतिहास और विज्ञान में एकरूपता इति पाते हैं वहाँ इतिहास को विज्ञान कहा जा सकता है, जबकि दोनों में अन्तर मिलने की दशा में इतिहास को विज्ञान नहीं माना जाता है। उसी तरह जहाँ उसमें (इतिहास में) कला को विशेषताएँ मिलती हैं वहाँ वह कला होता है और जहाँ नहीं मिलती वहाँ उसे कला से पृथक् अ रखते हैं। अतएव यह कहना अनुचित होगा कि इतिहास एक विज्ञान है, न उससे कम न भ अधिक; और कला भी है, न उससे कम और न उससे अधिक ।


(3) इतिहास एक दर्शन है— प्रश्न उठता है कि इतिहास एक विज्ञान और कला होने के साथ-साथ क्या एक दर्शन भी है ? पूर्वाग्रहहित होकर विचार करने पर हमें वास्तव में इतिहास एक दर्शन के रूप में प्राप्त होता है। इसके पक्ष में आज अनेक विद्वानों ने अपने विचार व्यक्त किये हैं, किन्तु कुछ ने अपने हकों द्वारा यह भी सिद्ध करने का यथासम्भवै प्रयास किया है कि इतिहास और दर्शन दोनों पृथक्-पृथक् दो विषय हैं तथा किसी भी दशा •में इतिहास एक दर्शन नहीं है। इसका उत्तर स्वतः ढूँढ़ पाने के लिये हमें दोनों तरह के कथनों परं दृष्टिपात करना होगा। है

हम जानते हैं कि इतिहास नेयार्थ है 'नेयार्थ' कहते हैं ऐसी अभ्यर्थना को जो मूलवत्ता के कारण नेय, अथवा धारणीय होती है। अभ्यर्थना से हमारा तात्पर्य अन्वेष्यार्थ से है। अन्वेष्य स्वभावतः मूल्यवान् होता है, परिणामत: नेय भी है। नेयता अतीत और वर्तमान का भविष्य के लिये धारण करना है और अन्वेष्यता भविष्य का वर्तमान में धारण है। ये दोनों परस्पर सापेक्ष हैं और यह सापेक्षता काल के ऐतिहासिक होने के लिये अनिवार्य है। अतीत भविष्य के लिये और भविष्य को अतीत में धारण किये बिना काल केवल प्रतिबिम्बित वर्तमान होता है। प्रतिविम्बित वर्तमान के अर्थ में कालिकता का जीव धर्म है, जो उसे अजीब से पृथक् करता है। किन्तु अर्थानुष्टिकालिकता मनुष्य की विशेषता है। यही इतिहास का दर्शन हमारा विचार अथवा चिन्तन एक तरफ इतिहास से सम्बद्ध है तो दूसरी ओर दर्शन से । 

सच पूछिये तो विचार ही दर्शन की प्रक्रिया को प्रारम्भ करता है और विचार से इतिहास का निर्माण भी होता है। आज का युग विचारों का युग है। विचार मस्तिष्क में उद्भुत होता है। और वाणी से अभिव्यक्त होता है। विचार मानव व्यापी होता है, जबकि ज्ञान वस्तु तन्त्र होता है। इतिहासकार वस्तु • तन्त्रीय ज्ञान को अभिव्यक्ति देता है, परन्तु जब विचारों में आग्रह आ जाता है तो वह वाद में परिणत हो जाता है। जिस तरह विचार अथवा चिन्तन दर्शन के लिये आवश्यक है उसी तरह से इतिहास के लिए भी आवश्यक। इसी आधार पर विचारक यह मानते हैं कि इतिहास एक दर्शन है।


इतिहास के क्षेत्र में वाल्टेयर, वीको तथा हर्डर ने अपनी पुस्तक 'आइडिया फार फिलासाफी ऑफ हिस्ट्री मैनकाइंड' द्वारा इतिहास दर्शन को प्रस्तुत किया है। हीगल ने अपनी रचना 'रेक्टर्स ऑन फिलासाफी ऑफ हिस्ट्री' के माध्यम से इतिहास को एक गूढ़ विषय के रूप में समाज के सम्मुख प्रस्तुत किया है। वाल्टेयर ने इतिहास-दर्शन का अभिप्राय वैज्ञानिक अथवा विश्लेषणात्मक अध्ययन द्वारा इसे प्रस्तुत करना स्वीकार किया है। उनके अनुसार इतिहास दर्शन और इतिहासकार के मस्तिष्क का पासपरिक सामजस्य है। दर्शन घटनाओं में एक घटना मात्र को देखता है, जबकि इतिहास दर्शन के प्रमाणित अर्थ और वास्तविकता को निश्चित करने का गर्व करता है। परिणामस्वरूप इतिहास दर्शन का अभिप्राय अतीतकालिक घटनाओं में निहित मानसिक प्रक्रिया अथवा विचार को वर्तमान और भविष्य में प्रतिरोपित करना मात्र होता है।


वस्तुत: इतिहास दर्शन इतिहास चिन्तन की एक विधि है।

स्पेंसर के कथन के आधार पर हम दर्शन को इतिहास से सम्पृक्त करने का प्रयास करते देखे जाते हैं। विज्ञान अन्ततः एकीकृत ज्ञान है, जबकि दर्शन पूर्णतया एकीकृत ज्ञान है। इतिहास की भी वही स्थिति है कि वह पूर्णतः विज्ञान नहीं है और जिस प्रकार दर्शन में गणित नहीं है उसकी तरह इतिहास में भी गणित के नियम नहीं हैं। इस तरह दोनों ही समान रूप से एक विज्ञान है, किन्तु विशुद्ध विज्ञान नहीं। अतः यह कहा जा सकता है कि इतिहास की प्रकृति दार्शनिक है।








एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ