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लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ( Lokmanya Bal Gangadhar Tilak, social reformer,freedom actvist

लोकमान्य बाल गंगधार तिलक  भारतीय राजनीति विचारक (Bal gangadhar Tilak )


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Bal gangadhar Tilak ,social reformer,freedom actvist
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लोकमान्य बाल गंगधार तिलक (1856-1920) को भारतीय राष्ट्रवाद का भगीरथ ऋषि कहा जाता है,। वे एक महान पत्रकार, शिक्षक, जननायक, और स्वतंत्रता सेनानी थे। उन्होंने आधुनिक भारतीय राजनीतिक चिंतन को एक नया मोड़ देकर इंडियन नेशनल कांग्रेस को देश के स्वाधीनता संघर्ष के लिए आमूल परिवर्तनवादी कार्यक्रम (Radical Programme) अपनाने के लिए विवश कर दिया।
 इस तरह उन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन में अमूल्य योगदान किया। एक सजग पत्रकार के नाते उन्होंने दो साप्ताहिक पत्र निकाले: मराठी में 'केसरी' और अंग्रेजी में 'मराठा'। 'केसरी' में उन्होंने जो विचारोत्तेजक लेख और संपादकीय लिखे तथा विविध अवसरों पर जो ओजस्वी भाषण दिए, वे उनके राजनीतिक विचारों की मुख्य स्त्रोत सामग्री है। 'गीता रहस्य' उनकी धार्मिक कृति है जिसमें 'कर्मयोग' तथा अन्याय के विरुद्ध संघर्ष का प्रेरणादायक संदेश निहित है।

आमूल परिवर्तनवादी कार्यक्रम(Radical Programme)










समाज-सुधार का कार्यक्रम (Programme of Social Reform)


तिलक ने भारत में समाज-सुधार का कार्यक्रम लागू करने के लिए ब्रिटिश सरकार का मुँह ताकना उचित नहीं समझा, हालांकि राजा राम मोहन राय (1772-1833) जैसे समाज-सुधारक इस मामले में ब्रिटिश सरकार की सहायता लेना उचित समझते थे। तिलक ने स्वयं समाज-सुधार आंदोलन के नेतृत्व का बीड़ा उठाया। इसके लिए उन्होंने भारतीयों को विदेश यात्रा करने की प्रेरणा दी ताकि उनके ज्ञान और विचार-शक्ति का विस्तार हो; विधवा पुनर्विवाह का समर्थन किया ताकि स्त्रियों के प्रति अन्याय को रोका जा सके; स्त्री-शिक्षा की पैरवी की अस्पृश्यता (Untouchability) की अमानवीय प्रथा का विरोध किया, और जात-पांत पर आधारित भेदभाव की निंदा की। उन्हें निर्धन और दलित वर्गों के प्रति असीम सहानुभूति थी। 


तिलक भारत के चिरसम्मत सांस्कृतिक मूल्यों के अनुरूप भारतीय समाज में सच्चा सुधार लाना चाहते थे; वे पश्चिम के अंधानुकरण के पक्ष में नहीं थे।

उन्होंने न्यायमूर्ति महादेव गोविंद रानाडे (1842-1901) और गोपाल कृष्ण गोखले (1866-1915) जैसे मूर्द्धन्य नेताओं के समाज-सुधार कार्यक्रम का इसलिए विरोध किया क्योंकि ये महानुभाव भारत के परंपरागत सामाजिक मूल्यों में गहरी आस्था नहीं रखते थे बल्कि भारत को हू-ब-हू पश्चिमी सभ्यता के अनुरूप ढालने के लिए पुरानी सब परंपराओं को मिटा देने को तैयार थे। तिलक ने तर्क दिया कि भारत की अपनी एक स्वस्थ आध्यात्मिक संस्कृति है जिसे हम भूल चुके हैं. और इसी लिए यहां कई अंधविश्वास और कुरीतियां घर कर चुकी हैं। उस संस्कृति की अवहेलना करते हुए भारतीय समाज को यूरोपीय भौतिकवाद (Materialism) तर्कबुद्धिवाद (Rationalism) और उपयोगितावाद (Utilitarianism) के सांचे में ढालने का प्रयास विनाशकारी होगा। तिलक ने दूसरे समाज-सुधारकों को याद दिलाया कि वर्तमान युग में हमारा पतन हिंदू धर्म में निष्ठा के कारण नहीं हुआ, बल्कि इस धर्म के त्याग के कारण हुआ है। फिर, इन समाज सुधारकों को जन समर्थन (Popular Support) भी प्राप्त नहीं था बल्कि वे राज्य की बल-प्रयोगमूलक शक्ति (Cocrcive Power) और प्रशासन की आज्ञप्तियों (Administrative Decrees) के सहारे इस देश के समाज को पश्चिमी सांचे में ढालने को तत्पर थे। तिलक ने तर्क दिया कि इससे न केवल हमारे आत्मसम्मान और आत्मगौरव को ठेस लगेगी, बल्कि भारतीय समाज के आंतरिक मामलों में विदेशी शासन का हस्तक्षेप अपने आप में अनैतिक है।

     तकर्बुद्धिवाद (Rationalism)


 


    उपयोगितावाद (Utilitarianism)

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    उपयोगितावाद (Utilitarianism)


लोकमान्य के अनुसार, सच्चा समाज-सुधार समाज के भीतर से जन्म लेता है, अतः लंबे-चौड़े क़ानून बनाकर उन्हें बाहर से समाज पर थोपने से कोई लाभ नहीं होगा; स्वयं समाज के भीतर सुधार की प्रेरणा जगाना जरूरी है। प्रगतिशील शिक्षा और ज्ञान के प्रसार से स्वस्थ सामाजिक परिवर्तन का वातावरण तैयार किया जा सकता है। हिंदू समाज में वैदिक धर्म की विवेकसम्मत परंपरा को पुनरुज्जीवित करके अंधविश्वासों और कुरीतियों पर सक्षम प्रहार किया जा सकता है। जिस नेतृत्व को भारत की आध्यात्मिक परंपरा में कोई आस्था नहीं है और जो पश्चिम के सामाजिक इतिहास से आधे-अधूरे विचार उधार लेकर इस देश में समाज-सुधार लाने का दम भरता है, उसे ऐसा करने का कोई अधिकार नहीं है।


राष्ट्रीय शिक्षा और राष्ट्रवाद (National Education and Nationalism).



तिलक ने यह अनुभव किया कि लार्ड मैकॉले (1800-59) ने इस देश में जो पश्चिमी शिक्षा प्रणाली स्थापित की थी, वह राष्ट्र के भावी स्वास्थ्य और कल्याण के लिए घातक थी। यह शिक्षा प्रणाली नई पीडी और भारत की विशाल जनसंख्या के बीच न केवल अलगाव पैदा कर रही थी, बल्कि नई पीढ़ी को भारत की सांस्कृतिक मूल्य परंपरा और आदशों से भी विमुख कर रही थी। सरकारी संस्थाओं में प्रचलित पश्चिमी शिक्षा प्रणाली युवा पीढ़ी को अपने अतीत की शानदार धरोहर से वंचित कर रही थी। इसके विपरीत तिलक ने संपूर्ण देश में राष्ट्रीय स्कूल और कॉलेज खोलने की सलाह दी ताकि जनसाधारण को कम खर्चीली और स्वस्थ शिक्षा प्रदान की जा सके जो उनमें आत्मनिर्भरता और स्वावलंबन की भावना भर सके।  स्वयं तिलक ने ऐसी राष्ट्रीय शिक्षा की स्थापना में सक्रिय योग दिया जो राष्ट्रीय पुनर्निर्माण कार्यक्रम का अभिन्न अंग थी।

तिलक के अनुसार, राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली का निर्माण प्राचीन भारतीय संस्कृति की स्वस्थ और जीवंत परंपरा के आधार पर होना चाहिए: सच्चा राष्ट्रवादी पुरानी नींव पर नया उनका ढांचा खड़ा करना चाहेगा। पुरानी परंपराओं की अवमानना करके जो सुधार लाया जाएगा, वह निराधार होगा। हमारी संस्थाओं के अंग्रेज़ीकरण (Anglicization) का अर्थ होगा, अराष्ट्रीयकरण (Denationalization)। तिलक ने जन-मानस में राष्ट्रीय चेतना का संचार करने के लिए गणपति और शिवाजी उत्सवों का आयोजन किया।

 वस्तुतः तिलक पश्चिमी आदर्शों और मूल्य परंपरा के विरुद्ध थे, पश्चिमी कार्य-प्रणाली के विरुद्ध नहीं थे। उन्होंने पश्चिमी मूल्यों पर आधारित शिक्षा का विरोध किया, पश्चिमी ढंग के स्कूल और कॉलेज खोलने का विरोध नहीं किया। ऐसे संकेत मिलते हैं कि उन्हें गणपति उत्सव के आयोजन की प्रेरणा प्राचीन यूनान के इतिहास से मिली थी जिसमें देवी-देवताओं के नाम पर जनशक्ति को गतिमान करने के लिए ओलंपिक खेलकुद आयोजित किए जाते थे। शिवाजी उत्सव के आयोजन की प्रेरणा उन्हें टॉमस कार्लाइल (1795-1881) और जॉन रस्किन (1819-1900) की कृतियों में चित्रित वीर पूजा (Hem Whershint के उदाहरणों से मिली थी।

तिलक ने स्पष्ट किया कि राष्ट्रवाद कोई मूर्त सत्ता नहीं है, बल्कि एक तरह का विचार या भावना है यह देशवासियों को उन महापुरुषों की गाद दिलाता है जिन्होंने देश के इतिहास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। शिवाजी एक ऐसे महापुरुष थे जिन्होंने अपने अदम्य शौर्य और न्यायप्रियता से जन-कल्याण को बढ़ावा दिया। उन्होंने किसी संप्रदाय या क्षेत्र विशेष के लोगों के संकीर्ण हितों को कभी प्राथमिकता नहीं दी। राष्ट्रवाद के बारे में तिलक की संकल्पना राष्ट्रीय स्वतंत्रता और आत्मनिर्णय (Self-Determination) के पश्चिमी सिद्धांतों से भी प्रभावित थी। उन्होंने राष्ट्रिकता (Naticcality) के बारे में जॉन स्टुआर्ट मिल (1906-73) की परिभाषा को विशेष रूप से प्रामाणिक मानते हुए उद्धृत किया। इसके अलावा, उन्होंने राष्ट्रीय आत्मनिर्णय के बारे में अमरीकी राजनर्नज्ञ वुडरो विल्सन (1856-1924) की संकल्पना को भारत पर लागू करने की पैरवी की।


स्वदेशी और स्वराज (Swadeshi and Swaraj)



भारत के राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान धीरे-धीरे यह स्पष्ट होता जा रहा था कि कांग्रेस के नरम दल (Moderates) ने ब्रिटिश सरकार के पास प्रार्थनाएं और याचिकाएं (Prayers and Petitions) भेजने तथा सांविधानिक तरीके (Constitutional Method) से संघर्ष चलाने की जो नीति अपना रखी थी, उससे अंग्रेजों पर कोई प्रभाव नहीं हुआ था, और वे भारतवासियों को कुछ भी देने वाले नहीं थे। तिलक ने इन तरीकों की जगह निष्क्रिय प्रतिरोध (Passive



आदर्शवादी विचारक


Resistance) का समर्थन किया। यह महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन (Non Cooperation Movement) की पूर्वपीठिका थी। फिर तिलक ने श्री अरविंद, बिपिन चंद्र पाल और लाला लाजपत राय के साथ मिलकर 'स्वदेशी' आंदोलन चलाया और 'स्वराज' का नारा बुलंद किया। उन्होंने तर्क दिया कि राजनीतिक अधिकार मांगने से कभी नहीं मिलते; ये अधिकार लड़कर प्राप्त किए जाते हैं। 


उन्होंने देशवासियों को स्वाधीनता संघर्ष के निर्णायक दौर में पदार्पण करने के लिए तैयार किया। उन्होंने याद दिलाया कि कर्त्तव्य का मार्ग कभी फूलों से भरा नहीं होता; यह कांटों से भरा रास्ता है। भारतवासियों को अपने लक्ष्य की सिद्धि के उद्देश्य से आत्म-बलिदान के लिए तैयार रहना चाहिए।

स्वदेशी आंदोलन का नेतृत्व करते हुए तिलक ने तर्क दिया कि जब तक हम विदेश में बनी वस्तुओं का बहिष्कार या बॉयकॉट (Boycott) नहीं करते, तब तक स्वदेशी में विश्वास का कोई अर्थ नहीं है। ब्रिटेन में बनी वस्तुओं को खरीदना बंद करके हम ब्रिटिश व्यावसायिक हितों को हानि पहुँचा सकते हैं जो ब्रिटिश सरकार की जड़ों को हिला देगी। इससे भारत में बने माल की मांग बढ़ जाएगी, अतः भारत के औद्योगिक विकास को बढ़ावा मिलेगा। कुल मिला कर इससे हमारी राष्ट्रीय आत्मनिर्भरता और स्वावलंबन का आधार सुदृढ़ होगा। स्वदेशी का एक पक्ष यह भी था कि भारतवासी ब्रिटिश शासन तंत्र को चालू रखने से अपना हाथ खींच लें, क्योंकि यही तंत्र उन्हें पैरों तले रौंद रहा था।

 तिलक ने यह विचार रखा कि स्वदेशी केवल आर्थिक अस्त्र नहीं है बल्कि यह एक राजनीतिक और आध्यात्मिक अस्त्र भी है। उन्होंने घोषणा की यदि हम गोरी जातियों का दास नहीं बनना चाहते तो हमें पूरी निष्ठा के साथ स्वदेशी आंदोलन चलाना होगा। यही हमारी मुक्ति का साधन है।

जहां नरम दल के सदस्य (Moderates) ब्रिटिश शासन के अंतर्गत सीमित प्रशासनिक सुधारों की मांग कर रहे थे, वहां तिलक ने गरम दल या उग्रपंथियों (Extrernists) का नेतृत्व करते हुए 'स्वराज' या स्वशासन (Self- Rule) की मांग को बढ़ावा दिया। उन्होंने स्पष्ट किया कि 'स्वराज' का अर्थ है, अधिकारितंत्र (Bureaucracy) की जगह 'जनता का 'शासन' (People's Rule) । जो समाज सुधारक ब्रिटिश सरकार से समाज-सुधार लागू करने की आशा करते थे, उन्हें तिलक ने यह विश्वास दिलाने का प्रयत्न किया कि किसी भी सार्थक समाज-सुधार से पहले स्वराज-प्राप्ति जरूरी है। स्वराज और स्वधर्म हमारे इतिहास के गौरवशाली अंग रहे हैं, परंतु आज वे ध्वस्त अवस्था में हैं। उनका जीर्णोद्धार समय की मांग है। टुकड़े-टुकड़े सुधार से कुछ नहीं होने वाला है। ब्रिटिश प्रशासन इस देश के विनाश पर उतारू है। अतः तिलक ने यह प्रसिद्ध नारा दिया, "स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है, और मैं इसे लेकर रहूंगा।" उन्होंने तर्क दिया कि स्वराज-प्राप्ति भारतीय राष्ट्रवाद की महान् विजय होगी।


 तिलक यह चाहते थे कि साम्राज्य परिषद् (Imperial Council) की सांकेतिक प्रभुसत्ता (Nominal Sovereignty) के अंतर्गत भारत की अपनी प्रतिनिधि सभा पूर्ण स्वराज का प्रयोग करे। उन्होंने स्पष्ट किया कि हमारी मांग पूर्ण स्वराज की है; आंशिक स्वराज कुछ नहीं होता—यह शब्द ही निरर्थक है। 'धर्मराज्य' के अंतर्गत पूर्ण स्वराज ही रह सकता है। केवल प्रशासनिक सुधार लागू करने से हमारा लक्ष्य पूरा नहीं होगा।




भारतीय राजनीति-विचारक

निष्कर्ष

(Conclusion) कभी-कभी तिलक पर यह आरोप लगाया जाता है कि उन्होंने भारतीय राष्ट्रवाद हिंदू राष्ट्रवाद को मिला दिया और गणपति तथा शिवाजी उत्सव आयोजित करके हिंदुत्व को बढ़ावा दिया। परंतु यह नहीं भूलना चाहिए कि उन्होंने राष्ट्रीय चेतना को जागृत करने के लिए ये उत्सव आयोजित किए। उन्होंने मुस्लिम या किसी अन्य संप्रदाय के प्रति वैमनस्य का परिचय कभी नहीं दिया। वास्तव में वे यह चाहते थे कि राष्ट्रीय हित में हिंदुओं और मुसलमानों को कंधे से कंधा मिलाकर काम करना चाहिए। उनका विश्वास था कि हिंदुओं का बुद्धिबल और मुसलमानों का शौर्य जब एक साथ मिल जाएंगे तब वे ब्रिटिश अधिकारितंत्र को तहस-नहस कर देंगे। 1920 में तिलक ने मुसलमानों के खिलाफ़त आंदोलन (Khilafat Movement) को पूरा समर्थन देने की पेशकश की। के साथ

खिलाफ़त आंदोलन (Khilafat Movement) 



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खिलाफ़त आंदोलन (Khilafat Movement) :magahIAS





तिलक उग्रपंथी अवश्य थे, परंतु उन्होंने स्वराज - प्राप्ति के लिए हिंसा (Violence) की वकालत कभी नहीं की। उन्होंने क्रांतिकारियों की सराहना अवश्य की, परंतु जनशक्ति को जागृत और गतिमान करने के लिए उन्होंने निष्क्रिय प्रतिरोध का समर्थन किया। वे ब्रिटिश आर्थिक हितों को क्षति पहुँचकर और ब्रिटिश शासन-तंत्र में रोड़े अटकाकर अंग्रेजों को यहां से प्रस्थान करने के लिए विवश करना चाहते थे। उन्होंने राजनीतिक हत्याओं या आतंकवादी गतिविधियों का समर्थन नहीं उनके विचार से ऐसे साधन नैतिक दृष्टि से तो अनुचित थे ही, तत्कालीन परिस्थितियों में ये राजनीतिक इष्टसिद्धि (Political Expediency) की दृष्टि से भी अनुपयुक्त थे। उन्होंने ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध सशस्त्र क्रांति की योजना बनाई हो ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिलता।


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