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ह्वेनसांग कौन था? उसने भारत की राजनीतिक ,सामाजिक ,धार्मिक तथा आर्थिक स्थिति के बारे में क्या लिखा है।

ह्वेनसांग का परिचय-Introduction of Hiuen Tsang-

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ह्वेनसांग कौन था:-magadhIAS

(Who was Huen-Tsang? What has he written about the political, social, religious and economical condition of India?)



भारत में जितने चीनी यात्री आये उनमें ह्वेनसांग सबसे प्रसिद्ध है। उसे 'यात्रियों का राजकुमार' कहा जाता है। वह सम्राट हर्षवर्धन के शासनकाल (606-48 ई०) में भारत आया था। ह्वेनसांग का जन्म लगभग 600 ई० में चीन में होनान्-फू के पास एक नगर में हुआ था। बाल्यकाल से ही वह संसार के प्रति उदासीन हो गया था। चीन में उस समय बौद्ध धर्म सबसे अधिक प्रचलित था।

ह्वेनसांग बौद्ध धर्म की ओर आकृष्ट हुआ और अपने बड़े भाई की तरह उसने भी भिक्षु का जीवन अपना लिया। बौद्ध भिक्षु के रूप में वह सम्मानित होने लगा। उसने भिन्न-भिन्न नगरों तथा विहारों में जाकर बौद्ध धर्म का अध्ययन किया, किन्तु इससे उसे संतोष प्राप्त न हो सका, अतः अधिक अध्ययन के लिए उसने भारत आने का निश्चय किया। उसने चीन के राजा से अपनी यात्रा के लिए सहायता माँगी, किन्तु उसकी प्रार्थना अस्वीकार कर दी गयी। इससे ह्वेनसांग हताश नहीं हुआ।

629 ई० में वह अपने दो साहसी साथियों के साथ भारत की यात्रा करने के लिए रवाना हुआ। ये तीनों व्यक्ति लाँगजू नामक स्थान पर पहुँचे जहाँ व्यापारियों ने उन्हें बड़ी सहायता दी और उनकी यात्रा के लिए आवश्यक सामान एकत्रित कर दिये। मार्ग में अनेक कठिनाइयों का सामना करते हुए ह्वेनसांग गोबी के मरुस्थल में पहुँचा । उनके दोनों साथी मार्ग की कठिनाइयों से घबराकर उसका साथ छोड़ बैठे थे, अतः अब वह अकेला था । ह्वेनसांग अनेक विपत्तियों को झेलता हुआ यहाँ के काशगर, समरकन्द होता हुआ बल्ख पहुँचा। बल्ख उन दिनों बौद्ध धर्म का केन्द्र था ।

बल्ख से हिन्दूकुश पर्वत को लाँघकर वह पेशावर होता हुआ 630 ई० में तक्षशिला पहुँचा । तक्षशिला से 631 ई० में वह कश्मीर पहुँचा और वहाँ दो वर्षों तक रहकर बौद्धधर्म-ग्रंथ का अध्ययन किया। कश्मीर से वह पंजाब, थानेश्वर, मथुरा होता हुआ हर्ष की राजधानी कन्नौज पहुँचा। हर्ष ने उसका बड़ा भारी स्वागत किया इसके पश्चात् वह अयोध्या, प्रयाग, कौशाम्बी, श्रावस्ती, कपिलवस्तु, कुशीनगर, वाराणसी, सारनाथ, वैशाली तथा पाटलिपुत्र होता हुआ बोधगया पहुँचा। वहाँ उसने बोधिवृक्ष के नीचे उस स्थान के दर्शन कर अपार संतोष व सुख का अनुभव किया जहाँ सिद्धार्थ ने बुद्धत्व प्राप्त किया था ।

गया से ह्वेनसांग राजगृह होता हुआ नालन्दा पहुँचा। वहाँ उसने दो वर्ष तक बौद्धधर्म के विविध ग्रंथों का अध्ययन किया। तत्पश्चात् वह असम, उड़ीसा तथा ताम्रलिप्ति होता हुआ दक्षिण भारत में कांचीपुरम पहुँचा। वहाँ से महाराष्ट्र, सौराष्ट्र, सिन्धु, मुल्तान तथा गजनी होता हुआ अपने पुराने मार्ग से वह काबुल नदी के किनारे पहुंचा। इसके बाद पामीर की के सम्राट ने उसका अत्यधिक सम्मान किया । अपने जीवन का शेष भाग उसने बौद्ध ग्रंथों का चीनी भाषा में अनुवाद करने तथा अपनी यात्रा का विवरण लिखने में व्यतीत किया। 664 ई० में ह्वेनसांग की मृत्यु हो गयी ।


ह्वेनसांग का भारत विवरण-Hiuen Tsang's description of India-


हेनसांग लगभग 14 वर्ष तक भारत में रहा था। इसी बीच उसने देश के विभिन्न भागों की यात्रा की थी और भारत की तत्कालीन परिस्थितियों को निकट से देखा था, अतः ह्वेनसांग का भारतीय विवरण हमारे लिए बड़े महत्त्व का है। यह विवरण उसकी पुस्तक सि-यू-की (Si-Yu-Ki) में है । इस पुस्तक से भारत की तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक तथा धार्मिक दशा पर निम्नलिखित प्रकाश पड़ता है

राजनीतिक दशा-Political condition-


ह्वेनसांग लिखता है कि सम्राट हर्षवर्धन कर्त्तव्यपरायण, दयालु तथा उदार व्यक्ति था। प्रजा की दशा देखने के लिए वह अपने राज्य के विभिन्न भागों का दौरा किया करता था। साम्राज्य के विभिन्न प्रान्तों तथा प्रमुख अधिकारियों पर वह कड़ा नियंत्रण रखता था । शासन-प्रबन्ध में वह अत्यधिक व्यस्त रहता था और प्रजा की भलाई के कार्यों में अपनी नींद अथवा भूख भी भूल जाता था । सम्राट् के व्यक्तिगत ध्यान देने के कारण शासन व्यवस्था सुसंगठित थी। प्रजा सुखी और सम्पन्न थी। कर बहुत कम थे उपज का छठा भाग भूमिकर के रूप में लिया जाता था । लोगों से बेगार नहीं ली जाती थी ।

राज्य की भूमि से प्राप्त आय 4 भागों में विभक्त थी। प्रथम भाग राज्य के कार्यों पर व्यय होता था। दूसरे भाग से अधिकारियों तथा कर्मचारियों को वेतन दिया जाता था। तीसरा भाग विद्या, कला तथा ज्ञान-विज्ञान आदि के विकास पर व्यय किया किया जाता था। चौथा भाग भिन्न-भिन्न धार्मिक सम्प्रदायों को दान-दक्षिणा आदि देने में खर्च होता था सड़कें चौड़ी होती थीं तथा उनके किनारे छायादार वृक्ष खड़े रहते थे । यद्यपि सड़कों की सुरक्षा की पूर्ण व्यवस्था थी तथापि उन पर चोरों और डाकुओं का भय लगा रहता था। स्वयं ह्वेनसांग दो बार डाकुओं का शिकार हुआ था ।

दण्ड-विधान बहुत कठोर था। घोर अपराधों तथा अनैतिक कार्यों के लिए नाक, कान, हाथ काट लिये जाते थे। भयंकर अपराधों में मृत्यु दण्ड भी दिया जाता था। देश का व्यापार उन्नत अवस्था में था। व्यापार से भी राज्य को अच्छी आय हो जाती थी । हर्ष की चतुरंगिणी सेना विशाल थी। इसमें रथ के साथ एक लाख अश्वारोही, 60 हजार हाथी तथा 50 हजार पैदल सैनिक थे। रथ सेनाएँ नहीं थीं। सेनाएँ सीमाओं की रक्षा तथा शांति-सुव्यवस्था स्थापित करती थीं ।

सामाजिक दशा-Social condition-


ह्वेनसांग ने भारत की तत्कालीन सामाजिक दशा पर भी प्रकाश डाला है। वह लिखता है कि लोग सत्यनिष्ठ, ईमानदार, सरल तथा सीधे-सादे थे। वे सदाचारपूर्ण जीवन व्यतीत करते थे। लोगों का भोजन भी सादा था। प्याज, लहसून, शराब, मांस आदि को छूना भी पाप समझा जाता था। नीच लोग इसका सेवन करते थे। जाति प्रथा के बन्धन कठोर हो गये थे और छुआछूत का बहुत विचार करते थे। अनुलोम तथा प्रतिलोम विवाहों के कारण समाज में मिश्रित जातियों का एक वर्ग उत्पन्न हो गया। लोग शरीर और वस्त्रों की स्वच्छता पर बहुत ध्यान देते थे। भोजन के समय शुद्धता का अधिक ध्यान रखा जाता था। भोजन के पूर्व स्नान करना आवश्यक समझा जाता था। मिट्टी के बर्तनों में भोजन करने के बाद उन्हें फेंक दिया जाता था, परन्तु धातु के बर्तनों को दोबारा प्रयोग में लाया जाता था। 


लोगों का पहनावा भी साधारण था। बहुधा लोग श्वेत-वस्त्र धारण करते थे। अधिकांश वस्त्र सिलाई से रहित होते थे। पुरुष धोती और कन्धे पर एक चादर-सी डालते थे। स्त्रियाँ अपने शरीर को लम्बी धोती से ढके रहती थीं। स्त्री और पुरुष दोनों आभूषणप्रिय थे। अंगुठियों, हार, कंगन, माला आभूषण से शरीर को अलंकृत किया जाता था । स्त्रियाँ विविध प्रकार के शृंगार करती थीं। शृंगार में मोर पंख, लाली, काजल, सीपी आदि का प्रयोग किया जाता था । केश सँवारने की कला में स्त्रियाँ दक्ष थीं। केशों का जुड़ा बाँधने की प्रथा भी थी।


> पर्दा प्रथा का प्रचलन नहीं था, किन्तु स्त्रियों पुरुषों से स्वतंत्रतापूर्वक नहीं मिल सकती थीं । सती-प्रथा प्रचलित थी। स्वयं सम्राट हर्ष की माता अपने पति केशव के साथ चिता पर जलकर सती हुई थीं। अन्तर्जातीय विवाहों की प्रथा कम हो गयीं थी । बाल-विवाह प्रचलित था । बहुपत्नीत्व की प्रथा का भी प्रचलन था। विद्या और कला-कौशल में लोगों की अभिरुचि थी। शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया जाता था। संस्कृत विद्वानों की भाषा थी । शिक्षा ब्राह्मणों के द्वारा गुरु-गृह पर अथवा मंदिरों में दी जाती थी। समाज में संन्यासियों, भिक्षुओं तथा तपस्वियों का बड़ा आत्म-सम्मान था। वे जनता में ज्ञान का प्रचार करते थे ।

आर्थिक दशा- Economic condition-


देश धन-धान्य से पूर्ण था और प्रजा सम्पन्न थी। लोगों का प्रमुख व्यवसाय कृषि था । नदियों के किनारे जहाँ सिंचाई सुलभ थी अधिक उपज होती थी । कृत्रिम साधनों से भी सिंचाई करके पर्याप्त अन्न, सब्जियाँ तथा फल उत्पन्न किये जाते थे । कृषि-कार्य में अधिकांश शूद्र ही रहते थे, क्योंकि वैश्यों का झुकाव केवल व्यापार की ओर रहता था । व्यापार की दशा अच्छी थी; राज्य की ओर से जनता को व्यापार की विकास सम्बन्धी सुविधाएँ प्राप्त होती थीं। अन्तर्देशीय व्यापार के अतिरिक्त भारत का चीन, ईरान, कश्मीर, मध्य एशिया और यूरोप के देशों से भी व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित था । व्यापार जल तथा थल दोनों मार्गों से होता था। बहुधा विनिमय का साधन वस्तुओं का आदान-प्रदान था, किन्तु सोने-चाँदी के सिक्के प्रचलित थे।

देश में गगन चुम्बी भवनों और विस्तृत राजमार्गों आदि को देखकर ह्वेनसांग आश्चर्यचकित हो गया था । उस समय के मकानों की चर्चा करते हुए वह लिखता है कि नगरों और ग्रामों में ईंटों की मोटी ऊँची दीवारें होती थीं। घरों के चारों ओर की दीवारें लकड़ी या बाँस से बनाई जाती थीं। कमरों की छतें लकड़ी की बनी होती थीं, जिन पर चूने का प्लास्टर किया होता था, किन्तु, मकान का शेष भाग मिट्टी से लीपा जाता था। दीवारों पर चित्रकारी भी की जाती थी। बौद्ध विहारों की निर्माण- कला और उनकी भव्यता को देखकर ह्वेनसांग अत्यन्तं प्रसन्न हो उठा। विहारों को कलापूर्ण ढंग से बनाया जाता था। उनके चार कोनों पर चार बुर्ज होते थे। प्रत्येक पंक्ति में ऊंची छतोंवाली तीन-तीन शालाएँ (कमरें) होती थीं। विहार के उभरे हुए भागों पर विभिन्न प्रकार की मूर्तियाँ उत्कीर्ण की जाती थीं ।

धार्मिक जीवन-.

ह्वेनसांग के वर्णन से ज्ञात होता है कि उस काल में ब्राह्मणं धर्म उन्नतावस्था में था। विदेशों में भारत को ब्राह्मण का देश कहकर पुकारा जाता था। ब्राह्मण को समाज में बड़े आदर तथा सम्मान के साथ देखा जाता था। अधिकांश लोग शैव और वैष्णव मत के अनुयायी थे। काशी और प्रयाग में ब्राह्मण धर्म के क्रिया-विधियों और अनुष्ठानों का खूब प्रचार था। ब्राह्मण धर्म में अनेक मत-मतान्तर प्रचलित थे। ब्राह्मणों में संन्यासी और तपस्वी एकान्त जीवन व्यतीत करते थे। समाज में उन्हें अत्यन्त श्रद्धा और भक्ति से देखा जाता था। लोगों में निवृत्ति की भावना थी। ह्वेनसांग के ही शब्दों में- "ऐश्वर्य का पीछा करना सांसारिक जीवन का लक्ष्य माना जाता था और ज्ञान का पीछा करना धार्मिक जीवन का लक्ष्य ।"

बौद्ध धर्म पतनोन्मुख हो चला था। अब यह 18 शाखाओं में विभक्त हो गया था, किन्तु हीनयान और महायान दोनों प्रमुख बौद्ध सम्प्रदाय अधिक प्रचलित थे। इनमें भी महायान अधिक लोकप्रिय तथा उन्नत अवस्था में था। हर्ष स्वयं महायान सम्प्रदाय का अनुयायी था। बौद्ध धर्म में भी मूर्ति-पूजा प्रचलित हो गयी थी। हर्ष स्वयं बुद्ध की प्रतिमा की पूजा बड़ी शान और वैभव से करता था ।

शिक्षा-हर्ष के समय में शिक्षा की अवस्था काफी अच्छी थी। ब्राह्मणों को वैदिक यज्ञों के अनुष्ठान तथा वेद-पाठ आदि की शिक्षा दी जाती थी। उन्हें संस्कृत का ज्ञान कराया जाता था। ब्राह्मण-ब्रह्मचारियों को तर्कशास्त्र और दर्शनशास्त्र की शिक्षा मुख्य रूप से दी जाती थी। ब्राह्मणों की भाँति बौद्ध श्रमणों की भी शिक्षा की सुन्दर व्यवस्था थी। कुछ बौद्ध विहारों में अच्छे पैमाने पर शिक्षा दी जाती थी। नालन्दा विश्वविद्यालय बौद्ध धर्म की शिक्षा का प्रमुख केन्द्र था। ह्वेनसांग ने भी इस विश्वविद्यालय में दो वर्ष व्यतीत किये थे।

नालन्दा का वर्णन करते हुए वह कहता है, "अत्यन्त उच्च कोटि की प्रतिभा और योग्यतावाले कई हजार भिक्षु यहाँ रहते हैं। उनका यश दूर-दूर तक फैल चुका है। उनका चरित्र पवित्र और दोषरहित है। वे नैतिक नियमों का पालन कड़ाई से करते हैं। मठ के नियम बहुत कड़े हैं और उनका पालन सभी भिक्षुओं के लिए आवश्यक है। ये प्रातःकाल से रात्रि तक बाद-विवाद में व्यस्त रहा करते हैं। विभिन्न देशों के विद्वान भी जो वाद-विवाद से अपनी योग्यता शीघ्र बढ़ाना चाहते हैं, यहाँ आते हैं। इसमें लगभग एक हजार अध्यापक तथा 10 हजार विद्यार्थी हैं।" इनके अतिरिक्त उज्जैन, बल्लभ और काशी शिक्षा और ज्ञान के प्रमुख केन्द्र थे ।

कन्नौज का धार्मिक सम्मेलन-Religious conference of Kannauj-


जब ह्वेनसांग भारत में था तब 643 ई० में हर्ष ने अपनी राजधानी कन्नौज में एक धार्मिक सम्मेलन आयोजित किया था। इसका उद्देश्य महायान सम्प्रदाय का प्रचार करना था। साम्राज्य में इस बात की घोषणा कर दी गयी और धार्मिक सम्प्रदायों के प्रतिनिधियों को आमंत्रित किया गया। सम्मेलन में भाग लेने के लिए 18 राजा, 3 हजार महायान तथा हीनयान भिक्षु, 3 हजार ब्राह्मण तथा निर्ग्रन्थ और 10 हजार नालन्दा के विद्वान उपस्थित हुए। अधिवेशन के लिए दो विशाल मण्डप और एक ऊँचे चैत्य का निर्माण किया गया। प्रत्येक मण्डप में दो-दो हजार व्यक्तियों के बैठने के लिए स्थान था।

इस सम्मेलन में ह्वेनसांग ने महायान मत का खूब प्रतिपादन किया। ह्वेनसांग की ओर से सभा-गृह के द्वार पर लिखकर टाँग दिया गया था कि कोई उसे वाद-विवाद में परास्त कर देगा, तो वह अपना सिर दे देगा। पाँच दिनों तक किसी ने उसकी चुनौती को स्वीकार नहीं किया, किन्तु वस्तुस्थिति यह थी कि हर्ष ने बौद्ध धर्म के ब्राह्मण प्रतिद्वन्द्वियों को स्वतंत्र रूप से इस सम्मेलन के वाद-विवाद में भाग लेने से वंचित किया था, उन पर प्रतिबन्ध लगा दिये गये थे। उसने घोषणा की थी कि यदि किसी ने चीनी विद्वान को तनिक भी हानि पहुँचाई, तो उसका सिर काट लिया जाएगा और जो उसके विरुद्ध बोलेगा उसकी जीभ काट ली जाएगी। 

18 दिन तक सम्मेलन की कार्यवाही होती रही। अंत में सम्राट् ने महायान सम्प्रदाय को सर्वश्रेष्ठ घोषित किया और ह्वेनसांग को विशेष सम्मान प्रदान किया। इससे विरोधी ब्राह्मण भड़क उठे और उन्होंने चैत्य में आग लगा दी और सम्राट की हत्या करने का असफल प्रयास किया। 500 ब्राह्मणों को बन्दी बनाकर निर्वासित कर दिया गया और शेष को क्षमा कर दिया गया।

प्रयाग का महादान -  हर्ष महादानी था। वह प्रति पाँचवें वर्ष प्रयाग में दान का आयोजन करता था। 643 ई० में उसने ऐसा छठा आयोजन किया। हेनसांग प्रयाग के छठे दान-महोत्सव में उपस्थित था, अतः उसने इसका विशद् वर्णन किया है। उस महोत्सव में कामरूप का शासक भाष्करवर्मन तथा बल्लभी का शासक ध्रुवसेन द्वितीय भी उपस्थित था। लगभग 5 लाख स्त्री-पुरुष एकत्रित हुए थे। 

ढाई महीने तक महादान चलता रहा। पहले दिन बुद्ध की पूजा की गयी और बहुमूल्य वस्त्रादि का वितरण किया गया। दूसरे-तीसरे दिन क्रमश: सूर्य तथा शिव की पूजा की गयी। चौथे दिन बौद्ध भिक्षुओं को सोना, चाँदी, मोती, बहुमूल्य वस्त्रादि दान में दिये गये, फिर 20 दिनों तक ब्राह्मणों पर धन बरसाया गया । तदन्तर 10 दिनों तक 'विरोधियों', अर्थात् जैनी तथा अन्य मतावलम्बियों को दान मिले। इस प्रकार राजकोष का सब । समाप्त हो गया। कहा जाता है कि सम्राट के पास पहनने को वस्त्र तक नहीं रहे। तब उसने राज्यश्री से माँगकर एक पुराना वस्त्र धारण किया। इस प्रकार उसने व्यक्तिगत उदारता का वह आदर्श रखा जो इतिहास में अपूर्व था


निष्कर्ष:-conclusion:-


ह्वेनसांग का भारत विवरण भारत की तत्कालीन परिस्थितियों का एक महत्त्वपूर्ण दस्तावेज है। यह हमें भारत के इतिहास और संस्कृति के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान करता है।




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