झरोखा दर्शन :- इसकी शुरुआत अकबर ने ही अपने राज्यकाल में की थी। अबुल फजल के अनुसार इसकी शुरुआत के पीछे यह उद्देश्य था कि प्रजा (सैनिक, व्यापारी, शिल्पकार, किसान, बीमार बच्चों के साथ औरतें) राजा के समक्ष उपस्थित हो सके व बिना किसी व्यवधान के उसके पास पहुंच सकें व उसके दर्शन कर सकें।
कालान्तर में यह साम्राज्य की एक बाकायदा परम्परा बन गई। बदायूंनी इसका श्रेय उन हिन्दुओं (विशेषत: ब्राह्मणों) के प्रभाव को देता है जो अकबर में अपने प्राचीन राजाओं की झलक देखते थे। वस्तुत: यह संस्था लोगों में शाही सत्ता के प्रति आस्था, विश्वास एवं स्वामीभक्ति पैदा करने के उद्देश्य से स्थापित की गई थी।
अकबर के समय ऐसे लोगों का उदय हुआ जो प्रातः सम्राट के दर्शन के बिना अन्न जल ग्रहण नहीं करते थे (जिन्हें 'दर्शनिया' कहा जाने लगा)। सम्राट झरोखे में आता था और दर्शन दे लेने के पश्चात् खुला दरबार लगाता था, जिसमें हिन्दू व मुसलमान, छोटे व बड़े सभी को अर्जियां पेश करने का अधिकार था तथा सम्राट तुरंत ही उनका न्याय करता था। जहांगीर ने इसे चालू रखा।
यहां तक कि अपनी अस्वस्थता के बावजूद झरोखा दर्शन हेतु उपस्थित होता था। शाहजहां इस सभा को अपेक्षाकृत कम समय (एक घंटा) देने लगा था तथा मामलों का निबटारा तुरंत न करके खिलवतखाना या दौलतखान-ए-खासो आम में करता था।
हाथियों की लड़ाई, मनसबदारों के सिपाहियों का निरीक्षण आदि कार्य भी झरोखा दर्शन के समय किए जाते थे। औरंगजेब ने शासन के 11वें वर्ष झरोखा दर्शन की प्रथा का त्याग कर दिया, यह कहकर कि ये एक प्रकार की मानव पूजा है।
0 टिप्पणियाँ
magadhIAS Always welcome your useful and effective suggestions