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बंगाल विभाजन के बाद ,हुए स्वदेसी आंदोलन एवं उसके प्रभाव (1905) पर संक्षिप्त लेख Swadesi movement, NET, JRF

बंग-भंग और स्वदेशी आंदोलन.


स्वदेशी आंदोलन बंगाल -विभाजन विरोधी आंदोलन का ही विस्तार था। जब सभी प्रकार में उदारवादी तकनीकों के अपनाए जाने के बाद भी 1905 के मध्य तक कोई परिणाम नहीं निकला तो ब्रिटिश वस्तुओं के बहिष्कार और स्वदेशी (देश में निर्मित) वस्तुओं को खरीदने के लिए खरीदारों को तैयार करना जैसे कुछ तरीके अपनाये गये।

Swadesi movement,1906
Swadesi movement : magadhIAS



बंगाल की स्थिति

उंस समय बंगाल की आबादी सात करोड़ 85 लाख थी।उपनिवेश भारत की कुल आबादी का लगभग  एक चौथाई उड़ीसा, बिहार और झरखण्ड भी इसी राज्य के हिस्से थे असम जो कि 1874 में ही अलग हो गया था। 

इतने बड़े राज्य का प्रशासन चलाना वास्तव में कठिन था। लेकिन आंग्रेजो ने इस राज्य के बंटवारे का फैसला प्रशाशनिक कारणों से नही, बल्कि राजनीतिक कारणों से लिया था।

Swadesi National Movement in India
स्वदेशी आंदोलन।


दिसम्बर 1903 में बंगाल- विभाजन के प्रस्ताव की जानकारी सबको मिली खबर मिलते ही जबरदस्त विरोध की लहर उठी ,विरोध कितना  जबरदस्त था, इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि पहले दो महीनों में ही केवल पूर्वी बंगाल में विभाजन के खिलाफ 500 बैठकें हुई

औपचारिक रूप से स्वदेशी आंदोलन की घोषणा 7 अगस्त 1905 को कलकत्ता के टाउन हॉल में 'बहिष्कार प्रस्ताव' को पारित करने के साथ की गयी। यहाँ तक कि सुरेन्द्र नाथ बनर्जी जैसे उदारवादी नेताओं ने पूरे देश का भ्रमण किया और मैनचेस्टर के कपड़ों एवं लिवरपूल के नमक का बहिष्कार करने की अपील की। विभाजन लागू होने के दिन 16 अक्टूबर, 1905 को पूरे बंगाल में शोक दिवस घोषित किया गया। 


कलकत्ता में हड़ताल मनाई गई, लोगों ने 'बन्दे मातरम्' के गीत गाते हुए जुलूस निकाले और बंगाल के दोनों भागों की एकता के प्रतीक के रूप में एक-दूसरे की कलाइयों पर राखियां बांधी। पूरे बंगाल ने विदेशी साज-सामान का उपयोग करने से इंकार कर दिया।। शीघ्र ही स्वदेशी के प्रयोग और विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का संदेश पूरे देश में फैल गया।


स्वदेशी का हुंकार एवं क्रांतिकारी ।


लोकमान्य तिलक, अजित सिंह, लाला लाजपतराय, चिदंबरम पिल्लई आदि नेताओं ने आंदोलन के व्यापक विस्तार में महत्वपूर्ण योगदान दिया। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने अपने बनारस अधिवेशन 1905 (अध्यक्ष गोपालकृष्ण गोखले) में पूरे बंगाल के स्वदेशी एवं बहिष्कार आंदोलन का समर्थन किया।

तिलक, विपिनचन्द्र पाल, लाजपतराय एवं अरविंद घोष के नेतृत्व में उग्र राष्ट्रवादी, स्वराज और स्वशासन के पक्ष में थे। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने इनके दबाव में अपने कलकत्ता अधिवेशन (1906, जिसकी अध्यक्षता दादाभाई नौरोजी द्वारा की गयी) में 'स्वशासन' या 'स्वराज्य' को अपना लक्ष्य घोषित किया।

इस आंदोलन में संघर्ष की जितनी भी धाराएँ फूटीं, उनमें सबसे अधिक सफलता मिली विदेशी माल के बहिष्कार आंदोलन को यह आंदोलन काफ़ी लोकप्रिय और सफल रहा। बंगाल व देश के दूर-दराज के हिस्सों में विदेशी कपड़ों की होली जलाई गई और विदेशी कपड़े बेचने वाली दुकानों पर धरने दिए गए। औरतों ने विदेशी चूड़ियाँ पहनना व विदेशी बरतन का इस्तेमाल बंद कर दिया, धोबियों ने विदेशी कपड़े धोने से इनकार कर दिया। यहाँ तक कि महंतों ने विदेशी चीनी से बने प्रसाद को लेने से इनकार कर दिया।

स्वावलंबन का नारा।


दूसरा कारण था कांग्रेस पार्टी में आपसी मतभेद। 1907 के कांग्रेस विभाजन ने स्वदेशी आंदोलन को बहुत क्षति पहुँचाई हालांकि स्वदेशी का दायरा बंगाल के बाहर तक फैला था, लेकिन बंगाल को छोड़ देश का बाकी हिस्सा आधुनिक राजनीतिक विचारधारा व संघर्ष को अपनाने के लिए पूरी तरह तैयार नहीं था। अँग्रेजी हुकूमत ने इसका फ़ायदा उठाया और दमनचक्र चालू हो गया। 1907 1908 के बीच बंगाल के नौ बड़े नेता जिनमें अश्विनीकुमार दत्त और कृष्णकुमः मिश्र भी थे, निर्वासित कर दिए गए। तिलक को छह वर्ष की कैद हुई।  


तीसारा कारण यह था कि स्वदेशी आंदोलन के पास कोई प्रभावी संगठन नहीं था। आंदोलन ने तमाम गांधीवादी तरीके, जैसे अहिंसक असहयोग, जेल भरो आंदोलन, सामाजिक सुधार, गाँवों में रचनात्मक कार्य इत्यादि अपनाए लेकिन संगठन के अभाव में आंदोलन इन तरीकों को कोई अनुशासित केंद्रीय दिशा देने में असफल रहा। 

एक युग का अंत।


आखिरी बात यह है कि कोई जनांदोलन लगातार नहीं चल सकता। इसमें एक ठहराव आता है, जब क्रांतिकारी शक्तियाँ अगले संघर्ष के लिए तैयारी करती हैं. जनमत तैयार करती हैं। इस स्वदेशी आंदोलन के बाद भी ऐसा ही हुआ। 1908 के मध्य यह आंदोलन खत्म हुआ।

निष्कर्ष Conclusion.


इस प्रकार स्वदेशी आंदोलन की समाप्ति के साथ भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का एक युग समाप्त हो गया। यह कहना गलत होगा कि स्वदेशी आंदोलन असफल रहा। आंदोलन ने समाज के उस बड़े तबके में राष्ट्रीयता की चेतना का संचार किया जो उससे पहले राष्ट्रीयता के बारे में अनभिज्ञ था। इस आंदोलन ने औपनिवेशिक विचारधारा तथा फ़िरंगी हुकूमत को काफी हद तक क्षति पहुँचाई और सांस्कृतिक जीवन को जितना प्रभावित किया उसकी इतिहास में मिसाल मिलनी मुश्किल है।

यही संघर्ष भावी राष्ट्रीय आंदोलन की नींव बना। स्वदेशी आंदोलन उपनिवेशवाद के ख़िलाफ़ सशक्त राष्ट्रीय आंदोलन था, जो भावी संघर्ष का बीज बोकर ही ख़त्म हुआ।

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