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हिन्दू धर्म ग्रंथो में महिलाओं की स्थिति कैसी है Status of women in Hindu scriptures (upsc,bpsc.net,jrf,teaching

हिन्दू धर्म के अनुसार भारतीय इतिहास में नारी स्थिति की विवेचना कीजिए। (Discuss the status of women in Indian History according to Hindu Religion.)

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महात्मा गांधी जी का एक विचार " स्त्री और पुरुष एक दूसरे के पूरक हैं आपसी सहयोग के बिना दोनो का अस्तित्व असंभव है''


महिलाओ की स्थिति पुरुषों से कही जयदा परिवर्तनीय रही है, विश्व का पहला धर्म, सनातन धर्म जिसको आम बोलचाल में हिन्दू धर्म भी कहते है, त्रेतायुग में भग्यवान श्रीराम ने सीता के लिए सबकुछ समर्पण कर दिया था, वही द्वापरयुग में  द्रोपदी के आत्मसमान के लिए महाभारत  युद्ध हुआ था।  सनातन धर्म ग्रँथ में महिलाओं को भग्यवान अर्थात देवी का रुप माना हिन्दू धर्म मे महिलाओं को पुरुषो से कही अधिक सर्वोच्य एवं उच्य स्थान प्राप्त है, देवी देवताओं का नाम भी, सीता-राम ,राधा-कृष्ण ,गौरी शंकर ,अर्थात महिलाओं के नाम से सुरु होती है, 

लेकिन बदलते परिस्थिति और माहौल ने महिलाओं के स्थिति में थोड़ा परिवर्तन किया।


भारतीय समाज में नारी की स्थिति में समयानुसार महत्त्वपूर्ण परिवर्तन होता रहा है जिसकी जानकारी विभिन्न स्रोतों से प्राप्त होती है। हिन्दू धर्मशास्त्रों से भी नारी स्थिति के संबंध में पर्याप्त जानकारी उपलब्ध होती है। हिन्दू धर्मशास्त्रों के आधार पर नारी स्थिति की - विवेचना निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत की जा सकती है:


(1) वैदिक काल एवं नारी Vedic period and women : वेदों में नारी का स्थान

ऋग्वेद के माध्यम से तत्कालीन स्थिति पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। इस काल में समाज में स्त्रियों को उच्च स्थान प्राप्त था तथा पुरुष उसको अपनी सहधर्मिणी समझता था। पुत्र प्राप्ति की आकांक्षा रखते हुए भी पुत्रियों की उपेक्षा नहीं की जाती थी। सामाजिक एवं धार्मिक उत्सवों में स्त्रियों का पुरुषों के साथ बैठना अनिवार्य था अन्यथा यज्ञ व हवन अधूरे माने जाते थे। 

धर्म के अनुसार कन्या का भी उपनयन संस्कार किया जाता था। स्त्रियों को वेदाध्ययन करने एवं मन्त्रोच्चारण करने का अधिकार था। ऋग्वेद में अपाला, घोषा, विश्ववारा, सिकता एवं लोपामुद्रा आदि अनेकों विदुषी कन्याओं के उल्लेख मिलते हैं। उन्होंने ऋषियों की भाँति अनेक ऋचाओं की रचना की। कन्याओं को नृत्य व संगीत की शिक्षा भी दी जाती थी। इस युग में जो कन्या आजीन शिक्षा ग्रहण करने में लगी रहती थी तथा वैवाहिक बन्धन में नहीं फँसती थी, उसे 'ब्रह्मवादिनी' कहा जाता था।

सामान्यतया विवाह को अनिवार्य माना जाता था। ऋग्वेद में विवाह सूत्र के मन्त्र विवाह के पवित्र स्वरूप को प्रस्तुत करते हैं तथा साथ ही विवाह संबंध को अविच्छेदय बताते हैं। वैदिक युग में पर्दा प्रथा, बाल विवाह आदि कुरीतियाँ नहीं थी। सती-प्रथा का भी कोई उल्लेख नहीं मिलता है। नियोग प्रथा का प्रचलन था अर्थात् स्त्रियाँ पति की मृत्योपरान्त पुत्र प्राप्ति हेतु देवर अथवा निकट संबंधी से संबंध स्थापित कर सकती थी। स्वयंवर प्रथा भी प्रचलित थी।

(2) उत्तर वैदिक काल एवं नारी Later Vedic Period and Women:: 

उत्तर वैदिक काल में आर्यों एवं अनार्यों का सम्मिश्रण होने के कारण स्त्रियों की स्थिति में भी परिवर्तन आया। अनार्यों के सम्पर्क में आने के बाद आर्य अधिक समय तक अपनी जातीय एवं सांस्कृतिक एकता को बनाकर नहीं रख सके। शनैः-शनैः वर्ण संकरता का विस्तार होने लगा। इस काल में स्त्रियों की स्थिति अपेक्षाकृत हीन हो गई थी। उन्हें सम्पत्ति संबंधी अधिकार प्राप्त नहीं थे। उनके द्वारा अर्जित धन पर भी पिता अथवा पति का अधिकार होता था। पुत्र की अपेक्षा पुत्री को कम महत्त्व प्राप्त था। मोक्ष प्राप्ति के लिए पुत्र का होना अनिवार्य बताया गया था। विवाह एक अनिवार्य संस्कार था। स्त्री के अभाव में मनुष्य को अपूर्ण माना जाता था।

ऐसा विश्वास किया जाता था कि विवाह के अभाव में मोक्ष प्राप्ति संभव नहीं है। राजपरिवारों एवं कुलीन वंशों में बहु-विवाह की प्रथा थी अन्यथा एक पत्नीक प्रथा थी। सामान्यतया विवाह वयस्क अवस्था में ही किए जाते थे, किन्तु कहीं-कहीं बाल विवाह का भी उल्लेख मिलता है। यद्यपि सजातीय विवाहों को अधिक महत्त्व दिया जाता था, किन्तु अन्तर्जातीय विवाहों के भी उल्लेख मिलते हैं। 'शतपथ ब्राह्मण' से ज्ञात होता है कि च्यवन ऋषि ने ब्राह्मण ने होते हुए भी राजा शर्यात की पुत्री सुकन्या से विवाह किया था। 'सती-प्रथा' एवं 'पर्दा प्रथा' का प्रचलन नहीं था। विधवा को पुत्र प्राप्ति हेतु पुनर्विवाह का अधिकार प्राप्त था।

उत्तर वैदिक काल में स्त्रियों की शिक्षा का समुचित प्रबन्ध था। इस काल के साहित्य में गार्गी एवं मैत्रेयी जैसी विदुषी कन्याओं के नाम उल्लेखनीय हैं। अथर्ववेद, ऐतरेय ब्राह्मण, तैत्तिरीय-संहिता, वृहदारण्यक उपनिषद्, स्तम्भ-गृहसूत्र, बौधाययन आदि से इस काल में नारी की स्थिति पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है।

(3) सूत्रकाल एवं नारी: सूत्रकाल में स्त्रियों की दशा अपेक्षाकृत अधिक निम्न एवं हीन हो गई। विवाह वयस्क अवस्था में ही किए जाते थे। इसकी पुष्टि आपस्तम्ब, सांख्यायन एवं पारस्कर के मतों के आधार पर होती है।

आश्वलायन गृहसूत्र में स्त्रियों के 'समावर्तन संस्कार' का उल्लेख मिलता है। यह संस्कार विद्याध्ययन की समाप्ति के उपरान्त किया जाता था। अतः, स्पष्ट है कि स्त्रियाँ भी ब्रह्मचर्य आश्रम में रहकर शिक्षा प्राप्त करती थीं। सूत्रकाल की नारियों को दो वर्गों में विभक्त किया गया था— प्रथम वर्ग में 'सद्योवधू' आती थी जो विद्याध्ययन की समाप्ति के उपरान्त गृहस्थ जीवन में प्रवेश करती थीं। द्वितीय वर्ग में 'ब्रह्मवादिनी' आती थी जो आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करती थीं।

सूत्रकाल में आठ प्रकार की विवाह प्रणालियाँ प्रचलित थीं। ये आठ प्रकार अग्रलिखित थे— ब्रह्मा, देव, आर्य, प्रजापत्य, गन्धर्व, असुर, राक्षस, पिशाच अनुलोम एवं प्रतिलोम दोनों प्रकार के विवाह प्रचलित थे, किन्तु सपिण्ड, सगोत्र एवं सप्रवर विवाह का विरोध किया जाता था। कतिपय परिस्थितियों में स्त्रियों को पुनर्विवाह की अनुमति प्राप्त थी। पर्दा प्रथा का भी प्रचलन था। बोधायन, वशिष्ठ एवं गौतम सूत्रकारों के अनुसार समाज में स्त्रियों को पुरुषों के अधीन माना गया है। महाकाव्य काल एवं नारी रामायण एवं महाभारत के रचनाकाल को महाकाव्य काल कहा गया है।

इस काल में स्त्रियों की स्थिति में गिरावट आ गई थी। उनके उपनयन संस्कार की प्रथा समाप्त हो गई थी तथा स्त्री-शिक्षा की भी उपेक्षा होने लगी थी। सती प्रथा व पर्दा प्रथा अस्तित्व में आ गई थीं। विधवा विवाह एवं नियोग की प्रथा समाप्त कर दी गई। स्त्रियों को पति की दासता में रखने का प्रयास किया गया। यद्यपि इस युग में कुछ उच्च व्यक्तित्व वाली स्त्रियाँ हुई हैं, किन्तु फिर भी स्त्रियों के व्यक्तित्व के विकास पर प्रतिबंध लगने लगे थे। पुत्र की अपेक्षा पुत्र को अधिक महत्त्व दिया जाता था।

महाकाव्यों में ऐसे भी उदाहरण मिलते हैं जिनमें पुत्री को पुत्र के ही समान माना गया है। स्त्रियों के वाद-विवाद एवं धार्मिक गोष्ठियों में भाग लेने के भी उदाहरण मिलते है तत्कालीन समाज की आदर्शमयी स्त्रियाँ सीता, द्रोपदी, कुन्ती, देवयानी, सुभद्रा दमयन्ती आदि रही हैं। महाकाव्यों से स्पष्ट होता है कि इस काल में विधवा विवाह एवं पुनर्विवाह का भी प्रचलन था। पर्दे की प्रथा भी विद्यमान थी, किन्तु उसका प्रचलन नहीं था । वेश्यावृत्ति का भी जन्म हो चुका था।

इस काल में स्त्री का सर्वाधिक पूज्य रूप माता का था। मनु के अनुसार, 'जहाँ स्त्रियाँ पूजी जाती हैं, वहाँ देवताओं का वास होता है।' महाभारत में स्त्री को धर्म, अर्थ एवं काम का मूल बताया गया है। पति सेवा एवं पति-परायणता स्त्री का परम कर्तव्य माना गया। 

In this period, the most worshipable form of woman was that of mother. According to Manu, 'Where women are worshipped, the gods reside there.' In the Mahabharata, woman has been described as the root of religion, meaning and work. Husband service and husband-loyalty were considered the ultimate duty of a woman.

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