विक्रमशिला विश्वविद्यालय की शिक्षा-व्यवस्था
(Throw light on the education system of Vikramshila University)
नालंदा विश्वविद्यालय, यदि अपनी लोकतांत्रिक पद्धति के लिए विख्यात है तो विक्रमशिला विश्वविद्यालय को भी दुनिया का प्रथम शाही विश्वविद्यालय होने का गौरव प्राप्त है।
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vikramshila University relics , source: tourism.bihar |
बिहार में स्थापित ये दोनों ही विश्वविद्यालय उस दौर की देन थे जब यह धरती दार्शनिक विचारों से आप्लावित थी तथा शिक्षा एवं संस्कृति का विकास अपने उत्कर्ष पर था। आठवीं से बारहवीं शताब्दी के मध्य लगभग चार सौ वर्षों तक विक्रमशिला की स्थिति तथा छवि आज के कैम्ब्रिज तथा ऑक्सफोर्ड से कहीं अधिक उन्नतावस्था में थी।
फाहियान, ह्वेनसांग, इत्सिंग, बुसतोन, सुमपा, जो वो, लामा-ग्सेर ग्लिं-पा, लो- त्सा-व-स, नागत्शो, लामातारा नाथ प्रभृति आदि के विवरणों से स्पष्ट होता है कि जब यूरोप के शिक्षाविदों के मत-मस्तिष्क में विश्वविद्यालय की परिकल्पना ने जन्म भी नहीं लिया था, भारत में बौद्ध महा-बिहार विश्वविद्यालयों की भूमिका का कुशलतापूर्वक निर्वहन कर रहे थे।
विक्रमशिला विश्वविद्यालय की विशालता तथा सुदृढ़ता से सम्बन्धित विवरणों से प्रतीत होता है कि यह प्रचण्ड राजकीय दुर्ग से युक्त एक लघु शैक्षणिक नगरी थी, जिसका विस्तार 10 से 12 मील तक था। पालवंश के प्रतापी सम्राट तथा विक्रमशिला के संस्थापक धर्मपाल ने शिक्षा एवं संस्कृति के सर्वांगीण विकास हेतु इस शिक्षा केन्द्र को अद्वितीय बनाने की चेष्टा की थी। कुछ अर्थों में इसका महत्त्व नालंदा विश्वविद्यालय से कहीं अधिक था । इस विश्वविद्यालय में छः द्वार थे, जिनका सम्बन्ध छ: प्रकाण्ड पंडितों से था, जो छः विभिन्न शाखाओं के निष्णात विद्वान थे। ये विद्वान द्वार पंडित थे ।
1. प्रज्ञाकरमति- ये दक्षिण द्वार के पंडित थे ।
2. रत्नाकरशान्ति - ये पूर्वी द्वार के पंडित थे । इनका दूसरा नाम शान्तिपा था । इन्हें
व्याकरण और न्याय का महापंडित माना जाता है ।
3. वागीश्वर कीर्ति - ये पश्चिमी द्वार के प्रतिष्ठित पंडित थे। इन्हें व्याकरण, न्याय तथा
काव्य का महान पंडित माना जाता है ।
4. भट्टारक नरोपान्त- ये उत्तरी द्वार के महापंडित थे। उन्हें महायान तथा तंत्र का
महान पंडित माना जाता है ।
5. रत्नवज्र प्रथम - ये केन्द्रीय द्वार पर प्रतिष्ठित पंडित थे ।
6. ज्ञानश्री मित्र- ये द्वितीय केन्द्रीय द्वार के महापंडित थे ।
'उपर्युक्त सभी पंडितों को अपने विषय का सर्वज्ञानसम्पन्न माना जाता था। विक्रमशिला महाविहार में प्रवेश लेने वाले समस्त इच्छुक व्यक्तियों को सर्वप्रथम इन महापंडितों के समक्ष उपस्थित होना पड़ता था और जो व्यक्ति इनके द्वारा पूछे गये प्रश्नों का संतोषजनक उत्तर देते थे, उन्हें ही महाविहार में प्रवेश मिलता था। पंडित तथा आचार्य विश्वविद्यालय के सर्वश्रेष्ठ शिक्षकों को दी जाने वाली सम्मान बोधक उपाधि थी। इन उपाधियों को स्वयं तत्कालीन सम्राट, जां विश्वविद्यालय का कुलपति भी होता था, प्रदान करता था। पंडित तथा आचार्य की उपाधि प्राप्त विद्वानों की शोहरत देश-विदेश में फैल जाती थी। ऐतिहासिक स्रोतों के आधार पर कहा जाता है कि सम्राट महीपाल ने रत्नवज्र तथा जेतारी को क्रमश: पंडित तथ्य आचार्य को उपाधि प्रदान की थी।
विश्वविद्यालय में आचायों तथा पंडितों के अतिरिक्त लगभग 108 पडत थे, जो विभिन्न विषयों को शिक्षा प्रदान करते थे। तिब्बती इतिहासकार जपशील के अनुसार पति अद्भुत ज्ञान के धनी थे। तत्कालीन ये विहार, त्योर्तिलिका कीर्ति स्तम्भ मानते थे। तामातारा नाथ ने बारह महान पंडितों की चर्चा की है। ये थे- 1. बुद्धज्ञानपाद, 2. दीपंकर भद्र, 3. जयभद्र, 4. श्रीधर 5.6. मध्यकीर्ति 2. तिलावत्र, 8. द्वीजेन्द्रचन्द्र 9. कृष्ण समयवज्र, 10. तथागत रक्षित, 11. बोधिभद्र, 12. कमलरक्षित ।
पालवंश के सम्राट रामपाल देव के शासन काल (1075-1120 ई.) में, जब अभ्याषकर देव विश्वविद्यालय के प्रधान आचार्य थे, महाविहार में विभिन्न विषयों के 160 पंडित तथा एक हजार भिक्षु तथा दस हजार विद्यार्थी निवास करते थे। कहा जाता है कि एक समय है ऐसा भी आया जब विक्रमशिला विश्वविद्यालय की महत्ता नालन्दा विश्वविद्यालय से भी बढ़ गई थी।
विक्रमशिला विश्वविद्यालय का पाठ्यक्रम पूर्णतः सुगठित और सुनियोजित था । सामान्यतः छात्रों को व्याकरण, तत्त्वमीमांसा, तर्कशास्त्र, तंत्रशास्त्र तथा कर्मकाण्ड की शिक्षा दी जाती थी। आवश्यकतानुरूप इच्छुक मेधावी छात्रों के लिए सांख्य, चिकित्सा, शिल्पशास्त्र तथा अभिधम्म के शिक्षण की भी व्यवस्था थी। विषय का आवंटन छात्रों की तत्कालीन सामाजिक आवश्यकता के अनुरूप की जाती थी।
सभी छात्रों के लिए संस्कृत का ज्ञान आवश्यक था। अध्ययन-अध्यापन के लिए निजी वर्ग तथा सामूहिक वर्ग प्रणाली प्रचलित थी । छात्रों में विश्लेषणात्मक प्रतिभा पैदा करने के लिए समय-समय पर पाठ्यक्रम से सम्बद्ध किसी विषय पर वाद-विवाद-सत्र आयोजित किये जाते थे। प्रत्येक शैक्षणिक सत्र की समाप्ति के पूर्व विश्वविद्यालय के आचार्य के बीच सार्वजनिक शास्वार्थ भी आयोजित होता था। चारों को अभिप्रेरित करने में इन शास्त्रों की महती भूमिका होती थी। इस अवसर पर विद्वानों में जमकर वाद-विवाद होता था तथा नये सिद्धान्तों की निष्पति होती थी। जिस विद्वान के विचार को सर्वसम्मति से मान्य घोषित किया जाता था, वह विचार उक्त विद्वान के नाम से जुड़ जाता था तथा भविष्य में वह 'संदर्भ' बन जाता था ।
विश्वविद्यालय में अध्ययनात् कतिपय छात्र अपने आचार्यों की प्रतिष्ठा तथा विद्वता से अभिभूत होकर आरम्भ से हो शिक्षानुरागी बन जाते थे और परिणामतः नियमित उच्च शिक्षा प्राप्त कर लेने के बाद उनमें शोधार्थी बनने की भावना प्रबल हो जाती थी। इस विश्वविद्यालय में शोध कार्य को अपनी विशिष्ट शैली तथा प्रणाली थी। विद्वान आचायों के निदेशन में नितं नये सन्दर्भों में धम, भाषा, संस्कृति तथा दर्शन को परिभाषित किया जाता था । शोधार्थियों के लिए एक विशाल पुस्तकालय था, जिसमें अनगिनत पाण्डुलिपियों संग्रहित थी
इसमें तत्त्वमीमांसा, तंत्रविद्या, तर्कशास्त्र, व्याकरण तथा न्याय से सम्बन्धित विपुल साहित्य मौजूद था। इन पाण्डुलिपियों की प्रतिलिपियों के निर्माण का दायित्व आचार्य तथा विद्यार्थियों पर था । पाल नृपति गोपाल द्वितीय के शासन काल में अष्टसाहस्रि के प्रज्ञापारमिता की लिपिका निर्माण इसी विश्वविद्यालय में किया गया था। विश्वविद्यालय की प्रबंध समिति की देखरेख में नये-नये पाण्डुलिपि ग्रंथों तथा तालपोथियों का संग्रहण तो किया ही जाता था. साथ-ही-साथ पुनर्लेखन तथा चित्रांकन का कार्य भी चलता रहता था । पुस्तकालय को कई बार विदेशों से भी पाण्डुलिपियाँ दान स्वरूप प्राप्त होती थीं।
विक्रमशिला विश्वविद्यालय ने तंत्रवाद के विकास में भी काफी योगदान दिया था । नरोपा, जो तिलोपा का प्रधान शिष्य था, को इस महाविहार में तंत्रयान का जनक माना जाता है। वह सिद्धाचार्य के अतिरिक्त कई अन्य विषयों का भी ज्ञाता था, पारमितायान तथा तंत्रयान पर उसकी पकड़ तथा प्रतिपदित सिद्धान्त उसकी विद्वता का परिचायक है । नरोपा के कारण न सिर्फ इस विश्वविद्यालय की ख्याति दूर-दूर तक फैली, बल्कि तंत्रवादी विचारधारा को भी व्यापक प्रसार मिला। वह 1049 ई. में नालन्दा का प्रधान आचार्य बना। न्याय के क्षेत्र में भी इस महाबिहार की उल्लेखनीय भूमिका रही ।
ज्ञानश्री और रत्नकीर्ति को प्रमाण बार्तिक सम्प्रदाय का जनक माना जाता है। रत्नकीर्ति ज्ञान श्री का शिष्य था और उसने अपने गुरु की कृति को फैलाने में अतिशय सक्रियता दिखलाई थी । कहा जाता है कि यहीं बौद्ध नैयायिकों ने मिथिला नैयायिकों को परास्त कर अपना लोहा मनवाया था । देश-विदेश में नैयायिकों के इस वाद-विवाद को काफी प्रचार मिला था और फलस्वरूप विक्रमशिला विश्वविद्यालय की ख्याति अत्यधिक बढ़ गई।
विश्वविद्यालय में स्वतंत्र चिन्तन, नवीन अन्वेषण तथा विलक्षण मेधा को सम्मानित करने के लिए दीक्षांत समारोह का आयोजन होता था। सामान्यतः इस अवसर पर मेधावी छात्रों तथा विभिन्न शाखाओं के पारंगत आचार्यों को विविध उपाधियाँ समर्पित की जाती थीं।
Vikramshila University, king Dharampala,
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