Throw light on the Political History, Administrative System and Cul tural Conditions of Chandels.)
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चंदेलों वंश -राजनीतिक इतिहास- Chandela dynasty - political history -
जहाँ आजकल बुंदेलखंड है, वहीं पर
चंदेलों की. राजनीतिक शक्ति का उदय हुआ। खजुराहो उनकी राजधानी थी। इस वंश का
सर्वप्रथम राजा नन्नुक हुआ। उसके पौत्र जयसिंह अथवा जेजा के नाम पर यह प्रदेश
जेजाकभुक्ति कहलाया । हर्षदेव (905-925ई०) के समय से चंदेलों की शक्ति जोरों से बढ़नी शुरू
हुई । उसके पुत्र यशोवर्मन ने मालवा, चेदि और महाकोसल पर आक्रमण करके अपने राज्य का
पर्याप्त • विस्तार कर
लिया और व्यवहार से वह प्रतीहारों से बिलकुल स्वतंत्र हो गया, यद्यपि यह
उनका नाममात्र का आधिपत्य स्वीकार करता था।
यशोवर्मन का पुत्र धंग (950-1008 ई०) बड़ा
प्रतापी और विजयी सिद्ध हुआ। प्रतीहारों से पूर्ण स्वतंत्रता का वास्तविक श्रेय
उसी को दिया जाता है। धंग की विजयों के फलस्वरूप उसका राज्य पश्चिम में ग्वालियर, पूर्व में
वाराणसी और उत्तर में यमुना तट तक था तथा दक्षिण में चेदि और मालवा की सीमा तक फैल
गया। शाही राजा जयपाल ने तुर्कों का प्रतिरोध करने के लिए जो संघ बनाया था, उसमें धंग
ने सक्रिय भाग लिया।
धंग के बाद उसका पुत्र गंड राजा हुआ। उसने भी 1008 ई० में
महमूद गजनवी का सामाना करने लिए जयपाल के पुत्र आनंदपाल द्वारा बनाये हुए संघ में
भाग लिया। दुर्भाग्य से यह दूसरा संघ भी पराजित हुआ। विद्याधर ने भोज परमार और
कलचुरि गांगेय की सहायता से तुर्कों को मध्य देश से निकालने का प्रयास किया ।
विद्याधर के उत्तराधिकारी कीर्तिवर्मा ने कलचुरियों को अच्छी तरह हरा कर अपनी शक्ति सुदृढ़ की। चंदेल वंश का अंतिम शक्तिशाली राजा परमर्दि अथवा परमल था। इसके समय में अजमेर के चौहान राजा पृथ्वीराज ने आक्रमण किया। 1203 ई० में गहड़वालों की शक्ति नष्ट हो जाने के बाद जब कुतुबुद्दीन ऐबक ने कालंजर पर आक्रमण किया तब परमर्दि ने उसका घोर विरोध विया, किंतु अंत में उसे हार खानी पड़ी। शासन प्रबंध चंदेल राजा सर्वप्रथम सम्पन्न होने के साथ ही वीर, क्षमाशील, कूटनीतिज्ञ, विधि विशेषज्ञ, धैर्यवान और महत्त्वाकांक्षी भी होता था। यद्यपि उसके अधिकार अनेक थे,
तथापि और साम्राज्य वह आत्म-नियंत्रित एवं प्रजा वत्सल होता था। सेना का प्रमुख अधिकारी वही होता था तथा वह सभी प्रमुख युद्धों में भाग लेता था। तत्कालीन उत्तरी भारत में युद्ध विस्तार राजानीति के मुख्य उद्देश्य थे। सो, सेना अति आवश्यक थी और इसलिये चन्देल राजाओं ने सेना पर विशेष ध्यान दिया। दुर्ग विन्यास चन्देलों की सैन्य व्यवस्था का एक विशेष अंग था।
राजा का पद-यह पद पैतृक होता था। राजा के निःसंतान
स्वर्गवासी हो जाने पर उसका छोटा भाई राजा बनता था। उदाहरणार्थ सल्लक्षवर्मन के
पुत्र जयवर्मन के देहान्त के उपरान्त उसका छोटा भाई पृथ्वीवर्मन शासक बना। ऐसा
माना जा सकता है कि रानी का भी महत्त्वपूर्ण स्थान रहा होगा। परमर्दी की पत्नी
मल्लनदेवी ने पृथ्वीराज चौहान से सन्धि वार्ता चलायी थी। वीर्यवर्मन की रानी
कल्याणदेवी ने भी राज्य के क्रिया-कलापों में महत्त्वपूर्ण भाग लिया था। इससे पता
चलता है कि सम्भवतः राजमहिषि राज-काज में भी भाग लेती थी।
मन्त्रि-परिषद्- Council of Ministers
यह शासन का एक आवश्यक अंग मानी जाती
थी । राज्य केन्द्रीय, प्रान्तीय, और स्थानीय
शासन की इकाइयों में विभक्त था। न्याय व्यवस्था अधिकतर प्राचीन आधार पर ही आधारित
थी । राजा न्याय की मूर्ति होता था। दण्ड विधान कठोर होता जा रहा था। अलबरूनी से
पता चलता है कि सत्य परीक्षा आदि विधियाँ भी न्याय प्रणाली के काम में लायी जाती
थीं। पुलिस व्यवस्था भी अच्छी थी। राजस्थानीय इस विभाग का सर्वोत्तम कर्मचारी था।
जनहित कार्यों का एक अलग विभाग था। सामाजिक दशा
समाज के 4 वर्णों के संगठन में अब दुर्बलता आ गयी थी। तुर्कों
के सम्पर्क से समाज में संकोच और बहिष्कार की प्रवृत्ति काफी बढ़ गयी थी। विवाह एक
समाजिक कर्त्तव्य माना जाता है। साधारणतया विवाह एक ही जाति में होते थे।
बाल-विवाह तथा सती प्रथा का भी प्रचलन था। स्त्रियों की दशा अधिक सन्तोषजनक नहीं
दिखायी देती थी । फिर भी, ऐसा प्रतीत
होता है कि सामाजिक कार्यों में वे निर्बाध भाग ले सकती थीं। भोजन और पेय बड़ा ही
सौख्यपूर्ण था। वस्त्रों और आभूषणों पर लोग पर्याप्त व्यय करते थे। प्रचलित
विश्वासों में लोग आस्था रखते थे। समाज में विनोद के अनेक साधन थे। सार्वजनिक
विनोद का प्रबन्ध सरकार की ओर से किया जाता था। धार्मिक दशा
विष्णु, शिव, आदित्य, गणेश आदि विभिन्न देवताओं के लिये बने देवालयों में
मूर्तियों की व्यक्तिगत अर्चना का प्रादुर्भाव हुआ। बौद्ध धर्म की दशा बहुत अच्छी
नहीं थी। जैन धर्म अपनी सहज गति से चलता जा रहा था। शक्ति पूजा का आविर्भाव हुआ।
तान्त्रिकों और अघोर पन्थियों के उदय के साथ मैथुन और मदुरा का प्राबल्य हुआ ।
दर्शन के विभिन्न तत्त्वों से समाज का प्रबुद्ध वर्ग
परिचित था। परन्तु मुस्लिम आक्रमणों ने समाज के समक्ष हिन्दू जाति और संस्कृति की
रक्षा का प्रश्न उत्पन्न कर दिया। अतः हिन्दुओं में यह भावना जाग्रत हो रही थी कि
पारस्परिक धार्मिक और दार्शनिक मतभेदों को भूलकर धर्म के मूल तत्त्वों के आधार पर
एकता स्थापित करनी चाहिए ।
उल्लेखनीय है। भाषा एवं साहित्य is noted. language and literature
गदाधर भी कवि था। लोक काव्य का नेता जगनिक चन्देलों का ही आश्रित था।
आर्थिक व्यवस्था विकसित थी। आय के साधनों में भूमि कर, अन्य शुल्क और खनिज चन्देल शासको ने विद्वानों और कवियों को आश्रय देकर भाषा तथा साहित्य की उन्नति में आशातीत योगदान दिया। गण्डदेव और परमार्दी स्वयं कवि थे। परमार्दी का सन्धिविग्रहिक
स्थापत्य-चन्देल कला का मुख्य केन्द्र खजुराहो था। कहा जाता है, यहाँ करीब 85 मन्दिर थे और अब 25 ही रह गये हैं। मन्दिर वैष्णव, शैव और धर्म से सम्बन्धित हैं। ये सब मन्दिर की सुन्दरतम कृतयों में से हैं। लगता है कि, ये मन्दिर केवल राजाओं, दरबारियों और चुनिन्दे नागरिकों के लिये ही थे। मन्दिरों का जो स्थान है वह बिल्कुल बन्द - सा है।
मन्दिरों के मुख्य भाग हैं The main parts of the temples are
(1) अर्द्ध मण्डप,
(2) मण्डप
(3) अन्तराल,
(4) गर्भगृह, गर्भगृह काफी छोटा है।
अन्तराल में कुछ उपासक आ सकते
हैं और मण्डप में कुछ पंक्ति बनाकर खड़े हो सकते हैं। महामण्डप में धार्मिक
सम्भाषण, गायन आदि
होता था। इसके अलावा, यहाँ
देवदासियों द्वारा नाच होता था जो राजा-रानी, कुछ दरबारी तथा कुछ चुनिन्दे लोगों द्वारा देखा जाता
था। लगता है, इन
मन्दिरों में कुछ संस्कार होते थे।
सभी मन्दिरों का आकार और विन्यास एक सामान है और शास्त्रीय आधार पर है। इनमें चहारदीवारी नहीं है और उनका निर्माण एक आधार पीठिका पर हुआ है। अधिकतर देवालय नागर शैली के हैं। कुछ ग्रेनाइट पत्थर के हैं और अधिकांश उत्कर्ष श्रेणी के गुलाबी अथवा हल्के पीले रंग के बलुआ पत्थर के हैं और आज यूनेस्को द्वारा इन्हें विश्व धरोहर की सूची में ले लिया गया है। आगे मन्दिर के उपरोक्त गिनाये गए चार अंगों के ऊपर शिखर, प्राचीर आदि की मंजिल है जो निरन्तर ऊपर की ओर उठती चली गयी है।
मन्दिर के प्रत्येक भाग की छत पृथक है। आकाश को ताकते शिखरों की
ऊँचायी क्रमशः घटती चली गयी हैं । खजुराहो के मन्दिरों में सबसे भव्य शिखर है।
इनमें सबसे अधिक आकर्षक वे छोटे-छोटे शिखर हैं जो मुख्य शिखर से सम्बन्धित हैं तथा
उसी के अनुपात में बनाये गये हैं। ये शिखर एक प्रकार से पवर्तमाला का आभास देते हैं
। ई० बी० हवेल का कथन है कि “ये शिखर देवपूजा की सार्वभौम सत्ता के प्रतीक
हैं।" हर शिखर के ऊपर आमलक है। इन मन्दिरों की वास्तुकला जीवन दर्शन की
प्रतीक है। ये मन्दिर एक के बाद एक इस प्रकार उठते चले गये हैं कि मानव और ईश्वर
का एकाएक से प्रतीत होते हैं
मन्दिर में प्रवेश के लिये पूर्व की ओर से मार्ग है जो सीढ़ियों के द्वारा ऊपर उठता चला गया है। मुख्य द्वार वास्तुकला का एक सुन्दर नमूना है। पर्सी ब्राउन का इस सम्बन्ध में, कथन है, "मन्दिर ऐसा दिखायी देता है कि हाथी दाँत की कलाकृति अथवा लटकते हुए पर्दे दिखायी देते हैं न कि पोषण पर उत्कीर्ण कलाकृति ।" मन्दिरों का सभा भवन शिल्प कृतियों से सजा हुआ है।
मन्दिर की छत को रोकने के लिये चौकोर स्तम्भों का आधार बनाया गया है। इसमें दो लम्ब रूप में तथा दो चौड़ाई में हैं और इस प्रकार स्तम्भों का भी प्रयोग किया गया है। इन सभी स्तम्भों पर आकृतियाँ उत्कीर्ण हैं। दीवारों की मूर्तियों की तीन पंक्तियाँ सुन्दरियों की तेरहा मेखला की तरह हैं और यात्रियों के लिए प्रतिमा विज्ञान में एक पाठ है। आगे, ये वास्तव में वास्तुकला और शिल्पकला के विवाह की द्योतक हैं। दोनों का आपस में पूर्ण समाकलन है। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। यहाँ मूर्तिकला को आश्रय के लिये संघर्ष नहीं करना पड़ा, वरन् शिल्पकारियों से उसे अपना स्वाभाविक और अनिवार्य रूप प्राप्त हो गया ।
खजुराहो के मन्दिर स्थापत्य कला के विकास में 64 योगिनी के
मन्दिर का स्थान प्रथम है। योगिनी भक्ति की विशेष जानकारी तान्त्रिकी पुस्तक 'भूत दमर' में है।
इनसे सम्बन्धि त यह मन्दिर आयताकार आधार पर बना है (अधिकतर गोल आधार पर बने हैं) ।
इसमें 64 परिधीय
कक्ष हैं, एक बड़ा
कमरा है, सभी पर
शिखर हैं। इसका प्रांगण खुला है। मोटे रूप से यहाँ गुप्त शैली दृष्टव्य है ।
दूसरे नम्बर पर ब्रह्मा (ग्रेनाइट का) के मन्दिर को
रखा जा सकता है। इसके दरिनुमा कोने अपरिष्कृत हैं, इसका प्रक्षेपण शिखर से नीचे उतरता नजर आता है ।
अँधेरे गर्भ (Sanctum) में प्रकाश
की व्यवस्था इसकी नवीनता है। यह व्यवस्था जालीदार खिड़कियों से सम्भव हो सकी ।
खजुराहो का सबसे विशेष और उल्लेखनीय मन्दिर महादेव का मन्दिर है जो 32.07 मी० लम्बा, 12 मी० चौड़ा तथा 34 मी० ऊँचा है ।
इसमें निम्नलिखित प्रमुख भाग हैं-
(i) अर्द्ध मण्डप (Portico),
(ii) सभा भवन (Main hall),
(iii) महामण्डप (Transepts,
(iv) ड्यौढ़ी (Vestibule),
(v) गर्भगृह (Sanotum),
(vi) आच्छादित मार्ग (Ambulatory),
(vii) शिवलिंग और शिव, ब्रह्मा आदि की मूर्तियाँ मन्दिर का शिखर अत्यन्त सुन्दर है तथा उठी हुई छत अत्यन्त आकर्षक है। मन्दिरों की दीवारें कलाकृतियों से परिपूर्ण है । ए० कनिंघम के अनुसार, इन दीवारों पर कुल 872 मूर्तियाँ थीं, जिनमें 226 अन्तर की ओर तथा 646 बाहर की ओर थीं।
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kandariya mahadeva temple architecture magadhIAS |
विष्णु का चतुर्भुज मंदिर भी महत्त्वपूर्ण है। मन्दिर की प्रतिमा 3 सिर और चार हाथों से युक्त है। उसमें मध्य का सिर मनुष्य का तथा शेष नरसिंह का है। यह मन्दिर 25x 13 मी० का है। स्तम्भों के शीर्षों पर विद्याधर की आकृतियाँ है । इस मन्दिर की शेष बनावट महादेव के मन्दिर के समान है ।
जैन मन्दिरों में सबसे विशाल मन्दिर पार्श्वनाथ का है। यह 18.6x9.13 मी० की है । • शैली की दृष्टि से यह मन्दिर हिन्दू मन्दिर के समान है।
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lakshmana temple khajuraho:magadhIAS |
चन्देल वंश के कुछ मन्दिर महोबा में भी हैं। मूर्ति कला - वेदी के अन्दर साम्प्रदायिक मूर्तियाँ हैं बाकी सब वस्तु शिल्पीय मूर्तियाँ हैं
जो हाई रिलीफ (high relief) में हैं और जो मन्दिरों में अग्रभाग या पुराभाग के अलंकरण के बतौर खोदी गयी हैं और जो प्लास्टिक कला में एक निबन्ध है । इनके अंग वक्र रेखी हैं, शरीर के निचले हिस्से और भुजाओं की सीधी रेखायें कूल्हे और यक्ष को उभारने में सहयोग देती हैं। इनकी गति त्रिविम है, न कि रेखीय । आकृतियों की शक्ल, आँखें, भौंहें, होंठ, बालों और आभूषणों के साथ किया गया विशेष बर्ताव अत्यन्त ही सराहनीय है। नाक, मोटे रूप से यहाँ की मूर्तियों का अध्ययन निम्न शीर्षों में किया जा सकता है
(1) साम्प्रदायिक मूर्तियाँ-3 सिरों वाले विष्णु की मूर्ति, सूर्य देवता, शासन देवताओं के साथ जैन तीर्थंकरों की मूर्तियों आदि मुख्य हैं। सूर्य, ब्रह्मा और शिव की मूर्तियाँ बहुत सुन्दर हैं ।
(2) दिक्पाल - दिक्पाल की मूर्तियों में खण्डरीय मन्दिर की अग्नि देवता की मूर्ति तथा पार्श्वनाथ के मन्दिर की मूर्ति उल्लेखनीय है ।
( 3 ) आवरक या
आच्छादी मूर्तियाँ एवं परिवार देवता गर्भ गृह में लिंग सम्बन्धी • आवरक मूर्ति
एवं परिवार देवता हैं। चतुर्भुज शिव की मूर्तियाँ मुख्य हैं। अकेले एवं युग्म में
पावर्ती की मूर्तियाँ भी उल्लेखनीय हैं। यम, भैरव, बलराम और रेवती, शिव से सम्बन्धित नागिन की मूर्तियाँ आदि भी दर्शनीय
हैं।
( 4 ) नायिका और
अप्सरायें - औरत - प्रेमिकाओं की ये मूर्तियाँ गजब की हैं। जीवन का स्पन्दन आज भी
महसूस करने लायक है । कुछ मूर्तियाँ जूड़ा गूंथते बतलायी गयी हैं; कुछ अपने
पाँव में महावर रचा रही हैं; कुछ आईने की सहायता से सिर पर तिलक लगा रही हैं; कुछ के
हाथों में पाउडर का डिब्बा है; कुछ प्रेम पत्र लिखती हुयी दिखायी गयी है; तो कुछ पैर
में से काँटा निकालते हुए। और भी अन्य प्यार की कई दिलचस्प भंगिमाओं या मुद्राओं
में हैं। आगे, वामन
मन्दिर की दीवारों में दो पंक्तियों में अपने विलासी आकर्षण की परेड करती हुयी
नग्न अप्सराओं की कोई सानी नहीं है। ऐसा माना जा सकता है कि ये सिर्फ स्थूल माँस
का प्रदर्शन करने वाली नहीं, परन्तु आकाशीय जीव हैं ।
(5) मिथुन-युग्म-कुछ के अनुसर ये मूर्तियाँ शायद वात्सयायन के कामसूत्र का पत्थर में उत्कीर्णन है और कुछ के अनुसार व्यभिचार में व्यापार । मन्दिर की दीवारों पर इनकी उपस्थिति सदियों से आलोचनीय रही है। भगवतशरण उपाध्याय ने इन्हें व्यभिचार से सम्बन्धित बतलाया है। उपाध्याय का कहना है कि बाबुल के मिलिन्त मन्दिर में प्रत्येक पत्नी को कुछ समय अजनबी के साथ बिताना पड़ता था।
रोम में वीनस देवी के पास ही वेश्यालय था। उपाध्याय का कहना है कि इन मूरतों के शिल्पियों की मूल प्रेरणा वहाँ के (खजुराहो) के धर्म पुरुषों की उद्धाम वासना रही है। भारत में ऐसा वज्रयान के प्रभाव से हुआ । कुछ कहते हैं कि कौल और कापालिकों के प्रभाव से ऐसा हुआ। कुछ के अनुसार ये मूर्तियाँ सिद्ध सम्प्रदाय के विकास के फलस्वरूप यौनाचार की प्रबलता का प्रतिफल है।
नग्न (naked) चित्रों को देखने से पता चलता है कि उस समय आचार्य भरत द्वारा मान्य शृंगार रस की उज्जवलता तथा दर्शनीयता तिरोहित हो चुकी थी। कुछ के अनुसार ये मैथुन यौगिक क्रियाओं में एक निबन्ध है । माना कि खजुराहो में कुछ आकृतियाँ असामान्य एवं अस्वाभाविक-सी हैं । खासकर, एक वह आकृति जिसमें एक आदमी शीर्षासन भगिमा में एक औरत, जिसे दो मनुष्य ने सम्भाल रखा है, के साथ संभोग कर रहा है। यह दृश्य असामान्य तो है परन्तु यौगिक आसन की याद दिलाता है जो धातु रुकावट के लिये अनुशंसित है। यह असम्भव नहीं कि खजुराहो के संगतराशों के दिमाग में तान्त्रिक प्रयोग थे। जिस सम्पूर्णता से खजुराहो के शिल्पों की रचना हुयी है उसमें उस युग के, उस समाज के एक बहुत बड़े वर्ग की भागीदारी रही होगी, और कम से कम कलाकार की भागदीदारी से तो इन्कार नहीं किया जा सकता। जो भी हो इन आकृतियों को भोग-विलास का प्रतिनिधि मानना गलत होगा।
जहाँ एक तरफ ये रोमांचित कर देने वाली हैं वहीं दूसरी ओर ये प्रौढ़ भी हैं। इनका आदर्श इन्द्रिय सुख से ऊँचा है। ये अपने आप में दिमाग और दृष्टि, शक्ति और जीव, पुरुष और प्रकृति की एकता भी संजोये हुए हैं। और, फिर आलिंगन, चुम्बन, मैथुन आदि के मन्दिरों की दीवारों पर अंकन पर का औचित्य शिल्प शास्त्रों में वर्णित है। बेहतर होगा, यदि इन सांसारिक मूर्तियों के माध्यम की से अध्यात्म की ग्रन्थियों को सुलझाने का प्रयास किया जाये ।
( 6 ) पशु
आकृतियाँ -इनमें चूहा, लिओग्रेफो
(Leographo), सारदुल, वराह, कपि, आ हस्ति
आदि मुख्य हैं। अलंकरण, गोटिक, चर्च (Gothic Church) में भी हैं
।
( 7 ) फूल-पत्ती-फूल पत्तियों का अलंकरण भी अच्छा है, परन्तु लगता है, अत्यन्त के था ही लुभावनी मानव आकृतियों का चुम्बकत्व इनकी ओर नजर ही नहीं डालने देता ।
(8) महोबा की बुद्ध प्रतिमायें-चार बुद्ध प्रतिमाएँ महोबा को प्राप्त हुई हैं ।
अन्य कलायें- चन्देल चित्रकला का कोई प्रभावकारी नमूना नहीं मिलता है। ऐसा चल लगता है, नाट्यकला का उस समय विकास हुआ। कीर्तिवर्मन के बारे में कहा गया है कि वह नाट्य कला का सूक्ष्म पारखी था। अभिनय और संगीत की सन्तोषजनक उन्नति हुयी । विविध शिल्पों की भी यथेष्ट उन्नति हुयी । चन्देलों की मुद्रायें भी उत्कृष्टता लिये हुए हैं।
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