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कौटिल्य के अर्थशास्त्र के अनुसार राज्य की उत्पत्ति (Origin of the state according to Kautilya's Arthashastra)

राज्य की उत्पत्ति (Origin of the State)





कौटिल्य ने राजा या राज्य की उत्पत्ति की जो व्याख्या दी है, वह सत्रहवीं शताब्दी के यूरोप में प्रचलित सामाजिक अनुबंध (Social Contract) के सिद्धांत से मिलती-जुलती है। सामाजिक अनुबंध के सिद्धांत के अंतर्गत राज्य के निर्माण से पहले प्राकृतिक दशा (of Nature) की कल्पना की गई है। कौटिल्य ने इसके समानांतर अराजकता (Anarchy की स्थिति की कल्पना की है। प्रभुसत्ताधारी (Sovereign) की स्थापना से व्यक्तियों के किस राजनीतिक दायित्व (Political Obligation) की उद्भावना होती है, कौटिल्य ने उसे कर चुकाने के दायित्व (Obligation to Payment of Taxes) के रूप में हमारे सामने रखा है। 


परंतु कुछ मामलों में कौटिल्य का सिद्धांत पाश्चात्य मान्यताओं से सर्वथा भिन्न है। उन्होंने प्रभुसत्ताधारी को पूर्ण शक्तियां (Absolute Powers) प्रदान करने के लिए धार्मिक मान्यताओं का सहारा लिया है। परंतु साथ ही उन्होंने इन्हीं धार्मिक मान्यताओं के सहारे प्रभुसत्ताधारी को विस्तृत कर्त्तव्यों के बंधन से भी बांध दिया है।

यदि प्रभुसत्ताधारी अपने कर्त्तव्यों का पालन न कर पाए तो क्या प्रजा उसके विरुद्ध विद्रोह कर सकती है? कौटिल्य ने ऐसा तो नहीं कहा है, परंतु उनके कराधान-सिद्धांत (Theory of Taxation) से संभवतः यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि यदि राजा प्रजा के कुशलक्षेम (Well-being) की व्यवस्था न कर पाए तो प्रजा उसे कर देना बंद कर सकती है  शुक्राचार्य  ने लिखा है कि प्रजा अधर्मी राजा के देश को छोड़ कर किसी धर्मपरायण राजा के देश में जा सकती है। महाभारत और बौद्ध ग्रंथ 'दीघनिकाय' के अंतर्गत प्रजा को यह अधिकार दिया गया है कि वह अपने कर्त्तव्य का पालन न करने वाले राजा को सिंहासन से उतार सकती है।

कौटिल्य के अनुसार, राजसत्ता के उदय से पूर्व सर्वत्र अराजकता का बोलबाला था। यह 'मात्स्य न्याय' की स्थिति थी. अर्थात् जिस तरह किसी जलाशय या समुद्र में हर बड़ी मछली अपने से छोटी मछली को खा जाने को दौड़ती है, उसी तरह हर बलवान् मनुष्य अपने से निर्बल मनुष्य को अपना ग्रास बनाने को आतुर था। ऐसी स्थिति में शांति, व्यवस्था एवं सुरक्षा की आशा करना व्यर्थ होगा। 

इस 'मात्स्य न्याय' के आतंक से पीड़ित प्रजा ने सूर्य के पुत्र वैवस्वत मनु को अपना राजा मनोनीत किया। प्रजा ने यह निश्चय एवं प्रतिज्ञा की कि वह अपने अन्न का छठा भाग तथा व्यापार सामग्री एवं स्वर्ण का दसवां भाग राजा को देगी क्योंकि केवल राजा ही प्रजा को सुरक्षा एवं समृद्धि प्रदान कर सकता है। अतः राजा की स्थिति इंद्र एवं यम जैसे देवताओं के तुल्य है।

राजा का तिरस्कार करना पाप है जिसके फलस्वरूप दैवी दंड मिलता है। अतः प्रजा को चाहिए कि वह राजा का निरादर कभी न करे। दूसरी ओर, राजा का भी यह कर्तव्य है कि वह प्रजा की रक्षा में कोई त्रुटि न रहने दे, क्योंकि इसी दायित्व को स्वीकार करने पर ही उसे प्रजा उसका 'भाग' अर्थात् कर देती है ।

राज्य के कृत्य (Functions of the State)"


कौटिल्य के अनुसार, राजा का कर्त्तव्य है कि वह लोगों की स्त्रियों एवं संपत्ति को हानि न पहुंचने दें। उसे मिध्याभिमान जैसी बुराइयों से दूर रहना चाहिए। सांसारिक आनंद उठाते समय भी उसे सदाचार की अवहेलना नहीं करनी चाहिए। राजा की समुचित शिक्षा एवं आत्म-संयम सफल शासन के मूल मंत्र हैं।

कौटिल्य ने लिखा है कि राजा को प्रजा की सुरक्षा के लिए आठ प्रकार की दैवी विपत्तियों का निवारण करना चाहिए; आग, बाढ़, महामारी, दुर्भिक्ष, चूहे, सांप, शेर और भूत-प्रेत। राजा को चाहिए कि पीड़ित लोगों की पुत्रवत् रक्षा करे। गुप्तचरों की सहायता से अपराधियों को पकड़ने की विधियों का निर्देश देते हुए आचार्य कौटिल्य विभिन्न प्रकार के अपराधियों के लिए दंड भी निर्धारित करते हैं। इस प्रकार 'रक्षा' के कृत्य को तीन भागों में बांट सकते हैं:

(1) बाह्य शत्रुओं एवं आक्रमणकारियों से रक्षा
(2) राज्य की आंतरिक व्यवस्था एवं न्याय की रक्षा; और
(3) दैवी विपत्तियों-जैसे कि बाढ़, भूकंप, दुर्भिक्ष, आग, महामारी, घातक जंतुओं, इत्यादि से लोगों की रक्षा।

कौटिल्य ने राजा का कार्य क्षेत्र इतना विस्तृत रखा है कि उसने राज्य की संपूर्ण संस्थाओं को मनुष्य के आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और आर्थिक कल्याण का साधन बना दिया है। कौटिल्य ने राज्य को न केवल धर्म के संरक्षण के लिए उत्तरदायी ठहराया है बल्कि उसे पति-पत्नी, पिता-पुत्र, भाई-बहिन, गुरु-शिष्य, इत्यादि के संबंधों की पवित्रता की रक्षा का दायित्व भी सौंप दिया है। दरिद्रों, गर्भवती स्त्रियों, नवजात शिशुओं अनाथ और वृद्धों, इत्यादि को सहायता पहुँचाने का भार राज्य पर डालकर उन्होंने सामाजिक सुरक्षा (Social Security) की विस्तृत व्यवस्था भी कर दी है। उन्होंने विवाह के बाद संबंध-विच्छेद, परित्याग, पुनर्विवाह. स्त्रियों के सतीत्व एवं सम्मान की रक्षा, अवयस्क बालिकाओं के संरक्षण, प्रेमी-प्रेमिका के संबंधों तथा वेश्याओं के व्यवसाय इत्यादि से संबंधित नियमों का विस्तृत विवेचन किया है। प्रजा के मनोरंजन के साधनों जैसे कि नाटकों और द्यूत-क्रीड़ा, इत्यादि के नियमन एवं नियंत्रण का भार भी वे राज्य पर डालते हैं। उन्होंने लिखा है कि राज्य को नगर तथा ग्राम में शिविर तथा दुर्ग में, उपयुक्त दूरी पर मद्य की दुकानें स्वयं स्थापित करनी चाहिए या फिर मारियों को जो दुकानें खोलने की अनुमति देनी चाहिए। सार्वजनिक भवनों में आसन और शयन का समुचित प्रबंध होना चाहिए। तरह-तरह की सुगंधियों, फूलमालाओं, जल तथा अन्य सुख-सामग्री के साधनों से उनकी शोभा एवं उपयोगिता बढ़ानी चाहिए। कौटिल्य ने पशुओं के यक्ष तथा मांस के विक्रय के नियम भी लिखे हैं और उनकी बारीकियों पर प्रकाश डाला है।

कौटिल्य सभी व्यवसायों एवं व्यापारों पर राज्य के नियंत्रण के समर्थक हैं। वे यहां तक कहते हैं कि वैद्यों को गंभीर रोगियों के सभी मामलों की सूचना शासन को देनी चाहिए। यदि ऐसी सूचना दिए बिना रोगी की मृत्यु हो जाती है तो वैद्य दंड का भागी होगा। इसी प्रकार स्वर्णकारों, जुलाहों, धोबियों, इत्यादि के लिए भी अर्थशास्त्र में व्यावसायिक नियमों का विस्तृत विवरण दिया गया है। कर, लाभ और ब्याज की दरें भी कौटिल्य ने निर्धारित की हैं। उनके अनुसार राजमार्गों, राष्ट्रपथों तथा मार्ग के दूरी सूचक स्तंभों का व्यवस्थापन एवं नियंत्रण भी राज्य के हाथों में रहना चाहिए। कुछ विद्वानों की राय है कि कौटिल्य की राज्य-व्यवस्था आज के कल्याणकारी राज्य (Welfare State) की संकल्पना के अनुरूप है। इसमें नागरिकों के बाल्यकाल से वृद्धावस्था तक संपूर्ण जीवन की देखरेख की व्यवस्था की गई है।

राजा की शक्तियां (Powers of the King)

कौटिल्य के अर्थशास्त्र के अंतर्गत राज्य को इतने विस्तृत कार्य सौंपे गए हैं और राजा को इतनी विस्तृत शक्तियां दी गई है जैसे वह सर्वाधिकारवाद (Tocalitarianism) का समर्थक हो। अब प्रश्न उठता है कि क्या इतनी विस्तृत शक्तियां मिल जाने पर राजा स्वेच्छाचारी (Autocrael) नहीं हो जाएगा? इसमें संदेह नहीं कि कौटिल्य ने किसी ऐसे सांविधानिक संयंत्र (Constitutional Machincery) की रचना नहीं कि है जो राजा की प्रभुसत्ता (Sovereignty) को मर्यादित कर सके। जहां आचार्य मनु एक और राजा को पूर्णसत्तावादी (Absolutist) रूप देकर दूसरी ओर उसे 'धर्म' के अधीन कर देते हैं. वहां कौटिल्य 'धर्म' को यथेष्ट महत्त्व तो देते हैं, परंतु उसे इतना शक्तिशाली नहीं बनाते कि राजा की अपनी शक्ति बहुत कम रह जाए। अर्थशास्त्र के अंतर्गत 'धर्म' पर 'अर्थ' की प्रधानता को स्वीकार करके धर्मनिरपेक्षता का रास्ता अपनाया गया है।
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सर्वाधिकारवाद (Totalitarianism)

सर्वाधिकारवाद एक आधुनिक विचार है जिसने लोगों के सपूर्ण जीवन पर राज्य के पूर्ण या लगभग पूर्ण नियंत्रण की मांग की जाती है। इसमें सत्ताधारी गुट जो लक्ष्य निर्धारित करता है. उन्हीं की सिद्धि के लिए समाज के समस्त संसाधनों, अधिकारक्षेत्र और जनशक्ति का विस्तृत उपयोग किया जाता है। किसी को उनका विरोध करने या उनसे बाहर कोई दूसरा लक्ष्य प्रस्तावित करने का अधिकार या अवसर नहीं दिया जाता।
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कुछ भी हो, कौटिल्य को सर्वाधिकारवाद का समर्थक मानना युक्तिसंगत नहीं होगा। कौटिल्य यह तो मानते हैं कि राज्य का अध्यादेश क़ानून के अन्य स्रोतों से बढ़कर है। परंतु इतनी विस्तृत शक्तियों के बावजूद राजा पर कई तरह के व्यावहारिक नियंत्रण भी लागू होते

(1) धार्मिक नियंत्रण (Ecclesiastical Control)

 राजा का कर्त्तव्य था- प्रजा की रक्षा करना। इसमें प्रजा के धर्म की रक्षा करने का दायित्व भी आ जाता था। अतः राजा धार्मिक नियमों की उपेक्षा नहीं कर सकता था। यदि वह ऐसा करता तो ब्राह्मण उसके विरुद्ध हो जाते और उसके प्रति विद्रोह कर देते। महाभारत में तो यहां तक कहा गया है कि यदि राजा आततायी हो जाए या राज्य की रक्षा का कार्य करने से चूक जाए तो उसके विरुद्ध विद्रोह कर देना चाहिए और उसे राजा न समझकर एक पागल कुत्ते की तरह उसका वध कर देना चाहिए;

(2) मंत्रिपरिषद् का नियंत्रण (Council of Minister's Control): 

अर्थशास्त्र तथा अन्य प्राचीन हिंदू ग्रंथों में राजा को मंत्रिपरिषद् नियुक्त करने की आज्ञा दी गई है और यह कहा गया है कि मंत्रियों को वाद विवाद करने, परामर्श तथा मंत्रणा देने में निर्भीक होना चाहिए। 

राजा को भी आदेश दिया गया है कि वह अपने मंत्रियों की मंत्रणा को ध्यानपूर्वक सुने और उसकी उपेक्षा न करे। अतः परोक्ष रूप से राजा के व्यवहार पर मंत्रिपरिषद् का नियंत्रण भी रहता था। मंत्रियों ने षड्यंत्र करके स्वेच्छाचारी राजाओं को किस-किस तरह हटा दिया-ऐसे अनेक वृत्तांत प्राचीन ग्रंथों में मिलते हैं और

(3) जनमत का नियंत्रण (Public Opinion's Control):

 राजा प्रायः जनमत की अवहेलना कभी नहीं कर सकता था। कौटिल्य के अनुसार, राजतिलक के समय राजा को यह शपथ दिलाई जाती थी कि वह लोक इच्छा का सम्मान करेगा और लोक-हित में कार्य करेगा। प्राचीन काल की अनेक कथाओं से भी राजा के ऐसे व्यवहार की पुष्टि होती है। रामायण को कथा कौन नहीं जानता? इसके अनुसार, राम जैसे आदर्श राजा को पूरा विश्वास था कि उनकी प्रिय पत्नी सीता सर्वथा सच्चरित्र एवं निष्कलंक थीं. फिर भी उन्होंने इन्हें इसलिए निर्वासित कर दिया था क्योंकि उनकी प्रजा के लोग सीता के सतीत्व पर संदेह करने लगे थे। अतः यह सिद्ध होता है कि प्राचीन हिंदू राजा लोक-निंदा के प्रति अति सतर्क रहते थे। प्रजा को आश्वस्त रखना राजा का परम कर्तव्य था।

इस प्रकार हम देखते हैं कि आचार्य कौटिल्य प्रकटतः राजा को पूर्णसत्तावादी और सर्वाधिकारवादी स्थिति और शक्तियां तो प्रदान करते हैं, परंतु व्यावहारिक स्तर पर प्राचीन हिंदू राज्य प्रणाली के अंतर्गत राजा की प्रभुसत्ता पर अनेक नियंत्रण प्रचलित थे। फिर, राजा को इतनी विस्तृत शक्तियां इसलिए प्रदान की गई थीं ताकि वह जन सुरक्षा और जन-कल्याण से जुड़े कर्त्तव्यों का पालन कर सके। अन्यथा प्राचीन भारत का सामाजिक जीवन इतना स्वायत्त (Autonomous) था कि उस पर राज्य का पूर्ण नियंत्रण स्थापित करने की गुंजाइश बहुत कम थी। साधारणतः लोगों का सामाजिक जीवन धर्म से विनियमित होता था, और धर्म की रक्षा करना राजा का कर्त्तव्य था। राजा को कोई ऐसा कानून बनाने की शक्ति नहीं थी जो धर्म के अनुरूप न हो।

          

मंत्रिपरिषद् की भूमिका (Role of the Council of Ministers)


'अर्थशास्त्र' के प्रणेता आचार्य कौटिल्य लिखते हैं कि जिस प्रकार रथ एक चक्र के सहारे नहीं चल सकता, उसी प्रकार राजा को भी शासन चलाने के लिए दूसरे चक्र अर्थात् सहायकों और परामर्शदाताओं की आवश्यकता होती है। अतः वे कहते हैं कि राजा को अपने मंत्रियों की नियुक्ति करनी चाहिए और उनकी मंत्रणा को ध्यानपूर्वक सुनना चाहिए। यहाँ से 'मंत्रिपरिषद्' की नियुक्ति एवं उसके कार्यों की शुरूआत होती है। शासन के कार्य संचालन में मंत्री राजा को हार्दिक सहयोग दे पाएं इसके लिए यह आवश्यक है कि मंत्री सुयोग्य और 'परीक्षित' (अर्थात् परख कर नियुक्त किए गए हों। परीक्षा के मुख्य विषय होंगे-निर्भयता (अर्थात मे भय से विचलित न हों) और सच्चरित्रता (अर्थात् वे किसी प्रलोभन के वशीभूत न हो)


मन्त्रिपरिषद् के आकार के विषय में कौटिल्य अत्यंत उदार हैं। उनके विचार से, शासन की आवश्यकताओं और कार्य-वितरण की सुविधा की दृष्टि से मंत्रिपरिषद् का उपयुक्त आकार निर्धारित करना चाहिए। आचार्य मनु ने भी मानव धर्मशास्त्र' में ऐसा ही सुझाव दिया था हालांकि एक जगह उन्होंने मंत्रिपरिषद् के सदस्यों की संख्या सात या आठ रखने की सलाह दी थी। शुक्रनीति के प्रणेता शुक्राचार्य ने मंत्रियों को संख्या दस निर्धारित की है, जब कि महाभारत में चारों वर्णों के कुल मिला कर 37 सदस्य रखने का विधान है। इन सभी मतों की तुलना में आचार्य कौटिल्य अधिक व्यावहारिक एवं उदार हैं। यहां पर यह बात भी महत्त्वपूर्ण है कि वे योग्यता के आधार पर मंत्रियों की नियुक्ति करने के पक्ष में हैं जबकि बाद के इतिहास में यह नियुक्ति वंश-परंपरा के आधार पर होने लगी थी।

चूंकि अर्थशास्त्र में मंत्रियों की संख्या के विषय में रूढ़िवादी दृष्टिकोण नहीं अपनाया गया है, इसलिए वहां भिन्न-भिन्न मंत्रियों के निश्चित विभागों का विवरण भी नहीं मिलता। मंत्रिपरिषद् के प्रमुख को प्रायः महामंत्री कहा जाता था। कोषाध्यक्ष तथा मुख्य कर संग्राहक को अर्थशास्त्र में क्रमश: 'मन्निधाता' तथा 'समास' की संज्ञा दी गई है। इसी प्रकार शांति और युद्ध से संबंधित विभाग के अध्यक्ष को 'संधि विग्राहक' के नाम से पुकारा गया है, जो आधुनिक युग के 'विदेश मंत्री' (Foreign Minister) तथा 'प्रतिरक्षा मंत्री' (Defence Minister) का समन्वित रूप था। युद्ध के अभियान में वह राजा के साथ रहता था। क़ानूनी सलाहकार एवं मुख्य न्यायाधीश को 'प्राद्विवाक्' कहा गया है; सेना के अध्यक्ष को 'सेनापति' तथा मुख्य अभिलेखाधिकारी एवं सचिव को 'महाक्षपतालिक' को संज्ञा दी गई है।

कौटिल्य ने जिस मंत्रिपरिषद् का विवरण दिया है, उसका रूप न तो आधुनिक मंत्रिमंडल (Cabinet) के तुल्य था, न विधान सभा (Legislature) के समान था। मंत्रियों के सामूहिक उत्तरदायित्व (Collective Responsibility) का प्रश्न ही नहीं उठता था जैसा कि आज की मंत्रिमंडलीय प्रणाली (Cabinet System) में प्रचलित है। 'मंत्रिपरिषद्' का कार्य केवल विशेषज्ञ राय देना था जो राजा के लिए महत्त्वपूर्ण होते हुए भी क़ानून की दृष्टि से उसे बांध नहीं सकती थी। शासन करने का कार्य राजा का ही था; मंत्रिपरिषद में शासन की शक्ति निहित नहीं थी। फिर भी यह परिषद् सर्वथा प्रभाव शून्य नहीं हो सकती थी क्योंकि सभी राज्य - विशारदों ने मंत्रियों को निर्भीक, निष्पक्ष और स्पष्ट वाद-विवाद का आदेश दिया है, और राजा को अपने मंत्रियों की मंत्रणा पर ध्यान देने की सलाह दी है।

राज्यशास्त्र के अन्य आचार्यों के समान कौटिल्य ने भी मंत्रणा की गोपनीयता पर विशेष बल दिया है। राजा को निर्देश दिया गया है कि सबसे गूढ़ रहस्यों को वह एक ही मंत्री तक सीमित रखे ताकि ये रहस्य खुल न पाएं। जहां आचार्य कौटिल्य स्वयं गुप्तचरों की विस्तृत प्रणाली की व्यवस्था करते हैं, वहां यह आशंका प्रकट करना भी स्वाभाविक है कि शत्रु राजा के गुप्तचर भी सब जगह फैले हुए होंगे। अतः उनका कथन है कि मंत्रणा को सदैव गोपनीय रखना चाहिए तथा मंत्रणा स्थल के आसपास से स्त्रियों और तोता-मैना जैसे पक्षियों को भी दूर रखना चाहिए, क्योंकि स्त्रियां किसी बात को छिपा कर नहीं रख सकतीं, और तोता-मैना बात को समझ कर दोहरा देते हैं।



मंत्रिपरिषद् की तुलना आधुनिक विधान सभा से नहीं कर सकते क्योंकि उन दिनों सामान्यतः 'धर्म' के अलावा ऐसे लोकाचार और परंपराएं पहले से ही प्रचलित थीं जिनके आधार पर राजा निर्णय देता था। अतः राजा के निर्णय प्रचलित क़ानून के आधार पर विशेष मामलों में दिए गए निर्देश ही होते थे नए क़ानून बनाने की कोई आवश्यकता नहीं थी । मंत्रिपरिषद् प्रशासनिक मामलों में ही राजा को परामर्श एवं विशेषज्ञ राय देती थी। प्राचीन भारत में कौटिल्य ने जिस विशाल साम्राज्य की स्थापना में योग दिया था, उसका प्रशासन सचमुच एक जटिल कार्य था। इसके लिए प्रशासनिक कार्यों के विस्तृत वर्गीकरण के साथ-साथ इनकी देखरेख के लिए सुयोग्य मंत्रियों की नियुक्ति भी जरूरी थी। मंत्रिपरिषद का गठन इसी उद्देश्य की पूर्ति करता था।


गुप्तचर व्यवस्था का संगठन (Organization of Espionage System)


गुप्तचरों के कृत्य

(Functions of the Spies) कौटिल्य का कथन है कि राज्य के मामले में किसी व्यक्ति पर विश्वास नहीं किया जा सकता। अतः प्रशासन के प्रत्येक विभाग में तथा प्रजा के प्रत्येक हिस्से में गुप्तचरों का जाल बिछा देना चाहिए। अर्थशास्त्र में कौटिल्य ने गुप्तचर सेवा के संगठन तथा कार्य प्रणाली पर दो विशेष अध्याय लिखे हैं, और संपूर्ण कृति में जहां-तहां इसका उल्लेख किया है। उन्होंने गुप्तचरों की विभिन्न श्रेणियों का विवरण दिया है और गोपनीय सूचना के संप्रेषण के लिए सांकेतिक भाषा तथा संदेशवाहक कबूतरों के प्रयोग का निर्देश किया है। वे गुप्त वार्ता विभाग का नियंत्रण पांच गुप्तचर संस्थानों को सौंपने का विधान करते हैं जहां गुप्तचरों को प्राप्त सूचनाएं पहुँचानी चाहिए और वहीं से अपने कार्य के बारे में आवश्यक आदेश प्राप्त करने चाहिए। इन संस्थानों के अतिरिक्त कुछ विशेष गुप्तचरों की नियुक्त भी होनी चाहिए, जो सीधे ही किसी उच्च स्तर के मंत्री या राजा के ही अधीन हो। यहां तक कि मंत्रियों की गतिविधियों पर सर्तकता (Vigilance) रखने के लिए राजा कुछ गुप्तचर अपने अधीन रखता था, और ऐसे उदाहरण भी कम नहीं हैं कि स्वयं राजा वेष बदल कर गुप्तचर का कार्य करता था।

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मन्त्रभेदो हायोगक्षेमकरः।

गुप्त मंत्रणा का भेद खुल जाने पर राज्य का कुशलक्षेम नष्ट हो जाता है।

कौटिल्य अर्थशास्त्र
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गुप्तचरों की नियुक्ति किसी भी वर्ण या व्यवसाय के लोगों में से की जा सकती थी तथा स्त्रियों और पुरुषों दोनों को गुप्तचर का कार्य सौंपा जा सकता था। एक विशेष प्रकार के गुप्तचर 'सत्री' कहलाते थे, जिन्हें बाल्यकाल से ऐसा प्रशिक्षण दिया जाता था कि वे साधु या ज्योतिषी के वेष में प्रजा के निकट पहुँचकर गुप्त सूचनाएं प्राप्त कर सकें, क्योंकि साधारणतया लोग साधुओं और ज्योतिषियों के प्रति न केवल अत्यंत श्रद्धावान् होते थे, बल्कि उन्हें अपने मन की बात थी निःसंकोच बता देते थे।


लोगों का विश्वास प्राप्त करके ऐसे गुप्तचर उन स्थानों पर भी आसानी से पहुँच जाते थे जहा पहुँचना दूसरों के लिए कठिन या असंभव हो, और इस प्रकार उन्हें महत्त्वपूर्ण गुप्त सूचनाएं प्राप्त करने का अवसर मिल जाता था। इसमें संदेह नहीं कि इन गुप्तचरों का कार्य अत्यंत कठिन था क्योंकि उन्हें ऐसा व्यवहार करना पड़ता था कि लोग उनमें और यथार्थ साधुओं एवं ज्योतिषियों में अंतर न कर सकें, न ही उनके ऊपर किसी तरह संदेह कर सकें।

आचार्य कौटिल्य ने राज्य के भीतर और बाहर महत्त्वपूर्ण स्थानों पर गुप्तचरों का जाल बिछाने का आदेश दिया है। कहीं संन्यासियों के रूप में तो कहीं गृहस्थ के रूप में, कहीं विद्यार्थी के रूप में तो कहीं विद्वान् के वेष में, कहीं कृषक बनकर तो कहीं व्यापारी बनकर अपना कार्य करने के लिए गुप्तचरों का विस्तृत संगठन अपेक्षित था। एक प्रकार के गुप्तचर विशेष साहसिक श्रेणी के होते थे जो राजा के हित में गुप्त रूप से हिंसात्मक कार्य संपन्न करते थे। गुप्त रूप से राजा के शत्रुओं की हत्या कर देना उनके लिए बाएं हाथ का खेल था। अपराधियों का पता लगाने तथा राजशक्ति के विरुद्ध किसी भी षड्यंत्र का पता लगाकर उसके दमन का उपाय करना गुप्तचरों का प्रमुख कार्य था. चाहे ऐसे षड्यंत्र राज्य के भीतर हों या बाहर हों। निकटवर्ती राज्यों की शक्ति और क्षमता का आकलन करके अपने राजा को वहां पर आक्रमण करने या न करने के लिए परामर्श देना भी विशेष प्रकार के गुप्तचरों का कार्य था। शत्रु राजा की आक्रमण योजनाओं का पता लगाने और वहां क्रांति या षड्यंत्र को प्रोत्साहन देकर शत्रु राजा का वध करा देने तक के लिए आचार्य कौटिल्य गुप्तचरों की नियुक्ति का आदेश देते हैं।

मंत्रियों, सेनापतियों और न्यायाधीशों की राजभक्ति की परीक्षा करके राजा को इसकी सूचना देने के लिए भी गुप्तचर नियुक्त किए जाते थे। कौटिल्य के अनुसार, अपराधों के दमन के ध्येय से गुप्तचरों को प्रायः छद्मवेष में मंदिरगृहों, वेश्यालयों और घृत क्रीडास्थलों में जाते रहना चाहिए और वहां हर बात और हर कृत्य के प्रति सतर्क रहकर राज्य के लिए महत्वपूर्ण सूचना प्राप्त करनी चाहिए।

गुप्त सूचनाएं संकलित करने के अतिरिक्त गुप्तचरों का एक महत्त्वपूर्ण कार्य था राजा की लोकप्रियता की रक्षा करना। आधुनिक प्रशासन प्रणाली में जनसंपर्क अधिकारी (Public) Relations Officer) का जो कार्य है, कौटिल्य की प्रणाली में उसे गुप्तचरों को सौंपा गया है। आचार्य कौटिल्य के अनुसार जनमत (Public Opinion) का पता लगाने के लिए गुप्तचरों को दो दलों में विभक्त हो जाना चाहिए तथा यात्रास्थलों, सभाओं, निवास-स्थानों और सार्वजनिक स्थलों पर जनसमूहों के बीच जाकर कोई विवाद छेड़ देना चाहिए। एक पक्ष राजा की प्रशंसा करे, और दूसरा पक्ष उसकी निंदा करे। इस प्रकार जनसाधारण भी जब उनके वाद-विवाद में भाग लेकर अपने विचार प्रकट करेंगे तो गुप्तचर यह जान जाएंगे कि प्रजा किस बात से संतुष्ट है और किससे असंतुष्ट है? राजा को इसकी सूचना देकर वे प्रजा को संतुष्ट करने के उपायों से अवगत करा सकेंगे। इन गुप्तचरों का कार्य ऐसी सूचनाएं एकत्र करने तक ही सीमित नहीं है, बल्कि राजा की कीर्ति का प्रसार करने के लिए उन्हें राजा की अद्भुत शक्ति, गुणों और महान् कार्यों की कहानियों का प्रचार करना चाहिए और प्रशासन की आलोचनाओं का संतोषजनक उत्तर देना चाहिए। प्रजाजनों के मन में राजा के प्रति आदर, श्रद्धा और भक्ति को प्रोत्साहन देने के उपाय करना भी गुप्तचरों का कार्य था।


इस प्रकार हम देखते हैं कि कौटिल्य की शासन प्रणाली में गुप्तचर व्यवस्था का महत्त्वपूर्ण स्थान है। वह न केवल राजा की शक्ति के संरक्षण का साधन है, बल्कि अपराधों के निवारण एवं प्रजा की संतुष्टि के लिए भी उत्तरदायी है। गुप्तचर व्यवस्था राज्य- संयंत्र का अभिन्न अंग है। विदेश नीति के निर्माण और संचालन के लिए भी वह मार्गदर्शक का कार्य करती है।

प्रशासनिक भ्रष्टाचार की रोकथाम (Prevention of Administrative Corruption)


कौटिल्य ने चेतावनी दी है कि राजकीय कर्मचारियों के आचरण के मामले में विशेष सतर्कता (Vigilance) बरतना ज़रूरी है। प्रशासनिक भ्रष्टाचार की संभावना को व्यक्त करने के लिए उन्होंने जो दृष्टांत दिए हैं, उनमें इनकी अनोखी सूझ न झलकती है। उन्होंने लिखा है कि कोई व्यक्ति अपनी जिह्वा पर रखे हुए मधु या विष के स्वाद के प्रति उदासीन रहे ऐसा संभव नहीं है। मतलब यह कि राजपुरुष, अर्थात् सरकारी अधिकारी निर्लिप्त भाव से न तो अपनी शक्ति का प्रयोग कर सकते हैं, 4 अपने दायित्वों का निर्वाह कर सकते हैं। न फिर उन्होंने यह लिखा है कि पानी में चलने-फिरने वाली मछली कब, कैसे और कितना पानी पी जाती है, यह पता लगाना बहुत मुश्किल है। मतलब यह कि प्रशासनिक अधिकारी अपनी शक्ति का प्रयोग करते समय कितना स्वार्थ साधन कर लेंगे यह मालूम करना अत्यंत कठिन है। अतः राजा को इनको गतिविधियों पर लगातार निगरानी रखनी चाहिए।


Kautilya's Arthashastra:-magadhias


















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