कौटिल्य: वयक्तित्व और कृति (Kautilya : The Man and His work)
इस लेख में कौटिल्य के अर्थशास्त्र पर विस्तृत चर्चा है, जो भारतीय राजीनतिक- विचारक पुस्तक के लेखक ओम प्रकाश गाबा (OP.GAUBA के कुछ अंश से प्रेरित है,
जिसमे कौटिल्य के अर्थशास्त्र के विषयवस्तु में निम्नलिखित बिंदुओं को समझने का प्रयास किया गया है।
राज्य की सप्तांग सिद्धान्त, मंत्रिपरिषद, दण्डनीति,कूटनीति, राज्य के कार्य, राजा की शक्ति, मंत्रिपरिषद की भूमिका, गुप्तचर व्यवस्था का संगठन,राजयमण्डल का संरचना,, कूटनीति एवं राज्यशिल्प
चाणक्य/कौटिल्य/विष्णुगुप्त का परिचय (Introduction of Chanakya/Kautilya/Vishnugupta)
प्राचीन भारतीय विचारक कौटिल्य का नाम "अर्थशास्त्र" के प्रणेता के रूप में प्रसिद्ध है। यह ग्रन्थ अन्य पुरुष ( third person) की शैली में लिखा गया है। इसमें कौटिल्य के अतिरिक्त विष्णुगुप्त का नाम भी दिया गया है। कौटिल्य का तीसरा नाम ,चाणक्य जो चंद्रगुप्त मौर्य के प्रधानमंत्री का नाम था।
विशाखदत्त ने अपने प्रसिद्ध संस्कृत ग्रन्थ मुद्राराक्षस में चाणक्य को कौटिल्य और विष्णुगुप्त के नामों से भी पुकारा है। जिससे पता चलता है ये तीनो वेक्ति एक ही वेक्ति का नाम है
डॉ पांडुरंग वामन काने (Dr pandurang vaman kane ) द्वारा रचित धर्मशास्त्र का इतिहास (1930-62) इसके अंतर्गत अनेक प्रमाण देकर यह सिद्ध किया गया है कि, कौटिल्य ,चाणक्य ,विष्णुगुप्त तीनों एक ही वेक्ति के नाम है, हालाकि चाणक्य और कौटिल्य अलग अलग रचनाओं के लिए प्रसिद्ध है।
चाणक्य के दो प्रसिद्ध ग्रंथ 'चाणक्य सूत्राणि' (चाणक्य के सूत्र) और 'चाणक्य नीतिदर्पण' हैं। 'चाणक्य नीतिदर्पण' का एक संस्करण 'चाणक्य राजनीतिशास्त्र' के रूप में उपलब्ध है हालांकि दोनों ग्रंथों का मुख्य अंश एक जैसा है। इनके अलावा. आचार्य विष्णु शर्मा कृत 'पंचतंत्र' और 'हितोपदेश' का मुख्य अंश भी एक जैसा है। इनमें दक्षिण देश के तीन अधपड़े राजपुत्रों की शिक्षा के लिए पशु-पक्षियों की रोचक कहानियों के माध्यम से व्यावहारिक राजनीति के गूढ़ रहस्यों को उजागर किया गया है। इन ग्रंथों का कथ्य भी चाणक्य की शिक्षाओं से बहुत मिलता-जुलता है। परंतु इनके रचयिता विष्णु शर्मा को विष्णुगुप्त या चाणक्य से पृथक माना जाता है।
चाणक्य के व्यक्तित्व और कृतित्व से भी उस अनोखी सूझ-बूझ का संकेत मिलता है जो कौटिल्य के अर्थशास्त्र में झलकती है। राजनीतिशास्त्र के सम्यक् ज्ञान के लिए चाणक्य के राजनीतिशास्त्र को कौटिल्य के अर्थशास्त्र का पूरक ग्रंथ मान सकते हैं। फिर,
‘चाणक्य नीति दर्पण' और 'चाणक्य सूत्रों' के अंतर्गत सामान्य नैतिकता और लोक-व्यवहार के बारे में जो विस्तृत सिद्धांत प्रस्तुत किए गए हैं, उनमें भी राजनीतिशास्त्र की दृष्टि से अनोखी सूझ-बूझ भरी है।
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(नातप्तलोहो लोहेन संधीयते)। "लोहे को जब तक तपाया नहीं जाता, तब तक उसे लोहे के दूसरे टुकड़े के साथ जोड़ा नहीं जा सकता।"
चाणक्य सूत्र
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कुछ भी हो चाणक्य के महान प्रयास का धेय्य वक्तिगत प्रतिशोध तक सीमित नही था। वस्तुतः उन्होंने तत्कालीन भारत को कुशल प्रशासन प्रदान करने के लिए तीन लक्ष्य अपने पास रखे और उन्हें पूरा करके दिखाया।
(१) उन्होंने भारत के बहुत बड़े हिस्से को नंद वंश के नृशतंत्र ( Tyranny) से मुक्त कराया
(२) उन्होंने उत्तर पक्षिम सीमा पर यवन आक्रमणकारियों को खदेड़ कर वहां भारत की प्रभुसत्ता फिर से स्थापित की;
(ग) उन दिनों पश्चिमोत्तर भारत में छोटे-छोटे गणतंत्रों और राजतंत्रों की परस्पर प्रतिस्पर्धा के कारण जो विश्रृंखलता पैदा हो गई थी. उसे नियंत्रित करके उन्होंने भारत उपमहाद्वीप में एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की जो राजनीतिक दृढ़ता का भव्य उदाहरण प्रस्तुत करता था।
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II
अर्थशास्त्र का विचारक्षेत्र (Scope of Arthasastra)
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राज्य का स्वरूप
(Nature of the State)
प्राचीन भारत के अधिकांश राजनीति चिंतन की तरह कौटिल्य के चिंतन में भी राज्य की संकल्पना राजतंत्र (Monarchy) के रूप में की गई है। दूसरे शब्दों में, यहां राज्य उस क्षेत्र (Territory) और जनसंख्या (Population) का संकेत देता है जो किसी राजा (King) के नियंत्रण में आता है। इस राज्य के अंतर्गत लौकिक मामलों में राजा की शक्ति सर्वोच्च है, परंतु अपने कर्त्तव्यों के मामले में राजा स्वयं 'धर्म' से बँधा है, और धर्म की व्याख्या का अधिकार किसी अन्य सत्ता (Authority) — जैसे कि ब्राह्मण को हो सकता है जो मंत्री के रूप में उसे उचित मंत्रणा (Advice) देता है। अतः कौटिल्य के राज्य में पश्चिमी ढंग की प्रभुसत्ता (Sovereignty) के लक्षणों को ढूंढ़ना बेकार होगा।
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मन्त्रमूलाः सर्वारम्भाः ।
सारे महत्त्वपूर्ण कार्य उचित मंत्रणा से आरंभ होते हैं।
चाणक्य सूत्र
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कौटिल्य ने राज्य को अपने-आपमें साध्य (End-in-itself) मानते हुए सामाजिक जीवन में उसे सर्वोच्च स्थान दिया है। धर्म और नैतिकता के प्रति उनका दृष्टिकोण रूढ़िवादिता से परे है। 'मानेव धर्मशास्त्र' के प्रणेता मनु की लीक से हटकर उन्होंने राज्य के हित को सर्वोपरि रखा। राज्य के हित के सामने वे कहीं-कहीं नैतिकता के सिद्धांतों को भी परे रख देते हैं। हो सकता है, राजनीति में इस कुटिल प्रवृत्ति का समर्थक होने के कारण उन्होंने अपना कल्पित नाम 'कौटिल्य' रख लिया हो। इससे 'कौटिल्य' नाम के सांकेतिक महत्त्व का पता चलता है, जो प्राचीन भारतीय शास्त्रकारों की प्रतीकात्मक शैली की एक कड़ी प्रतीत होता है। उनके इन्हीं सिद्धांतों के आधार पर आचार्य कौटिल्य को भारत का मेकियावेली (India's Machiavelli) कहा जाता है।
वैसे मनु और कौटिल्य की विचार- परंपरा में बहुत बड़ी खाई नहीं है, क्योंकि वे प्रायः एक ही सभ्यता के प्रतिनिधि हैं। अंतर है तो यह कि 'मानव धर्मशास्त्र' के प्रणेता मनु 'धर्म' को सर्वोपरि स्थान देकर राज्य को धर्म के अधीन कर देते हैं, जबकि 'अर्थशास्त्र' के रचयिता कौटिल्य ' अर्थ' को सर्वोच्च स्थान देते है।
के. पी. जायसवाल (हिंदू पॉलिटी) (1924) के अनुसार, कौटिल्य के विचार से अर्थ का तात्पर्य है - ऐसी भूमि या क्षेत्र जिस पर मनुष्य बसे हों। अतः “अर्थशास्त्र वह संहिता है, जो भूमि अर्जित करने और उसकी अभिवृद्धि करने के उपायों का निरूपण करती है।" आधुनिक युग में 'अर्थशास्त्र' शब्द का प्रयोग 'इकॉनॉमिक्स' (Economics) के अर्थ में करते हैं जिसका सरोकार वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन, उपभोग और विनिमय से है, परंतु कौटिल्य के अर्थशास्त्र का विवेच्य विषय 'पॉलिटिक्स' (Politics), अर्थात् राज्यशास्त्र या राजनीतिशास्त्र है। देखा जाए तो कौटिल्य का अर्थशास्त्र केवल राजनीतिक चिंतन का सारांश प्रस्तुत नहीं करता, बल्कि व्यावहारिक प्रशासन (Practical Administration) के मार्गदर्शक के रूप में अधिक विख्यात है। डॉ. अल्तेकर के अनुसार, " (कौटिल्य का) अर्थशास्त्र राज्यशास्त्र का ऐसा सैद्धांतिक ग्रंथ नहीं जिनमें प्रशासन या राजनीति विज्ञान के मूल सिद्धांतों का विवेचन किया गया हो, बल्कि यह प्रशासक के लिए लिखी गई मार्गदर्शिका है।" यह युद्ध एवं शांति दोनों के दौरान पैदा होने वाली व्यावहारिक समस्याओं को ध्यान में रखते हुए प्रशासन के लिए उपयुक्त संयंत्र की संरचना एवं कृत्यों का विवेचन करता है। यह विवेचन इतना विस्तृत है कि इसकी तुलना केवल 'शुक्रनीति' से कर सकते हैं अन्य किसी परवर्ती कृति से नहीं कर सकते। यह राज्य की नीतियों, नागरिक प्रशासन, अर्थ-व्यवस्था के संगठन और क़ानून की समस्याओं का निरूपण करता है, और कूटनीति (Diplomacy) की विधियों पर भी प्रकाश डालता है। कूटनीति के विवेचन में कौटिल्य इतने प्रसिद्ध हुए कि बाद की पीढ़ियों में सफल कूटनीतिज्ञों को कौटिल्य का अवतार कहा जाने लगा था।
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कूटनीति (Diplomacy)
कूटनीति का अर्थ है उन विधियों का समुच्चय जिनके आधार पर कोई राज्य अपने हितों (Interests) को सर्वोपरि रखते हुए अन्य राज्यों के साथ अपने संबंधों का निर्वाह करता है। साधारणतः वह अपने समान बलशाली राज्यों को परस्पर लाभ का विश्वास दिला कर शांति (Peace) कायम रखने के लिए मना लेता है। अपने से शक्तिशाली राज्य को वह उपयुक्त उपहार देकर या अन्य कोई लाभ पहुँचा कर उसकी सद्भावना अर्जित करने का प्रयत्न करता है; अपने से निर्बल राज्य का दमन करके वह उससे लाभ उठाने का प्रयत्न करता है; और अनेक बलशाली राज्यों से अपना बचाव करने के लिए वह उनमें फूट के बीज बोने की युक्ति निकाल सकता है।
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अर्थशास्त्र को 15 अधिकरणों और 150 अध्यायों में विभक्त किया गया है जिनमें 180 विषयों पर लगभग 6,000 श्लोक हैं। इस प्रकार यह कोई विशाल ग्रंथ नहीं है, बल्कि इसमें राजनीति और कूटनीति, कानून और प्रशासन इत्यादि के बुनियादी सिद्धांतों को संक्षेप में व्यक्त करके कौटिल्य ने गागर में सागर भर दिया है।
दंडनीति के उद्देश्य (Objectives of Dandaniti)
दण्डस्य हि भयात् सर्वं जगद् भोगाय कल्पते। दंड के भय से सब लोग नियंत्रण में रहते हैं। इसलिए सारा संसार सुख भोग पाता है।
चाणक्य राजनीतिशास्त्र
प्राचीन भारत के परंपरागत राजनीतिशास्त्र को 'दंडनीति' की संज्ञा दी जाती थी। 'दंड' का
समुचित प्रयोग 'दंडनीति' का मूल मंत्र था। 'दंड' या डंडा उस शक्ति (Force) का प्रतीक था जिसके बल पर राज्य की स्थापना की जाती थी, और उस पर अपना नियंत्रण कायम रखा जाता था। अतः कौटिल्य ने भी प्रस्तुत संदर्भ में 'दंडनीति' शब्द का प्रयोग किया है, और उसके उद्देश्यों पर प्रकाश डाला है। संक्षेप में, कौटिल्य ने दंडनीति के चार उद्देश्यों का विवरण दिया है:
(1) अलब्ध की प्राप्ति (Acquisition of the Unachieved) अर्थात् जो कुछ अभीष्ट है परंतु प्राप्त नहीं हुआ है, उसे कैसे प्राप्त किया जाए;
(2) लब्ध का परिरक्षण (Preservation of the Achieved) - अर्थात् जो कुछ प्राप्त कर लिया गया है, उसकी रक्षा कैसे की जाए;
(3) रक्षित का विवर्धन (Augmentation of the Preserved) अर्थात् जिसकी रक्षा की गई है, उसमें बढ़ोत्तरी कैसे की जाए और
(4) विवर्धित का सुपात्रों में विभाजन (Fair Distribution of the Augmented) अर्थात् जिसकी बढ़ोत्तरी की गई है उसे उपयुक्त पात्रों में वितरित कैसे किया जाए?
जो राजा दंडनीति के इन उद्देश्यों की पूर्ति करता है, उसका यश चारों दिशाओं में फैलता है। वस्तुतः 'दंडनीति' को 'अर्थशास्त्र' के उद्देश्यों की सिद्धि का साधन मान सकते है। 'दंड' राज्य शक्ति का प्रतीक है; 'नीति' से यह निर्देश मिलता है कि इस शक्ति का प्रयोग न्यायपूर्ण होना चाहिए। Continue..................................................................................कौटिल्य के अर्थशास्त्र के अनुसार राज्य की उत्पत्ति (origin of the stste)
Seventh Principle of State, Council of Ministers, Penal Policy, Diplomacy, Functions of the State, Power of the King, Role of the Council of Ministers, Organization of the Intelligence System, Structure of the Raj Mandal, Diplomacy and State Craft
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