भारतीय सविधानं में मानवाधिकार की प्रावधान IndianConstitution.( भारतीय सविधानं)
भारत की अपनी प्राचीन परम्परा है। इस परम्परा का निर्माण अनेक विश्वासों एवं धर्मों के सम्मिश्रण से हुआ है। प्राचीन भारत में शस्त्र सम्मत मूल्यों का अनुपालन प्रत्येक व्यक्ति करता था। ये आदर्श मान्यताएँ एवं आस्थाएँ हमारे सांस्कृतिक मूल्यों से निरंतर पोषित एवं नियंत्रित होती रही हैं। भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है, धार्मिक सहिष्णुता भी राष्ट्रीय अखण्डता एवं एकता की दृष्टि से विशेष महत्वपूर्ण है ।
("जीवन अनन्त, अनश्वर और गतिमान है। वह न कभी रूकता है और न नष्ट होता है। अतः उसे जीना आवश्यक है, पर यह जीना इच्छा क्रिया और ज्ञान के समन्वय के साथ होना चाहिये तभी विषमता समाप्त होगी और अखण्ड आनन्द की प्राप्ति होगी । " )
भारतीय समाज की सांस्कृतिक परम्पराओं के निर्माण में सैकड़ों वर्षों का समय लगा हैं। इनके निर्माण में कितने ही महापुरुषों, ज्ञानियों की संचित प्रतिभा का उपयोग हुआ है। पुराने मूल्य आज भी प्रासंगिक हैं यथा— स्वतंत्रता, विश्वास, निष्ठा, आत्मसम्मान, कार्य करने का अधिकार, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता । यही नैतिक नियम मानव परिवार के सभी सदस्यों को बाँधकर रखते हैं और उन्हें एक-दूसरे की सुरक्षा एवं सुख के प्रति एक नये दायित्व का बोध कराती है।
भारत के संविधान में भी सभी नागरिकों को समान रूप से सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय दिलाने की व्यवस्था है। सरकार की मान्यता है कि राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ आधार तब ही प्रदान किया जा सकता है जब समस्त नागरिकों में भाषा, जाति, धर्म, लिंग एवं क्षेत्रीयता की संकीर्णता समाप्त हो जायेगी ।
इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिये सर्वप्रथम मध्यप्रदेश राज्य में 6 जनवरी, 1992 को देश का पहला मानव अधिकार आयोग गठित करने का सकंल्प लिया गया। इसके पश्चात् 1993 में भारत सरकार द्वारा "मानव अधिकार संरक्षण अधिनियम" बनाया गया। इस अधिनियम के अंतर्गत 13 सितम्बर, 1995 को वर्तमान "मध्यप्रदेश मानव अधिकार आयोग" का गठन किया गया आयोग का मुख्यालय भोपाल में रखा गया है।
मानव अधिकार और हमारे संविधान में प्रदत्त अधिकारों की तुलना विश्व के अनेक देश मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा के बाद ही स्वतंत्र हुए
थे और उन्होंने अपने-अपने देश के संविधानों में इनमें से अनेक अधिकारों को शामिल किया है।
भारत के संविधान में निहित अधिकांश अधिकार मानव अधिकारों के समान हैं। इनमें से कुछ समान अधिकारों को नीचे वर्णित किया जा रहा है-
(1) मानव अधिकार का अनुच्छेद दो (2) और हमारे संविधान का अनुच्छेद 15 दोनों ही जाति, रंग, भाषा, धर्म, राजनीति आदि में भेद किये बिना सभी व्यक्तियों को सभी अधिकार और स्वतंत्रता की समानता के पक्षधर हैं।
(2) मानव अधिकार का अनुच्छेद 18 और हमारे संविधान का अनुच्छेद 25 दोनों ही व्यवसाय और धर्म आदि की स्वतंत्रता के पक्षधर हैं।
(3) मानव अधिकार का अनुच्छेद 27 और हमारे संविधान का अनुच्छेद 29 (1) दोनों ही भाषा और संस्कृति के संरक्षण के पक्ष में हैं । (4) मानव अधिकार का अनुच्छेद 25 और हमारे संविधान का अनुच्छेद 45 दोनों ही प्राथमिक स्तर तक निःशुल्क तथा अनिवार्य शिक्षा के पक्षधर हैं
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भारत सरकार ने 22 अगस्त, 1974 को एक संकल्प के साथ बच्चों की भलाई के लिए एक राष्ट्रीय नीति बनाने पर विचार किया। इस नीति की कुछ महत्वपूर्ण बातें निम्नलिखित हैं-
(1) बच्चों की देखभाल और उचित विकास के लिए चिंता करना पूरे राष्ट्र का उत्तरदायित्व है
Human Rights
(2) बच्चों के उचित शारीरिक, मानसिक और सामाजिक विकास के लिये पर्याप्त सेवायें देना राष्ट्र की नीति होगी ।
(3) बच्चों की शिक्षा, गरीब बच्चों की देखभाल, विकलांग बच्चों की देखभाल को प्राथमिकता।
(4) बच्चों की भलाई से सम्बन्धित कार्यक्रमों के विकास के लिए, विभिन्न संगठनों संस्थाओं से हर सम्भव सहायता लेना ।
अधिकार के लक्षण लॉस्की, वाइल्ड एवं श्रीनिवास शास्त्री ने अधिकार की जो परिभाषाएँ दी हैं उन परिभाषाओं एवं अधिकार की सामान्य धारणा के आधार पर अधिकार के लक्षण कहे जा सकते हैं-
सामाजिक स्वरूप — अधिकार का सर्वप्रथम लक्षण यह है कि अधिकार के लिए सामाजिक स्वीकृति आवश्यक है, सामाजिक स्वीकृति के अभाव में व्यक्ति जिन शक्तियों का उपभोग करता है वे उसके अधिकार न होकर प्राकृतिक शक्तियाँ हैं। अधिकार तो राज्य द्वारा नागरिकों को प्रदान की गई स्वतंत्रता एवं सुविधा का नाम है और इस स्वतंत्रता एवं सुविधा की आवश्यकता तथा उपभोग समाज में ही संभव है। शून्य में व्यक्ति के कोई अधिकार नहीं हो सकते, रॉबिन्सन क्रूसो जैसे व्यक्ति को निर्जन टापू में कोई अधिकार प्राप्त नहीं थे। इसके अतिरिक्त राज्य के द्वारा व्यक्ति को जिस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए अधिकार प्रदान किए जाते हैं उसकी सिद्धि समाज में ही संभव है। इस दृष्टि से भी अधिकार समाजगत ही होते हैं।
कल्याणकारी स्वरूप अधिकारों का संबंध आवश्यक रूप से व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास से होता है। इस कारण अधिकार के रूप में केवल वे ही स्वतंत्रताएँ और सुविधाएँ प्रदान की जाती हैं जो व्यक्तित्व के विकास हेतु आवश्यक एवं सहायक हों। व्यक्ति को कभी भी वे अधिकार नहीं दिये जा सकते जो व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास में बाधक हों । इसी कारण मद्यपान, जुआ खेलना अथवा आत्महत्या अधिकार के अंतर्गत नहीं आता है।
लोकहित में प्रयोग व्यक्ति के अधिकार उसके स्वयं के व्यक्तित्व के विकास एवं संपूर्ण समाज के सामूहिक हित के लिए प्रदान किए जाते हैं। अतः यह आवश्यक होती है कि अधिकारों का प्रयोग किस प्रकार किया जाए कि व्यक्ति की स्वयं की उन्नति के साथ-साथ संपूर्ण समाज की भी उन्नति हो । यदि कोई व्यक्ति अधिकार का इस प्रकार से उपयोग करता है कि अन्य व्यक्तियों अथवा संपूर्ण समाज के हित साधन में बाधा पहुँचती है तो व्यक्ति के अधिकारों को सीमित किया जा सकता है।
राज्य का संरक्षण अधिकार का एक आवश्यक लक्ष्य यह भी है कि उसकी रक्षा का दायित्व राज्य अपने ऊपर लेता है और इस संबंध में राज्य आवश्यक व्यवस्था भी करता है। व्यक्ति को रोजगार प्राप्त होना चाहिए, यह बात व्यक्तित्व के विकास के लिए आवश्यक है और समाज भी इसे स्वीकार करता है, लेकिन राज्य जब तक आवश्यक संरक्षण की व्यवस्था न करे, उस समय तक पारिभाषिक अर्थ में इसे अधिकार नहीं कहा जा सकता है।
सार्वभौमिकता एवं सर्वव्यापकता अधिकार का एक अन्य लक्षण यह भी है कि अधिकार समाज के सभी व्यक्तियों को समान रूप से प्रदान किए जाते हैं और इस संबंध में जाति, धर्म, लिंग तथा वर्ण के आधार पर कोई भेद नहीं किया जा सकता है।
संक्षेप में कहा जा सकता है कि "अधिकार समाज के सभी व्यक्तियों के व्यक्तित्व के उच्चतम विकास हेतु आवश्यक वे सामान्य सामाजिक परिस्थितियाँ हैं जिन्हें समाज स्वीकार- करता है और राज्य लागू करने की व्यवस्था करता है । "
नमस्कार।
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