इतिहासकार कल्हन पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखें। (Write short note on historian Kalhana.)
कल्हण भारत के एक महान इतिहासकार थे जिन्होंने , कल्हण के संस्कृत ग्रँथ राजतरंगिणी (1148-50) राजतरंगिणी शब्द का अर्थ होता है, राजाओं की नदी, राजतरंगिणी में कुल आठ तरंग (अध्याय) हैं।
संभवत: प्राचीन भारत में सबसे अच्छा इतिहास कल्हण ने लिखा। वह कश्मीर का विद्वान ब्राह्मण थे। वह कश्मीर के राजा हर्ष के मंत्री कंपक (Kanpaka) का पुत्र था। उसने 1148 ई. में लिखना शुरू किया और इसे दो वर्षों में पूरा किया। उसकी कृति 'राजतरंगिणी' (Chronicles of Kashmir) में कश्मीर का इतिहास है। इसमें किसी विशेष राजवंश का उल्लेख नहीं है। इसकी रचना करते समय कल्हण ने समसामयिक दस्तावेजों, , शिलालेखों, मुद्रा, प्राचीन स्मारकों आदि का गहरा अध्ययन किया था। इससे पता चलता है कि वह आधुनिक इतिहास लेखन कला से परिचित था।
'राजतरंगिणी' में लगभग 8000 संस्कृत छन्द हैं। इसे तीन भागों में बाँटा जा सकता है। प्रथम भाग में समसामयिक परम्पराओं के आलोक में अतीत की घटनाओं का उल्लेख है। दूसरे भाग में कारकोटा और उत्पल राजवंशों का इतिहास है। तीसरे भाग में कश्मीर के लोहर (Lohara) राजवंश का इतिहास है। इस प्रकार, राजतरंगिणी में कश्मीर के राजाओं का उल्लेख है। कल्हण ने पौराणिक राजा लव का तथा ललितादित्य, यशस्कर, मेघवाहन एवं मिहिरकुल के शासनकाल की घटनाओं का उल्लेख किया है। वस्तुतः राजतरंगिणों सही अर्थ में इतिहास है।
कुछ पश्चिमी विद्वानों के अनुसार भारत में मनुष्य प्रकृति के समक्ष स्वयं को तुच्छ और असमर्थ पाता है और तत्परिणामस्वरूप उसमें अपनी नगण्यता तथा जीवन को व्यर्थता की भावना जन्म लेती है, उसे जीवन की अनुभूति एक भयानक दुःस्वप्न के रूप में होती है और दुःस्वप्न का इतिहास नहीं हो सकता।
अपनी अतिशय निष्क्रियता एवं निरपेक्षता की भावना के कारण उसमें विश्वनिर्माण की क्षमता का अभाव दिखाई पड़ता है। वे वर्तमान भौतिक जोवन की अपेक्षा आगामी जीवन में अधिक रुचि रखते थे। उनके लिए दृश्यमान जीवन माया भ्रमस्वरूप था तथा श्मशान भूमि से पर स्थित जीवन वास्तविक था । काल विवेचन इतिहास रचना का आधार है और भारतीयों ने समय को सदैव से गौण स्थान दिया है। अतएव तिथिक्रम के यथार्थ प्रस्तुतीकरण की ओर से वे उदासीन रहे हैं।
किंतु उपर्युक्त मंतव्य निरर्थक हैं। वास्तविकता यह है कि कर्म और मायावाद में विश्वास होने पर भी भारतीयों ने एक गौरवपूर्ण इतिहास का निर्माण किया । जीवन का अर्थ पुरुषार्थ है और पुरुषार्थ का अर्थ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष है। 'चरैवेति चरैवेति' भारतीय ऋषियों की वाणी रही है। 'इह चेव वेदिक' सत्य को यहीं जानना है।
भारत कर्मभूमि है, ऐसा विभिन्न ग्रंथों में कहा गया है। यह सत्य है कि इतिहास जिस रूप में आज परिभाषित होता है उस रूप में भारतीयों ने इतिहास रचना नहीं की। अतीत दो प्रकार का होता है : मृत अतीत, जैसे घटनाएँ, व्यक्ति इत्यादि तथा जीवंत अतीत अर्थात परंपराएँ जिनका एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक संप्रेषण होता रहता है।
भारत में परंपराओं की सुरक्षा का प्रयास ऐतिहासिक स्मृति के रूप में नहीं किया जाता था। इसमें सभी की क्रियात्मक सहभागिता आवश्यक समझी जाती थी। भारत में सदैव यह विश्वास किया गया कि हम अतीत के वंशधर हैं जिसकी सुरक्षा हमारा कर्तव्य है तथा जिसमें योगदान करते हुए हमें ऋणमुक्त होना है।
वैदिक युग से ही विश्वास प्रचलित था कि मनुष्य तीन ऋणों: देव ऋण तथा ऋषि ऋण के साथ उत्पन्न होता| है तथा इन ऋणों से मुक्ति पाने के लिए क्रमशः वंश-वर्द्धन, विद्याभ्यास एवं याज्ञिक कर्म की अपेक्षा है। अतएव, निश्चित रूप से परंपरा के प्रति चेतना तथा उत्तरदायित्व की भावना भारतीयों में विद्यमान थी ।
आज भी दक्षिण भारत में ऐसे पंडित हैं जो वैदिक यज्ञों का संपादन उसी कुशलता के साथ करते हैं जैसे वे 3000 वर्ष पूर्व संपादित होते थे। शासकों के लिए इतिहास अध्ययन पर बल देते हुए कौटिल्य ने इसके व्यावहारिक लाभ को स्वीकार किया है। शासकों के यहाँ शासकीय तथा प्रशासकीय विवरण तैयार किया जाता था। गुप्त अभिलेखों में अक्षपटलाधिकृत नामक अधिकारी का उल्लेख है ।
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