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बिहार के शारण जिला में स्थित चिरान्द नवपाषाणिक स्थल।सेनुआर, चेचर JRF,UPSC,SSC,PCS

नवपाषाणिक स्थल। चिरांद से वृत्ताकार झोपड़ी मिली तथा धान, गेंहू जौ आदि के साक्ष्य मिली है



चिरान्द Chirand

सोन, गंडक, घाघरा, गंगा नदी के संगम स्थल: magadhIAS
सोन, गंडक, घाघरा, गंगा नदी के संगम स्थल चिरान्द 
source:-magadhIAS


मध्य गंगा घाटी में चिरान्द (बिहार, सारण जिला) प्रमुख नवपाषाण स्थल हैं।यह 

सोन
गंडक
घाघरा
गंगा नदी के संगम पर स्थित है। इस स्थल का काल खण्ड (2500-1345 ईसा पूर्व)

यहां से लाल, धूसर तथा काले मृदभाण्ड प्राप्त हुए हैं जो अधिकांश हस्तनिर्मित हैं। चिरान्द नवपाषाणिक तथा ताम्रपाषाणिक दोनों युगों से सम्बन्धित है।


1962-63 में वी के सिन्हा के नेतृत्व में बिहार स्थित चिरांद नामक ग्रामीण स्थल की खुदाई के बाद नवपाषानीक अवशेष प्राप्त हुए। खुदाई के दौरान भारी मात्रा में हिरन के सिंघो से निर्मित हथियार व औजार प्राप्त हुए है

बुर्जहोम (कश्मीर) को छोड़कर भारत के अन्य किसी पुरातात्विक स्थल से इतनी अधिक मात्रा में नवपाषाणकालीन उपकरण नही मिले है, जितने की चिरांद से प्राप्त हुए है


नोट चिरान्द से नवपाषाणिक सन्दर्भ में सर्वप्रथम कृष्ण लोहित मृदभाण्ड मिले।)


चिरान्द के लोग वृत्ताकार झोंपड़ियों में रहते थे। एक अर्धवर्त्ताकार झोंपड़ी से विशेष प्रकार के एकाधिक चूल्हों की प्राप्ति के आधार पर इसे माना जा सकता है। नवपाषाण चिरान्द से बस्तियों के साक्ष्य के साथ धान, मसूर, मूंग, गेहूं और जौ की खेती के साक्ष्य मिले हैं। चिरान्द से कूबड़दार बैल, नाग, चिड़ियों की मृण्मूर्तियां प्राप्त हुई हैं।

चिरांद के मृद्भांड को लाल तथा गेरुए रंगों से रंगा गया था, जिनके चमकीले बाहरी हिस्सों पर रेखीय और ज्यामितिय डिजाइन बनाए जाते थे। यहां आवासीय स्तर के प्रमाण, तीसरी सहस्राब्दी ई.पू. के मध्य से मिलने शुरू हो जाते हैं। क्वार्टजाइट, बसाल्ट और ग्रेनाइट पत्थर के कुल्हाड़ और हथौड़े बनाए जाते थे। चाल्केडॉनी, चर्ट, एगेट तथा जैस्पर के सूक्ष्मपाषाणीय ब्लेड और प्वांइट बनाए जाते थे। हड्डी और कांटों के स्क्रेपर, घिजेल, सूई, हथौड़े, छिद्रक, पिन इत्यादि बनते थे। हड्डियों के आभूषण, कंघी, कछुए की हड्डी तथा हाथी दांत की चूड़ियां भी बनती थीं।

कुछ घड़ों पर रंग (सामान्यत: लाल रौरिक) तथा सतह पर हुए डिजाइन भी देखे गए हैं तथा वैसे डिजाइन सामान्यतः रेखीय एवं ज्यामितिय हैं। बहुत सारे धूसर घड़े पॉलिशदार (ओपदार) हैं। अगेट, कार्नेलियन, जैसपर, संगमरमर, स्टीटाइट (शेलखड़ी) तथा फायन्स (प्रकाचित पत्थर) बेलनाकार, तिकोन तथा तश्तरी के आकार देखे जा सकते हैं। उनका निर्माण स्थानीय तौर पर हो रहा था तांबे की कोई वस्तु नहीं प्राप्त हुई है। एक छोटा छिद्रदार नाल मिला है, जिसमें काजल या कालिख का अंश था, जो शायद तम्बाकू पीने वाली नाल रहा होगी। पक्की मिट्टी (टेराकोटा) की कुछ तश्तरियां मिली हैं, जिनके बीच के हिस्से में छिद्र हैं, जो तकुआ हो सकती है।

पशु-पक्षियों की हड्डियों के अतिरिक्त मछली के कांटे भी बड़ी मात्रा में मिले हैं। नदियों से प्राप्त शंख और घोंघे भी इनके भोजन में शामिल हैं। चिरांद से एक ताम्रपाषाण युगीन संस्कृति का स्तर भी पाया गया है।

बिहार के छेछर-कुतुबपुर नामक स्थान है जहां से विकसित नवपाषाणीय संस्कृति के प्रमाण मिले हैं। लोग भीत के बने गोलाकार झोपड़ियों में रहते थे। भारी मात्रा में हड्डियों और मृगश्रृंग के बने औजार तथा सेलखड़ी एवं चैल्सेडनी के सूक्ष्म मनके पाए गए हैं।

बिहार स्थित अन्य नवपाषाणिक स्थल सेनुआर (सासाराम, बिहार) 


कुदरा नदी के किनारे सेनुआर से नवपाषाण ( कालखंड- 1) ताम्र पाषाण (कालखंड-2) तथा उत्तरी कृष्ण चमकीला मृद्भांड संस्कृति (कालखंड-3) तथा प्रारम्भिक ई.पू. सन् की प्राप्तियां (कालखंड-4) इन चारों काल के पुरातात्विक अवशेष मिले हैं। कालखंड-1 बी की रेडियोकार्बन तिथि लगभग 1770- 1400 ई.पू. निकाली गई है। अतः कालखंड-1 ए की शुरूआत तीसरी सहस्राब्दि ई.पू. के उत्तरार्द्ध में मानी जा सकती है। कालखंड-1ए (तीसरी सहस्राब्दि ई.पू. का उत्तरार्द्ध) में नरकुल और मिट्टी के झोपड़ियों के अवशेष मिले हैं। मृद्भांडों के तीन मुख्य प्रकार मिले हैं-एक लाल मृद्भांड, चमकता हुआ धूसर मृद्भांड एवं कुछ खुरदते मृद्भांड मिले हैं तथा कुछ पर रस्सी के छाप वाले डिजाइन मिले हैं। मृद्भांडों में चौड़े मुंह वाला छिछला कटोरा, नालीदार कटोरा, घड़ा (घट) तथा टोंटीदार बर्तन देखे जा सकते हैं। अधिकांश मृद्भांड चाक पर बने थे। चर्ट, चैल्सेडनी (स्फटिक), अगेट (गोमेद), क्वार्ट्ज (स्फटिक) तथा क्वार्टजाइट के बने बहुत सारे सूक्ष्म पाषाण (छोटे फलक तथा शल्क और फलक) मिले हैं। तिकोने ओपदार कुल्हाड़ी (सेल्ट), पत्थर के मूसल, अवतल चक्की, पत्थर के हथौड़े तथा अनेक आकारों की गोफनगोलियां भी प्राप्त हुई हैं। हड्डी के बने नुकीले शल्क उपकरण (प्वांइट) भी मिले हैं।


सेनुआर के पालतू जानवरों में मवेशी, भेड़, बकरी, सुअर, बिल्ली तथा कुत्ते थे। जंगली पशुओं में नीलगाय, बारासींगा तथा चीतल थे। हड्डियों पर पाए गए जलने और कटने के निशानों से पता चलता है कि इन्हें भोजन के लिए मारा जाता था। और शंखों के अवशेष से सिद्ध होता है कि उन्हें भी भोजन के घोंघों लिए मारा जाता था। यहां मछलियों की हड्डियां नहीं मिली है। 

अनाजों के अध्ययन से पता चलता है कि यहां वर्ष में दो फसल उगाए जा रहे थे। चावल (आरिजा सटाइवा) मुख्य फसल था, लेकिन लोग, जौ, बीना गेहूं (ट्राइटिकम स्फेरोकोक्कर बाजरा, रागो बाजरा, सिरदल घास मटर (लेथिरस स्टाइनस) खेत मटर (पाइसम अरबॅस) भी उगा रहे थे। कालखंड-1 बी (1770-1400 ई.पू.) नवपाषाण संस्कृति का प्रतिनिधित्व करता है, जिनमें मछली मारने का कांटा, तार, छल्ले, टूटी हुई सुई एवं अन्य टूटी हुई और अस्पष्ट उपयोग की वस्तुएं हैं। सीसे की बनी टूटी हुई शलाका भी मिली है। तार शुद्ध तांबे की बनी हुई थी जो पास की राखा ताम्रखानों से प्राप्त किया होगा। यहां बने औजारों में अधिकांश ब्लैक बेसाल्ट पत्थरों से बने थे। 

मिट्टी के बने छिद्रदार तश्तरियों का उपयोग तकली या चरखे में किया जाता था। पहले के मुकाबले ज्यादा पाषाण औजार पाए गए हैं, जिनमें ज्यादातर काले बेसाल्ट से बने पॉलिशदार पुराकुठार (सेल्ट) भी शामिल हैं। शंख के आभूषणों में तिकोना लटकन भी था। फेयंस के 25 मनके भी प्राप्त हुए हैं। टेराकोटा की सामग्रियों में मनके, मृद्भांड-चकरी, वृषभ मृण्मूर्ति और शायद सीटी पाये जाते हैं। पकी मिट्टी की कुछ चकरी बच्चों के खिलौने के पहिए हो सकते हैं। पतले छिद्र वाली चकरी कपड़ा बुनने की तकली का हिस्सा हो सकती है।



मनेर से हाथ से बने लाल मृद्भांड तथा चमकीले लाल और धूसर मृद्भांड पाए गए हैं। लंबी गर्दन वाले बर्तन, छोटी पैदे वाले कटोरे, ढक्कन वाले तथा छिद्रों वाले बर्तन भी पाए गए। सूक्ष्म पाषाण औजार, हड्डी के प्वाइंट तथा सेलखड़ी की तकली इत्यादि भी पाए गए हैं।

महाबोधि मन्दिर के निकट ताराडीह से पतली रस्सी के छापयुक्त और चमकीले धूसर मृद्भांड मिले हैं जिनको पकाने के बाद गेरूआ रंग में रंगा गया था। नवपाषाण पुराकुठार, सूक्ष्मपाषाण और हड्डियों के औजार मिले हैं। भीत के बने घर और अंगीठी के अवशेष भी देखे जा सकते हैं। मवेशी, बकरी, भैंस, सूअर, भेड़, हिरण, चिड़िया, मछली और घोंघा की हड्डियां भी मौजूद हैं। वनस्पति अवशेषों में गेहूं, धान और जौ के दाने शामिल हैं।

चिरांद से प्राप्त महत्वपूर्ण अवशेषों में शामिल हैं-

मृद्भांड: चिरांद से लाल, धूसर और काले रंग के मृद्भांड प्राप्त हुए हैं। इन मृद्भांडों पर रेखीय, ज्यामितीय और रस्सी के छाप वाले डिजाइन मिलते हैं

पाषाण औजार: चिरांद से विभिन्न प्रकार के पाषाण औजार प्राप्त हुए हैं, जिनमें कुल्हाड़ी, हथौड़ा, चाकू, छुरी, भाला, तीर और नुकीले हथियार शामिल हैं।

हड्डियों के औजार: चिरांद से हड्डियों से बने औजार भी प्राप्त हुए हैं, जिनमें छुरी, सुई, कांटा, कंघी और आभूषण शामिल हैं।

आभूषण: चिरांद से विभिन्न प्रकार के आभूषण प्राप्त हुए हैं, जिनमें मनके, कंगन, पेंडेंट और बाजूबंद शामिल हैं।  

अन्य अवशेष: चिरांद से कृषि उपकरण, मछली पकड़ने के उपकरण, घरेलू बर्तन और जानवरों की हड्डियाँ भी प्राप्त हुई हैं।


निष्कर्ष (Conclusion)

चिरांद बिहार के नवपाषाण काल के इतिहास के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान करता है। यह स्थल बिहार के प्राचीन इतिहास और संस्कृति के अध्ययन के लिए एक महत्वपूर्ण स्थान है।

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