भारतीय राजनीति-विचारक
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seven-organs'theory of the state; magadhIAS |
कौटिल्य ने राज्य के संगठन का विस्तृत विवरण राज्य के 'सप्तांग सिद्धांत' में दिया है।
कौटिल्य के सप्तांग सिद्धान्त का गुण ये कोई नया नही है, क्योकि इससे पूर्व आचार्य मनुकृत मनुस्मृति में इस तरह के ही सिद्धान्त की विवरण दिया गया है।
हालांकि कौटिल्य का विवरण अधिक सुलझा हुआ और सटीक है । मनुकृत सप्तांग सिद्धांत से जयदा प्रसिद्ध कौटिल्य के सप्तांग सिद्धांत है।
इस सिद्धांत के अनुसार राज्य सात तत्त्वों से निर्मित होता है। चूंकि ये तत्त्व एक-दूसरे के साथ इतने निकट से जुड़े हैं जैसे ये एक ही शरीर के भिन्न-भिन्न अंग हों, इसलिए इन्हें राज्य के 'अंग' कहा गया है। जैसे शरीर के किसी अंग-आंख, कान, हाथ, पैर, इत्यादि का पृथक् अस्तित्व संभव नहीं है, और इन अंगों को काट देने से शरीर विकलांग या मृत हो जाता है, वैसे ही राज्य के ये अंग राज्य से पृथक नहीं रह सकते; यदि इनमें से किसी अंग को हटा दें तो राज्य भी विकलांग और निराधार हो जाता है। इस रूपक को आचार्य कौटिल्य ने इतना यथार्थ रूप देने का प्रयत्न किया है कि उन्होंने राज्य के प्रत्येक अंग के महत्त्व को दर्शाने के लिए उसकी तुलना मानव शरीर के उपयुक्त अंग से की है:
(1) स्वामी ( अर्थात् राजा स्वयं) राज्य का शिर या शीर्ष है;
(2) अमात्य (अर्थात् मंत्री) राज्य की आंखें हैं;
(3) सुहृद् (अर्थात् राजा के मित्र) राज्य के कान हैं;
(4) कोष राज्य का मुख है;
(5) सेना राज्य का मस्तिष्क है;
(6) दुर्ग राज्य की बांहें हैं; तथा
(7) पुर या जनपद ( अर्थात् भूमि एवं प्रजा) राज्य की जंघाएं हैं।
इस प्रकार 'सप्तांग सिद्धांत' न केवल राज्य के सावयव स्वरूप (Organic Form) का निरूपण करता है, बल्कि यह संकेत भी देता है कि राज्य के किस-किस अंग का क्या-क्या कार्य है? इसके अतिरिक्त, इस सिद्धांत से यह भी पता चलता है कि राज्य की विशेषताएं क्या-क्या हैं? दूसरे शब्दों में राज्य का अस्तित्व तभी संभव हैं, जब उसमें राजा, मंत्री, मित्र, कोष, सेना, दुर्ग और पुर का समावेश हो ।
आधुनिक युग में राज्य के अस्तित्व के लिए इन सभी तत्त्वों को आवश्यक नहीं समझा जाता। इनमें से प्रथम और अंतिम तत्त्व अर्थात् राजा (आधुनिक युग के संदर्भ में प्रभुसत्ताधारी और पुर (अर्थात् भूमि और प्रजा) ही पर्याप्त समझे जाते हैं।
अन्य तत्त्व गौण हैं, क्योंकि मंत्री राज्य को चलाने के लिए आवश्यक तो हैं. परंतु यह राज्य के अस्तित्व की बुनियादी शर्ट नहीं है। 'मित्र' विदेशी मामलों के सम्यक् संचालन से बनते हैं 'कोष' वित्त विभाग का सूचक है; 'सेना' और 'दुर्ग' प्रतिरक्षा विभाग के अंतर्गत आते हैं-ये सभी तत्त्व राज्य के प्रशासन के लिए आवश्यक हैं, परंतु इन्हें उस अर्थ में राज्य के 'अंग' नहीं माना जा सकता जैसा कि पश्चिमी परंपरा के अंतर्गत राज्य के 'जैव या आंगिक सिद्धांत' (Organic Theory of the State) से संकेत मिलता है।
आधुनिक युग में ‘विधान सभा' (Legislative Assembly) तथा 'न्यायालय' (Court of Justice) भी राज्य के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं, परंतु कौटिल्य के युग में इनकी आवश्यकता नहीं थी, क्योंकि क़ानून के निर्माण की आवश्यकता तब थी ही नहीं-धर्म एवं लोकाचार ही सर्वमान्य क़ानून थे; न्याय राजा स्वयं करता था। संक्षेप में, राज्य का सप्तांग सिद्धांत राज्य के मूलतत्त्वों (Elements of the State) और राज्य के आंगिक सिद्धांत का मिला-जुला विवरण प्रस्तुत करता है।
राज्य का आगिक सिद्धांत
(Organic Theory of the State) इस रूपक के अंतर्गत राज्य की तुलना जीवित प्राणी (Living Organism) से की जाती है, और व्यक्तियों (Individuals) को उस प्राणी के भिन्न-भिन्न अंग माना जाता है। इसके साथ यह मान्यता जुड़ी है कि जैसे शरीर से कोई अंग कट जाने पर वह किसी काम का नहीं रहता, वैसे ही व्यक्ति को राज्य से पृथक् कर देने पर उसका अस्तित्व निरर्थक हो जाता है।
राज्यमंडल की संरचना (Structure of the State System)
राज्य के प्रशासन में सुरक्षा (Security) और विदेश संबंधों (Foreign Relations) के संचालन का विशेष महत्व है। किस राज्य के साथ मित्रता रखनी चाहिए, किसके साथ शत्रुता उचित होगी - यह बहुत बड़ी समस्या है। कौटिल्य ने इस समस्या के समाधान के लिए 'मंडल सिद्धांत' (Theory of the State system) का निरूपण किया है। वैसे इस सिद्धांत के आरंभिक संकेत मनुस्मृति में मिलते हैं, परंतु कौटिल्य ने इसका विस्तृत विवेचन किया है।
सन्धि विग्रह योनिर्मण्डलः । संधि (मित्रता) और विग्रह (शत्रुता) के संयोग से 'मंडल' की रचना होती है।
चाणक्य सूत्र
कौटिल्य का ध्येय तत्कालीन भारत के छोटे-छोटे राज्यों को मिला कर एक विशाल, सुदृढ़ और शक्तिशाली साम्राज्य स्थापित करना था। अतः उन्होंने कुशल शासक की संकल्पना 'विजिगीषु' के रूप में की है। विजिगीषु ऐसा नृपति है जो विजय (Victory) की कामना करता है, अर्थात् वह देश के अनेक राज्यों पर अपना प्रभुत्व स्थापित करके अपने राज्य का विस्तार करना चाहता है; असाधारण शक्ति, सम्मान और यश प्राप्त करना चाहता है।
अतः कौटिल्य के अनुसार, बुद्ध (War) में लिप्त होना राज्य के लिए स्वाभाविक भी है. और अनिवार्य भी। विजिगीषु को न केवल शूर-वीर और युद्ध में निपुण होना चाहिए, बल्कि युद्ध में विजय प्राप्त करने के लिए उसे मित्र (Friend) और शत्रु (Enemy) की सही-सही पहचान करके उपयुक्त गठबंधन या सहबंध (Alliances) भी स्थापित करने चाहिए।
मित्र संग्रहेण बलं संपद्यते। मित्र बनाकर बल संचित किया जाता है।
चाणक्य सूत्र
कौटिल्य के अनुसार, विजिगीषु राज्य का सीमावर्ती राज्य (Adjacent State) उसका स्वाभाविक शत्रु होता है। इसी तर्क के अनुसार, शत्रु राज्य का सीमावर्ती राज्य उस राज्य का शत्रु होता है। शत्रु का शत्रु उसका मित्र होता है। जो राज्य विजिगीषु और उसके शत्रु दोनों की सीमाओं से लगा हो, वह इनमें से किसी का भी शत्रु या मित्र हो सकता है। उसे मध्यम (Intermediate) कहा जाता है। वह इन दोनों में से किसी भी पक्ष के साथ संधि कर सकता है, या तोड़ सकता है। फिर से राज्य विजिगीषु और उसके शत्रु की सीमाओं से परे हो, वह न तो स्वभावतः इन दोनों में से किसी का शत्रु होता है, न मित्र होता है। उसे उदासीन (Neutral) कहा जाता है। वह अपनी इच्छा या अपने विवेक से किसी भी राज्य के साथ संधि कर सकता है, या तोड़ सकता है।
इस तरह विजिगोषु, उसके मित्र, शत्रु मध्यम और उदासीन के संयोग से चार समूहों या मंडलों का निर्माण होता है:
प्रथम मंडल (Cycle-1): इसमें स्वयं विजिगोष, उसका मित्र और उसके मित्र का मित्र
सम्मिलित हैं;
द्वितीय मंडल (Cyck-II) इसमें विजिगीषु का शत्रु शत्रु का मित्र और शत्रु के मित्र का मित्र सम्मिलित है;
तृतीय मंडल (Cycle-III) इसमें मध्यम उसका मित्र और उसके मित्र का मित्र सम्मिलित हैं;
और
चतुर्थ मंडल (Cycle-IV): इसमें उदासीन, उसका मित्र और उसके मित्र का मित्र सम्मिलित है।
इन चारों मंडलों के संयोग से बृहद राज्यमंडल की रचना होती है। चूंकि प्रत्येक मंडल में तीन-तीन राज्य आते हैं, इसलिए बृहद् राज्यमंडल में 12 राज्य आ जाते हैं। इन्हें राज्य प्रकृतियां (State Elements) कहा जाता है।
राज्य के सप्तांग सिद्धांत के अंतर्गत राज्य के सात अंग माने गए हैं। इनमें से दो अंगों (स्वामी और मित्र) को तो इस वर्गीकरण में दिन लिया गया है। प्रस्तुत संदर्भ में शेष पांच अंगों (अमात्य, कोष, सेना, दुर्ग और गुर) को राज्य की द्रव्य प्रकृतियां (Constituent Elements) या उपप्रकृतियां (Sub-elemes) कहा जाता है। इस तरह बृहद राज्यमंडल में 12 राज्य प्रकृतियों और उनकी पांच-पांच उपप्रकृतियों अर्थात् कुल 60 उपप्रकृतियों को मिलाकर 72 प्रकृतियों का समावेश होता है।
कौटिल्य ने यह शिक्षा दी है कि विजिगीषु को सब मंडलों की सही-सही पहचान करके उनमें उपयुक्त शक्ति संतुलन (Balance of Power) स्थापित करना चाहिए। दूसरे शब्दों में, ‘विजिगीषु' को अपने राज्य की सुरक्षा और अभिवृद्धि के उद्देश्य से दूसरे राज्यों को शक्तिशाली बनने से रोकना चाहिए। उसे यह ध्यान रखना चाहिए कि उसके शत्रुओं और उनके सहायकों की सम्मिलित शक्ति उसकी अपनी और अपने सहायकों की शक्ति से आगे न बढ़ पाए।
विजिगीषु - विजय का इच्छुक, अर्थात् ऐसा नृपति जो अपने राज्य में उत्तम शासन स्थापित करने के बाद अन्य राज्यों पर विजय प्राप्त करने के ध्येय से उनकी स्थिति का अध्ययन करता है, और उन्हें अपने अधिकार में लेने की योजना बनाता है।
अरि- ऐसा नृपति जिसका राज्य विजिगीषु के राज्य की सीमा के साथ लगा हो, अतः वह विजिगीषु का स्वाभाविक शत्रु हो ।
मध्यम- ऐसा नृपति जिसका राज्य विजिगीषु और उसके शत्रु दोनों की सीमाओं से लगा हो। अतः वह इनमें से किसी का भी शत्रु या मित्र हो सकता हो।
उदासीन - ऐसा नृपति जिसके राज्य की स्थिति विजिगीषु के शत्रु और मध्यम दोनों से परे हो, परंतु वह इतना बलशाली हो कि संकट के समय वह इनमें से किसी की भी सहायता या विरोध करने में समर्थ हो। अतः उसकी अनदेखी न की जा सकती हो।
पाणिग्राह- ऐसा नृपति जिसका राज्य विजिगीषु के राज्य के पीछे की ओर सीमा से लगा हो। अतः वह युद्ध के समय पीछे की ओर से उपद्रव खड़ा कर सकता हो। यह स्वाभाविक रूप से विजिगीषु का शत्रु होता है।
आक्रंद - ऐसा नृपति जिसका राज्य पाणिग्राह के राज्य की सीमा के साथ लगा हो। अतः वह
पाणिग्राह का स्वाभाविक शत्रु होता है, और विजिगीषु का परोक्ष मित्र होता है।
पाणिग्राहासार - ऐसा नृपति जिसका राज्य आक्रंद की सीमा के साथ लगा हो। अत: वह आक्रंद का स्वाभाविक शत्रु होता है; पाणिग्राह का परोक्ष मित्र होता है और विजिगीषु का परोक्ष शत्रु होता है।
आक्रंदासार- ऐसा नृपति जिसका राज्य पाणिग्राहासार के राज्य की सीमा के साथ लगा हो। अतः वह पाणिग्राहासार का स्वाभाविक शत्रु होता है: आक्रंद का परोक्ष मित्र होता है, और विजीगीषु का भी परीक्ष मित्र होता है।
राज्य की नीति (Policy) का ध्येय शक्ति (Power) और संपदा (Wealth) अर्जित करना है। कौटिल्य ने तीन तरह की शक्तियों और उनसे जुड़ी सिद्धियों (Accomplishments) की पहचान की हैं:
(1) मंत्र शक्ति (Intellectual Strength): यह विजिगीषु के ज्ञान और सूझ-बूझ पर आश्रित है;
(2) प्रभुशक्ति (Instruments of Dominance): यह उसके कोष (Treasury) और सैन्य बल (Military Strength) पर आश्रित है; और
(3) उत्साह शक्ति (Courage and Morale): यह उसके पराक्रम, साहस और मनोबल पर आश्रित है।
विजिगीषु को इन तीनों प्रकार की शक्तियों और उनसे जुड़ी सिद्धियों के क्षेत्र में अपना वर्चस्व स्थापित करना चाहिए। तभी उसे लोक-परलोक में अखंड यश प्राप्त होता है।
कटनीति और राज्यशिल्प: (Diplomacy and Statecrati)
कौटिल्य के अनुसार, राज्य का एक प्रमुख ध्येय अपनी शक्ति को बढ़ाना है। अतः अन्य राज्यों के साथ अपने संबंधों का संचालन करते समय इसे विशेष युक्ति - कौशल की ज़रूरत होती है। ये समस्याएं कटनीति और राज्यशिल्प का विषय है जिन पर कौटिल्य ने विस्तृत रूप से विचार किया है।
कौटिल्य के राजनीतिक चिंतन में कूटनीति और राज्यशिल्प की नींव भौगोलिक और आर्थिक तत्त्वों के आधार पर रखी गई है। इसमें संदेह नहीं कि भारत के विस्तृत मैदानी इलाके पर बड़े-बड़े राज्यों के विकास की संभावना थी. फिर भी प्राचीन काल में परिवहन और संचार (Transport and Communication) के उन्नत साधनों के अभाव में कोई केंद्रीय सरकार अधिक दूर तक अपना नियंत्रण नहीं रख सकती थी। अतः यह देश प्राय: छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त था, और प्रत्येक राज्य अपने पड़ोसी राज्य को हड़पने के लिए तैयार रहता था। राज्य के विस्तार की आकांक्षा शक्तिशाली राजाओं का लक्षण थी, जबकि कम शक्तिशाली राज्य अपनी स्वाधीनता कायम रखने के लिए अधिक शक्तिशाली राज्य के साथ यह समझौता कर लेते थे कि वे उसे उपयुक्त कर या भाग देंगे और युद्ध के समय सैनिक सहायता प्रदान करेंगे। परंतु अपने आंतरिक शासन में वे न केवल स्वायत्त (Autonomous) थे बल्कि अपने अधीन सामंतों से अपना भाग भी वसूल करते थे।
शक्तिशाली राजा अपने आधिपत्य की आकांक्षा की पूर्ति के लिए कूटनीति का प्रयोग करते थे जिसका विस्तृत निरूपण आचार्य कौटिल्य के चिंतन में मिलता है। कौटिल्य ने कूटनीति के चार साधनों या उपायों का उल्लेख किया है जो राज्य की रक्षा के लिए अत्यंत प्रभावशाली सिद्ध होंगे:
(1) 'साम' (Conciliation) अर्थात् शांति की नीति। अपने से अधिक शक्तिशाली राजा के प्रति यही नीति उपयुक्त है। यह स्वाभाविक ही है, क्योंकि अधिक शक्तिशाली राजा से युद्ध मोल लेकर अपना सर्वनाश ही किया जा सकता है, हित नहीं किया जा सकता;
(2) 'दाम' (Concession) अर्थात् धन या उपहार देकर अपने से शक्तिशाली राजा को तुष्ट करने का तरीका ताकि वह आक्रमण के लिए तत्पर न हो;
(3) 'दंड' (Coercion) अर्थात् बल प्रयोग अपने से निर्बल राजा से युद्ध करके या उस पर दबाव डालकर अपना आधिपत्य कायम करने की नीति और अंत में;
(4) ‘भेद' (Divide and Rule) अर्थात् आसपास के राजाओं में फूट डाल देने की नीति ताकि वे आपस में ही उलझे रहें, और एक-दूसरे की शक्ति का उन्मूलन
करते रहें, और उनमें भेद पैदा करने वाला स्वयं सुखपूर्वक राज करे । कौटिल्य ने लिखा है कि निर्बल राजा को 'साम' और 'दाम' की नीति का प्रयोग करना चाहिए जबकि बलशाली राजा को 'दंड' और 'भेद' की नीति से बहुत लाभ होगा। कुछ भी हो, कूटनीति की ये सारी विधियां साधारण नैतिकता की कसौटी पर खरी नहीं उतरतीं । इस तरह कौटिल्य ने राजनीति को साधारण नैतिकता के बंधनों से मुक्त रखा है। इस दृष्टिकोण के अंतर्गत यूरोपीय दार्शनिक मेकियावेली (1469-1527) के विचारों का पूर्वसंकेत मिलता है। कौटिल्य ने छल-कपट और गुप्त मंत्रणा के प्रयोग की विधि को भी राज्यशिल्प का वैध तरीक़ा स्वीकार किया है। यह बात महत्त्वपूर्ण है कि कौटिल्य तथा अन्य प्राचीन भारतीय विचारकों ने केवल उन लोगों के साथ छल-कपट की नीति अपनाने का समर्थन किया है जो राज्य के विध्वंस पर तुले हों। इस तरह उनकी दृष्टि में छल-कपट राजनीति का सामान्य तरीका (Normal Method) नहीं था, बल्कि यह 'आपद्धर्म' का मार्ग था, अर्थात् केवल असाधारण परिस्थितियों में (Under Abnormal Conditions) यह अपनाने की अनुमति दी गई थी।
अधिराज ( Suzerain) और अधीनस्थ राज्यों (Vassal States) के संबंधों को संचालित करने की समस्या प्राचीन भारत की राजनीति की प्रधान समस्या थी । कौटिल्य ने इसका विस्तृत विवेचन किया है। इसे कौटिल्य के राज्यशिल्प को कुंजी कहा जा सकता है। कौटिल्य ने विदेश संबंधों के संचालन के लिए छह प्रकार की नीतियों का विवरण दिया है:
(1) 'संधि' (Treaty of Peace) अर्थात् शांति बनाए रखने के लिए गठबंधन बनाने की नीति;
(2) 'विग्रह' (Hostility) अर्थात् शत्रु को पहचान कर उससे युद्ध करने का निर्णय;
(3) 'यान' (Mobilization) अर्थात् युद्ध घोषित किए बिना आक्रमण की तैयारी की नीतिः
(4) 'आसन' (Neutrality) अर्थात् उदासीनता या तटस्थता की नीति;
(5) 'संश्रय' (Subordinate Alliance) अर्थात् अन्य राजा का संरक्षण प्राप्त करने का प्रयत्न; और अंत में,
(6) 'द्वैधीभाव' (Diplomatic Manoeuvring) अर्थात् एक राजा से शांति की संधि करके दूसरे के साथ युद्ध की ओर तत्पर होने की नीति ।
बुद्धिमान राजा उपर्युक्त विधियों में से अपने राज्य के कल्याण की दृष्टि से जिन्हें उपयुक्त समझेगा, उनका अनुसरण करेगा। राज्य का हित ही नीति का सर्वोत्तम निर्णायक होना चाहिए; कोरी वीरता या पराक्रम के प्रदर्शन के लिए किसी नीति का अनुसरण नहीं करना चाहिए।
कौटिल्य के अनुसार, यदि कोई राजा अपने से बलशाली राजा के साथ शांति संधि कर लेता है, परंतु बाद में वह यह अनुभव करता है कि वह स्वयं पर्याप्त शक्तिशाली हो गया है तो उसे पुरानी शांति संधि तोड़ कर अपनी शक्ति के अनुरूप नई नीति का निर्णय करना चाहिए। यहां भी कौटिल्य ने राजनीति को साधारण नैतिकता के बंधन से मुक्त रखा है।
वैसे बुद्ध के मामले में कोरिया में नैतिक धनों को मानते हुए शत्रु पर विजय प्राप्त करने के लिए सब तरह के साधनों का समर्थन किया है, फिर भी उन्होंने विजित देश के साथ मृदु व्यवहार का विधान किया है। कौटिल्य के अनुसार, विजेता राजा को विजित देश की प्रजा के माननीय जनों का साथ देना चाहिए और वहां के रहन-सहन, भाषा. रीति-रिवाज, मेले-त्योहारों, इत्यादि को अपना लेना चाहिए। इस प्रकार किसी देश के राजा को बुद्ध में पराजित करके उसकी प्रजा को तुष्ट करने का दोहरा अस्व कौटिल्य के राज्यशिल्प का मूल मंत्र है।
दौत्य संबंधों के सिलसिले में कौटिल्य ने दोन प्रकार के दूतों का उल्लेख किया है
(1) प्रथम राजदूत जो अपनी बुद्धि से अपने राजा की ओर से निर्णय करने वे की शक्ति रखते हो
(2) दूसरे के जिनको शक्ति बहुत सीमित हो अर्थात जिन्हें किसी विशेष ध्येय की पूर्ति के लिए भेजा गया हो; और (3) तीसरे वे जिन्हें केवल अपने राजा का कोई संदेश दूसरे राजा को पहुँचाने के लिए
भेजा गया हो।
राजदूत गुप्पावर का कार्य भी करते थे। दूसरे राज्य की आंतरिक स्थिति- विशेषत: शक्ति और जनमत की स्थिति का आकलन करके अपने राज्य के लिए महत्त्वपूर्ण सूचना सैन्य प्राप्त करना भी राजदूत का काम था। विदेश में संधियों के पालन का निरीक्षण करना, गुप्त सूचनाएं प्राप्त करके अपने राजा के पास भेजना तथा वहां फूट के बीज बो कर राज्य को
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