1905 में बंगाल के विभाजन के लिए कौन जिम्मेदार था?who was responsible for the partition of bengal in 1905
लॉर्ड कर्जन को सन् 1899 में भारत का गवर्नर जनरल नियुक्त किया गया था । लॉर्ड कर्जन साम्राज्यवादी तथा तानाशाही प्रवृत्तियों से ग्रस्त थे। जब वे भारत आए तो उन्होंने प्रारंभ से ही 'बाँटो और राज करो' की नीति अपनाई। इस नीति का अनुसरण करते हुए उन्होंने बंगाल को दो भागों में विभाजित करने की योजना ब्रिटिश सरकार के सम्मुख रखी, जिसे ब्रिटिश सरकार की अनुमति प्राप्त हो गई। बंगाल में हिंदू और मुसलमान दोनो
मिल-जुलकर रहते थे। धार्मिक आधार पर कभी कोई मतभेद नहीं हुआ था। नई नीति के अनुसार, बंगाल को हिंदू बाहुल्य और मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्रों में बाँटा गया। हिंदू बाहुल्य क्षेत्र को राजधानी कोलकाता तथा मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्र की राजधानी ढाका बनाई गई। अंग्रेजी को आशा के विपरीत इस विभाजन का व्यापक विरोध सभी क्षेत्रों में किया गया। वंग- को योजना की रूपरेखा सर्वप्रथम सन् 1903 में लॉर्ड कर्जन द्वारा प्रस्तुत की गई थी। 1903 से लेकर राष्ट्रीय कांग्रेस के सभी अधिवेशनों में प्रस्ताव पारित कर इस योजना को रद्द करने की मांग की गई।
बंगाल में बंग-भंग की योजना के खिलाफ प्रतिवाद सन् 1903 से ही प्रारंभ हो गया था। बंगाल के हर नगर और सैकड़ों गाँवों में विरोध-सभाएँ आयोजित की गई। सिर्फ पूर्वी बंगाल में ही दो महीने के अंदर 500 से अधिक विरोध सभाएँ हुई। इस योजना के खिलाफ अनेक पुस्तकें और परचे छापकर बाँटे गए। 6 जुलाई, 1905 को इस योजना को विधिवत् लागू करने की घोषणा की गई, जिस कारण पूरे बंगाल में असंतोष की आग भड़क उठी। सुरेंद्रनाथ बनर्जी ने सरकार को चेतावनी दी कि देश इस अन्याय को चुपचाप बरदाश्त नहीं करेगा और इसके विरुद्ध जबरदस्त आंदोलन छेड़ा जाएगा।
बंगाल विभाजन का असर पूरे भारत पर असर हुआ।The partition of Bengal affected the whole of India.
विरोध का यह आंदोलन पूरे देश में प्रारंभ हुआ। सन् 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के पश्चात् ऐसा विशाल विरोध-आंदोलन पहले कभी नहीं हुआ था। केवल बंगाल में ही दो हजार से अधिक जनसभाएँ हुई, जिनमें लाखों लोगों ने भाग लेकर अपना जबरदस्त समर्थन दिया। हिंदू और मुसलमान, दोनों ही इन जनसभाओं में शामिल हुए। बंगाल में उस समय प्रकाशित होनेवाले समाचार-पत्रों ने भी इस योजना का कड़ा विरोध किया था। जब राष्ट्रीय नेताओं ने देखा कि ब्रिटिश सरकार बंग-भंग की योजना को भारत पर लादने पर तुली हुई है तो उन्होंने 'बॉयकॉट' और 'स्वदेशी' का नारा बुलंद किया तथा निर्णय लिया कि लोगों को ब्रिटिश माल का बहिष्कार करना चाहिए। इस योजना के विरोध में सरकारी अधिकारियों तथा सरकारी संस्थाओं से संपर्क तोड़ने का निर्णय भी लिया गया। दिनाजपुर के महाराजा जिस जनसभा के अध्यक्ष थे, उसे संबोधित करते हुए लालमोहन घोष ने सुझाव दिया कि सभी ऑनरेरी मजिस्ट्रेटों, जिला बोडों, म्युनिसिपल कमेटियों तथा पंचायतों के सदस्य एक साथ इस्तीफा दे दें और 12 महीने तक इस योजना के विरोध में शोक मनाया जाए। पूरे बंगाल में नगर - नगर और गाँव-गाँव 'वंदे मातरम्' का उद्घोष किया गया। 'वंदे मातरम्' का उद्घोष ''जनवाणी' बन गया।
स्कूल - कॉलेज के विद्यार्थियों ने भी इस आंदोलन में भाग लिया स्वदेशी की शपथ लिया।
कोलकाता के विद्यार्थियों की पहल पर सभी कॉलेजों और स्कूलों की सभा में विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार की शपथ ली गई। 7 अगस्त, 1905 को कोलकाता के टाउन हॉल पा में एक विशाल जनसभा आयोजित की गई, जिसमें बड़े-बड़े नेताओं के अतिरिक्त विभिन्न बा जिलों के प्रतिनिधि भी उपस्थित थे। पाँच हजार से अधिक विद्यार्थियों का विशाल जुलूम क
कॉलेज स्क्वायर से चलकर इस सभा में शामिल हुआ। 2 बजे दोपहर से ही कोलकाता की सड़कों पर लोग निकल आए। हजारों लोगों के हाथों में काले झंडे थे। उन झंडों पर 'बंगाल नहीं बँटेगा एक ही रहेगा', 'बंग-भंग नहीं होने देंगे' और 'वंदे मातरम्' लिखा हुआ था । तमाम नगर में पूरी हड़ताल रही। टाउन हॉल में इतनी भीड़ थी कि एक के बजाय तीन-तीन सभाओं का प्रबंध करना पड़ा।
1 सितंबर, 1905 को सरकार ने घोषणा की, कि बंग-भंग की योजना 16 अक्तूबर से लागू कर दी जाएगी। बंगाल की जनता ने इसे अपना अपमान समझा। सरकार की चुनौती को स्वीकार कर सभी वर्गों व श्रेणियों के लोग इसके विरुद्ध मैदान में कूद पड़े। विद्यार्थियों और शिक्षकों ने नंगे पैर स्कूल जाना शुरू किया। मोचियों धोबियों तथा दर्जियों ने अपनी-अपनी सभाओं में यह फैसला लिया कि वे अंग्रेजों के जूतों की मरम्मत नहीं करेंगे, विदेशी कपड़ों को नहीं धोएँगे तथा विदेशी कपड़ों की सिलाई नहीं करेंगे।
बहिष्कार का यह आंदोलन देश के सभी प्रदेशों में प्रारंभ हुआ। इस आंदोलन को लाल-बाल-पाल का भी व्यापक समर्थन मिला। इस त्रिमूर्ति ने अपने-अपने प्रदेश में विदेशी माल के बहिष्कार के व्यापक आंदोलन प्रारंभ किए। विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का प्रभव अपना रंग दिखाने लगा। विदेशी माल का आयात बहुत कम हो गया। विदेशी माल के आयात से जो कस्टम व चुंगी से आय होती थी, उसमें भारी कमी आने लगी। इस बहिष्कार का असर इंग्लैंड के कारखानों में भी पड़ना शुरू हुआ। फलतः उन कारखानों के मालिकों को अपने माल का उत्पादन कम करने के लिए विवश होना पड़ा। इस कमी के कारण उनके मालिकों एवं मजदूरों में व्यापक चिंता फैलने शुरू हुई। अतः उन्होंने भी ब्रिटिश सरकार पर जोर डालना प्रारंभ किया कि बायकॉट से उत्पन्न हुई स्थिति के हल के लिए कोई कारगर कदम उठाने चाहिए, ताकि इंग्लैंड की आर्थिक स्थिति को बिगड़ने से रोका जा सके। उपलब्ध आँकड़ों के अनुसार, इस वायकॉट के कारण विदेशी नमक का आयात एक लाख चालीस हजार मन कम हो गया। तीन करोड़ गज से अधिक विदेशी कपड़ा कम आयात किया गया तथा अन्य वस्तुओं के आयात में भी भारी कम आनी शुरू हुई।
उस आंदोलन को दबाने के लिए अंग्रेज सरकार ने जितने भी कदम उठाए, वे विफल साबित हुए इस आंदोलन के समर्थन में कोलकाता में 16 नवंबर को एक ऐतिहासिक सम्मेलन आयोजित किया गया। उसमें गुरुदास बनर्जी, सतीशचंद्र मुखर्जी, हरींद्रनाथ दत्त, आशुतोष चौधरी, रासबिहारी बोस, रवींद्रनाथ ठाकुर, तारकनाथ पालित, चितरंजन दास, अब्दुल रसूल, नीलरत्न सरकार, बृजेंद्रनाथ शील, लालमोहन घोष, सुरेंद्रनाथ बनर्जी, विपिनचंद्र पाल, मोतीलाल घोष, सुबोधचंद्र मलिक आदि नेता मंच पर उपस्थित थे उस सभा में बायकॉट के कार्यक्रम को चलाने के लिए प्रचुर मात्रा में धन भी इकट्ठा किया गया। सरकारी स्कूलों और कॉलेजों का भी बायकॉट प्रारंभ हुआ। उन स्कूलों और कॉलेजों में जो विद्यार्थी
कॉलेज स्क्वायर से चलकर इस सभा में शामिल हुआ। 2 बजे दोपहर से ही कोलकाता की सड़कों पर लोग निकल आए हजारों लोगों के हाथों में काले झंडे थे। उन झंडों पर 'बंगाल नहीं बँटेगा एक ही रहेगा', 'बंग-भंग नहीं होने देंगे' और 'वंदे मातरम्' लिखा हुआ था। तमाम नगर में पूरी हड़ताल रही। टाउन हॉल में इतनी भीड़ थी कि एक के बजाय तीन-तीन सभाओं का प्रबंध करना पड़ा।
1 सितंबर, 1905 को सरकार ने घोषणा की, कि बंग-भंग की योजना 16 अक्तूबर से लागू कर दी जाएगी। बंगाल की जनता ने इसे अपना अपमान समझा। सरकार की चुनौती को स्वीकार कर सभी वर्गों व श्रेणियों के लोग इसके विरुद्ध मैदान में कूद पड़े। विद्यार्थियों और शिक्षकों ने नंगे पैर स्कूल जाना शुरू किया। मोचियों, धोबियों तथा दर्जियों ने अपनी-अपनी सभाओं में यह फैसला लिया कि वे अंग्रेजों के जूतों की मरम्मत नहीं करेंगे, विदेशी कपड़ों को नहीं धोएँगे तथा विदेशी कपड़ों की सिलाई नहीं करेंगे।
बहिष्कार का यह आंदोलन देश के सभी प्रदेशों में प्रारंभ हुआ। इस आंदोलन को लाल-बाल-पाल का भी व्यापक समर्थन मिला। इस त्रिमूर्ति ने अपने-अपने प्रदेश में विदेशी माल के बहिष्कार के व्यापक आंदोलन प्रारंभ किए। विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का प्रभव अपना रंग दिखाने लगा। विदेशी माल का आयात बहुत कम हो गया। विदेशी माल के आयात से जो कस्टम व चुंगी से आय होती थी, उसमें भारी कमी आने लगी। इस बहिष्कार का असर इंग्लैंड के कारखानों में भी पड़ना शुरू हुआ। फलतः उन कारखानों के मालिकों को अपने माल का उत्पादन कम करने के लिए विवश होना पड़ा। इस कमी के कारण उनके मालिकों एवं मजदूरों में व्यापक चिंता फैलने शुरू हुई। अतः उन्होंने भी ब्रिटिश सरकार पर जोर डालना प्रारंभ किया कि बायकॉट से उत्पन्न हुई स्थिति के हल के लिए कोई कारगर कदम उठाने चाहिए, ताकि इंग्लैंड की आर्थिक स्थिति को बिगड़ने से रोका जा सके। उपलब्ध आँकड़ों के अनुसार, इस बायकॉट के कारण विदेशी नमक का आयात एक लाख चालीस हजार मन कम हो गया। तीन करोड़ गज से अधिक विदेशी कपड़ा कम आयात किया गया तथा अन्य वस्तुओं के आयात में भी भारी कम आनी शुरू हुई।
उस आंदोलन को दबाने के लिए अंग्रेज सरकार ने जितने भी कदम उठाए, वे विफल साबित हुए। इस आंदोलन के समर्थन में कोलकाता में 16 नवंबर को एक ऐतिहासिक सम्मेलन आयोजित किया गया। उसमें गुरुदास बनर्जी, सतीशचंद्र मुखर्जी, हरींद्रनाथ दत्त, आशुतोष चौधरी, रासबिहारी बोस, रवींद्रनाथ ठाकुर, तारकनाथ पालित, चितरंजन दास, अब्दुल रसूल, नीलरत्न सरकार, बृजेंद्रनाथ शील, लालमोहन घोष, सुरेंद्रनाथ बनर्जी, विपिनचंद्र पाल, मोतीलाल घोष, सुबोधचंद्र मलिक आदि नेता मंच पर उपस्थित थे। उस सभा में बायकॉट के कार्यक्रम को चलाने के लिए प्रचुर मात्रा में धन भी इकट्ठा किया गया। सरकारी स्कूलों और कॉलेजों का भी बायकॉट प्रारंभ हुआ। उन स्कूलों और कॉलेजों में जो विद्यार्थी
शिक्षा प्राप्त कर रहे थे, उनके लिए गैर-सरकारी स्कूल और कॉलेज खोले गए। अरविंद घोष, जो बड़ौदा रियासत में 750 रुपए की नौकरी करते थे, ने वहाँ से इस्तीफा देकर नेशनल कॉलेज के प्रिंसिपल का पदभार स्वीकार किया, जहाँ से वे केवल 75 रुपए मासिक वेतन लेते थे। अंग्रेज सरकार ने 'वंदे मातरम्' का नारा लगाने पर पाबंदी लगाने का प्रयास किया, किंतु उसका यह प्रयास सर्वथा विफल रहा। राष्ट्रीय कांग्रेस में दो धड़े हो गए, जिन्हें 'मॉडरेट' और 'नेशनलिस्ट' घड़ों की संज्ञा दी गई। लाल-बाल-पाल तीनों ने देश के विभिन्न भागों की यात्रा कर बंग-भंग के विरोध में व्यापक जन समर्थन जुटाया। अरविंद घोष को गिरफ्तार किया गया, बाल गंगाधर तिलक को नजरबंद किया गया। विपिनचंद्र पाल ने यूरोप के अनेक नगरों की यात्रा कर बंग-भंग की योजना से उत्पन्न हुई स्थिति से वहाँ के लोगों को अवगत कराया।
बंगाल विभाजन आंदोलन में बहुत से नेताओं को गिरफ्तार कर किया गया ,एवं जान माल का भारी नुकसान हुआ।
24 जून, 1908 को सरकार ने बाल गंगाधर तिलक पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया। उन्हें 6 वर्ष के कारावास और एक हजार रुपए जुरमाने की सजा दी गई। पुलिस ने जन-असंतोष को दबाने के लिए लाठियों गोलियों का सहारा लिया, जिसमें 15 लोग मारे गए और सैकड़ों घायल हो गए।
अंत में ब्रिटिश सरकार को बंग-भंग की योजना को वापस लेने के लिए विवश होना पड़ा। जॉर्ज पंचम, जो एडवर्ड सप्तम को मृत्यु के पश्चात् नए सम्राट् बने थे, के सम्मान में 12 दिसंबर, 1910 को दिल्ली में एक विराट् दरबार का आयोजन किया गया। उसी दरबार में जॉर्ज पंचम ने घोषणा भी की, कि भारत की राजधानी कोलकाता से हटाकर दिल्ली लाई जाएगी। छह वर्ष के कठिन संघर्ष के पश्चात् इस राष्ट्रीय आंदोलन को अंततः सफलता प्राप्त हुई, लेकिन बंगालवासियों को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी। इस आंदोलन से पूरे भारत में एक नई राजनीतिक चेतना का उदय हुआ, जो कालांतर में भारत को आजादी के संघर्ष की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम साबित हुआ/
0 टिप्पणियाँ
magadhIAS Always welcome your useful and effective suggestions