Bhakti and Sufi Traditions from about 8th century to 18th century
भक्ति एवं सूफी परम्पराए :-magadhIAS
⇒ आदि गुरु शंकराचार्य ,अद्वैतवाद -का प्रतिपादक
⇒ रामानुजाचार्य ,विशिष्टद्वैत के प्रतिपादक
⇒ मध्वाचार्य ,द्वैतावाद के प्रतिपादक
⇒ निम्बकरचार्य ,द्वैता द्वैतवाद के प्रतिपादक
⇒ वल्लभाचार्य ,शुद्धाद्वैत/ पुष्टिमार्ग
⇒ धर्म के इतिहासकार भक्ति परम्परा को मुख्य वर्गों में बाटते है। सगुन और निर्गुण
⇒ सगुन ( सगुन भक्ति परम्परा में शिव विष्णु, तथा उनके अवतारों व देवियों की आराधना आती है
⇒ निर्गुण ( जिनकी मूर्त रूप में आवधारणा हुई निर्गुण भक्ति परंपरा में अमूर्त निराकार ईश्वर की उपासना की जाती है।
⇒ शंकराचार्य का जन्म आठवीं सदी में केरल में हुआ था वे अद्वैतवाद के समर्थक एवं प्रतिपादक थे, "ब्रह्मा ही एक मात्र परम् सत्य है बाकी सब मिथ्या है।"
रामानुज 11वी सदी में तमिलनाडु में पैदा हुए ,रमानुजचार्य विष्णु भक्त अलावर संतो से काफी प्रभावित थे मोक्ष प्राप्त करने का उपाय विष्णु के प्रति समर्पण भक्ति भाव रखना है
⇒ तमिल क्षेत्र के अलावर और नायनार संत
प्रारंभिक भक्ति आंदोलन( लगभग छठी शताब्दी)
⇒अलावार ( विष्णु भक्त में तन्मय)
⇒नायनार (शिव भक्ति में तन्मय)
ये संत एक स्थान से दूसरे स्थान पर भृमण करते हुए तमिल में अपने इष्ट की स्तुति में भजन गाते थे
जाती के प्रति दृष्टिकोण
नयनार संतो ने जाती व अन्य आडम्बरो की प्रभुता के विपरीत आवाज उठाई। क्योकि ये भक्ति संत विभिन्न विभिन समुदायों से थे।जिनमे ब्राह्मण शिल्पकार ,किसान,अन्य जातियों से आते थे।
⇒कुल मिलाकर 63 नयनार ऐसे थे जो कुम्हार,अस्पृश्य,कामगार, किसान,शिकारी, सैनिक,ब्राह्मण और मुखिया जैसी अन्य जातियों में पैदा हुई।।
जिनमे सर्वाधिक प्रसिद्ध थे /
अप्पार ,संबंदर, सुन्दरार औऱ मणिक्कव सागार,। उनके गीतों के दो संकलन है।
1. तेवरम
2. तिरूवाचकम
अलावार संतो की संख्या 12 था ये भी विभिन्न प्रकार के पृष्टभूमि से आए थे।। इनमें सवार्धिक प्रसिद्ध/
1. पेरियअलवार
2 . अंडाल (पेरियअलवार की पुत्री
3. तोंडरडीप्पोडी
4. नम्मालवार
⇒ स्त्री भक्त
इस परंपरा की सबसे बड़ी विशिष्टता यह थी कि, इशमे स्त्रियों की उपस्थिति थी, उदाहरण
अंडाल आलवार स्त्री भक्ति गीत व्यापक स्तर पर गाये जाते थे।
अंडाल स्वयं को विष्णु की प्रेयसी मानकर अपनी प्रेमभावना को छंदों में व्यक्त करती थी।
⇒ एक और शिवभक्त ( नयनार) करइक्कल अम्मीईयार। ने अपने उद्देश्य की प्राप्ति हेतु घोर तपस्या का मार्ग अपनाया।
भक्ति साहित्य का संकलन :-
⇒ दसवीं शताब्दी तक आते आते 12 आलवारों की रचनाओं का एक संकलन कर लिया गया जो नलयीरादिपव्यप्रबंधम ।( चार हजार पावन रचनाएंल के नाम से जाना जाता है।
दसवीं शताब्दी में ही नयनार संत अप्पार संबंदर और सुंदरार की कविताएं "तेवरम" नामक संकलन में रखी गई । जिसमे कविताओं का संगीत के आधार पर वर्गीकरण हुआ।
⇒ अलावार और नयनार संतो की रचनाओं को वेद जितना महत्वपूर्ण बताकर सम्मानित किया गया है। "नलयीरादिपव्यप्रबंधम" को तमिल वेद कहा जाता है
⇒ राज्य के साथ संबंध:-
छठी से नौंवी शताब्दी पल्लव और पाण्ड्य राज्य का उद्भव और विकास हुआ।
एक रोचक बात यह है कि तमिल भक्ति रचनाओं की एक मुख्य विषयवस्तु बौद्ध और जैन धर्म के प्रति उनका विरोध है।
शक्तिशाली चोल (9वी सदी 13 वी शताब्दी) सम्राटों ने भक्ति परंपरा के समर्थन दिया तथा विष्णु और शिव के मंदिरों निर्माण के लिये भूमि -अनुदान दिए।
⇒ चोल सम्राटों की मदद से चिदरम्बम ,तंजावुर, और गंगैकोडचोलपुरम के विशाल शिव मंदिर का निर्माण हुआ।
945 ईसवी के एक अभिलेख से पता चलता है कि चोल सम्राट परांतक प्रथम ने संत कवि अप्पार और सुंदररार की धातु प्रतिमाएं एक शिव मंदिर में स्थापित करवाई।
⇒कर्नाटक की वीरशैव ( लिंगायत परंपरा:-
12वी शताब्दी के कर्नाटक में एक नवीन आदोंलन का उद्भव हुआ जिसका नेतृत्व बासवन्ना (1106-68ल नामक एक ब्राह्मण ने किया बासवन्ना कल्चुरी राजा के दरबार मे मंत्री थे।
इनके अनुयायी वीरशैव ( शिव के वीर) व लिंगायत ( लिंग धारण करने वाले ) कहलाए , अल्लभ प्रभु और अक्का महादेवी (महिला संत) भी इस परंपरा के प्रारंभिक संत थे।
लिंगायत शिव की आराधना लिंग के रूप में करते है।लिंगायतों का विस्वास है कि मृत्योपरान्त भक्त शिव में लीन हो जाएंगे। इस संसार मे पुनः नही लौटेंगे।
धर्मशास्त्र में बताए श्राद्ध संस्कार का वे पालन नही करते और अपने मृतकों को विधिपूर्वक दफनाते है।।
मूर्ति पूजा एवं पुनर्जन्म का विरोध एवं प्रश्न उठाया।
वयस्क विवाह और विधवा पुनर्विवाह को लिंगायतों ने मान्यता प्रदान की।
⇒बरकरी सम्प्रदाय:-
⇒महाराष्ट्र के ज्ञाननेश्वर ,नामदेव,एकनाथ,तुकाराम जैसे वैष्णव संत कवि भगवान,विटठल ,के उपासक थे। भगवान विटठल की आराधना ने वारकरी सम्प्रदाय को जन्म दिया। जो पंढरपुर की वार्षिक तीर्थयात्रा पर जोर देता था
इनमें महिलाएं भी थी " सखुबाई" और चिखामेथा का परिवार भी शामिल था।
⇒ नामदेव - महाराष्ट्र :-
भक्ति आंदोलन को लोकप्रिय बनाया।
नामदेव के गुरु विसोबा खेचर थे।
वारकरी सम्प्रदाय से सम्बंधित
विसोबा खेचर/ खेचरनाथ - रहस्यवादी जीवन की दीक्षा दी( नामदेव को।
ज्ञानदेव ने ईश्वर के सर्वव्यापी स्वरूप से परिचय कराया
नामदेव के कुछ गीतात्मक पद्व गुरु ग्रँथ साहिब में संकलित है
इन कवियों में भी कर्मकांड, जन्म आधारित पवित्रता एवं सन्यास को ठुकरा दिया। रोजी रोटी कमाओ जरूरतमंदों की सेवा करो। असली भक्ति दूसरे के दुखों को बांटने में है। इससे नए मानवतावादी विचार उद्भव हुआ।
⇒ जैसा कि सुप्रसिद्ध गुजराती संत नरसी मेहता ने कहा था।। वैष्णव जन तो तेने कहिए पीर पराई जान रे।
उतरी भारत मे धार्मिक उफान:-
नाथपंथी, सिद्ध और योगी।
नाथपंथी सिद्धचार और योगी जन उल्लेखनीय है उनमें भी विभिन्न समुदायों के लोग थे।
उन्होंने संसार का परित्याग करने का समर्थन किया योगासन प्राणायाम ,मनन जैसी क्रियाओं के माध्यम से मन एवं शरीर को कठोर परीक्षण देने की आवश्यकता पर बल दिया।
13वी सदी के बाद उतरी भारत मे भक्ति आंदोलन। की एक नई लहर आई।
कबीर औऱ बाबा गुरु नानक जैसे कुछ संतो ने सभी आडम्बरपूर्ण रूढ़िवादी धर्मो को अस्वीकार कर दिया।। तुलसीदास,सुरदस ,
तुलसीदास ने ईश्वर को राम के रूप में धारण किया । अवधी( पूर्वी उत्तर प्रदेश की बोली) में लिखी गई तुलसीदास की रचना रामचरित्रमानस ,उनजे भक्ति भाव की अभिव्यक्ति और साहित्यिक कृति दोनो दृष्टि से महत्वपूर्ण है।
⇒ सूरदास श्री कृष्ण के अनन्य भक्त थे उनकी रचना सूरसागर ,सुरसावली और साहित्य लहरी में संग्रहित है।
⇒ असम के शंकरदेव ( परवर्ती 15 शताब्दी) जो इन्ही के समकालीन थे। विष्णु भगवान की भक्ति पर बल दिया।। इन्होंने असमिया भाषा मे कविता पाठ एवं नाटक लिखे उन्होंने नामघर ( कविता पाठ और प्राथना गृह) स्थापित करने की पद्धति चलाई जो आज तक चली आरही।
⇒ शंकरदेव की भक्ति का सार एक शरण नाम धर्म( एक सर्वोच्य सत्ता के प्रति समर्पणल) के नाम से जाना गया।
⇒ शंकरदेव की शिक्षाएं भगवतगीता तथा भागवत पुराण पर आधारित है।
⇒ शंकरदेव की रचना कीर्तनघोष है।
⇒ इस परंपरा में दादू दयाल, रविदास और मीराबाई जैसे संत सामिल थे ।
मीराबाई एक राजपूत राजकुमारी थी। जिनका विवाह 16वी शताव्दी में एक राजशी परिवार में हुआ था
⇒मीराबाई रविदास की अनन्य अनुयायी बन गई कृष्ण के प्रति समर्पण गहरे भक्ति भाव भजनों में अभिव्यक्त किया।
⇒ भक्ति संतो का एक महत्वपूर्ण योगदान संगीत विकास में था बंगाल के जयदेव ने संस्कृत में गीत गोविंद की रचना की जिससे हर गीत एक विशेष राग और ताल में रचित है/
निष्कर्ष-
भक्ति और सूफी परम्पराएँ भारतीय समाज और संस्कृति में एक महत्वपूर्ण अध्याय हैं। इन परम्पराओं ने भारतीय लोगों के जीवन को गहराई से प्रभावित किया है।
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