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आधुनिक भारत मे प्रेस के विकास एवं उसके प्रभाव।(Origin of press in modern india and its effects

आधुनिक भारत मे प्रेस की भूमिका एवं प्रभाव।



किसी भी सभ्य समाज व लोकतांत्रिक राष्ट्र की पहचान उसके स्वतंत्र विचार एवं समृद्ध समाज से होती, लोकतांत्रिक राष्ट्र की आधारभूत स्तंभों में 
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आधुनिक भारत मे प्रेस के विकास एवं उसके प्रभाव।
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लोकतंत्र का चौथा स्तंभ मीडया को ही कहा जाता है, जनता की आवाज को उसके प्रश्न को आगे ले जाने का कार्य करती।

नमस्कार।
मैं अमन कुमार मिश्रा, इस लेख में आप सभी का स्वागत/ अभिवादन करता हु।

आज हम आधुनिक भारत मे प्रेस, के विकास, उसके चरण,शाशन प्रशासन के अंतर्गत प्रेस की प्रभावों का विश्लेषण करेंगे।


भारत मे प्रथम प्रेस की स्थापना 1550 ई. में पुर्तगालियों ने की ,तथा भारत मे प्रथम छपी हुई पुस्तक ईसाई पादरियों के द्वारा प्रकाशित की गई।  1684 ई. में अंग्रेज कम्पनी ने भी बम्बई में एक प्रेस की स्थापना की। परन्तु उसके पश्चात एक सदी तक भारत मे किसी सामाचार- पत्र को आरंभ नही किया गया।

भारत मे/का पहला समाचार-पत्र बंगाल गजट' जो 1780 ई. में जेम्स आगस्टस हिक्की के द्वारा आरंभ किया गया था ,उस समय के तत्कालीन गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स और कलकत्ता स्थित उच्चतम न्यायालय के न्यायधीश   सर एलिजा इम्पे के दोषपूर्ण कार्यो की आलोचना की गई, शाशन प्रशाशन के कमियों को उजागर कर बंगाल गजट समाचार पत्र में छापा जाता रहा, लेकिन सरकार के प्रति उसका आलोचनात्मक दृष्टिकोण सहन नही किया गया। अन्ततः बंगाल गजट का प्रकाशन सरकार ने बन्द करवा दिया। 


परन्तु उसके बाद सामाचार पत्रों में कमी के बजाय वृद्धि हुई। 
1884 ई. में कलकत्ता गजट
1785 ई. में ओरिएंटल मैग्जीन ऑफ कलकत्ता'
1788 ई. में मद्रास कैरियर
1789 ई. में बम्बई हेराल्ड

आदि समाचार पत्रों का आरंभ हुआ, परन्तु इन समाचार पत्रों न सरकार अथवा उसके शाशन प्रशाशन अधिकारियों की दोषपूर्ण कार्यो की आलोचना करने का कार्य नही किया, जिस संस्था से आंग्रेजी कम्पनियों के लोगो को  फायदा था, फिर भला उसे क्यों बन्द करते,  अधिकांशतया समाचार पत्रों का वितरण, एंग्लो भारतीयों अंग्रेज तथा कम्पनी समर्थित संथाओ और वेक्तियो तक सीमित रह।   इस कारण इन समाचार पत्रों के प्रकाशन को सरकार बन्द नही किया, जिसके कारण, इस तरह की बहुत से छोटे बड़े प्रेस की स्थापना हुई।


1785 ई. में एक साप्ताहिक समाचार पत्र 'बंगाल जनरल ' प्रकाशित हुआ करता था, 1991 ई. में उसे  विलियम ड्यूएन नामक वेक्ति ने खरीद लिया,। उसने कुछ। आलोचनात्मक लेख  निकाले उस समय के शासन -प्रशाशन को देखते हुए, जिसका असर यह हुआ कि तत्कालीन गवर्नर जनरल, कार्नवालिस से उसके सबन्ध खराब हो गए, बाद में कार्नवालिस के जाने के  भारत के गवर्नर जनरल  सर जॉन शोर ने उसके समाचार पत्र को बन्द करा दिया।


1995 ई. में चार्ल्स मैकलीन ने 'बंगाल- हाराकारु' नाम से एक साप्ताहिक समाचार पत्र कलकत्ता से प्रकाशित किया। परन्तु  1798 में सरकार से मतभेद हो जाने के कारण उसे भी बन्द करना पड़ा।

इस समय तक कंपनी सरकार ने कोई कानून बनाकर समाचार पत्रों की स्वतंरता पर बाधा नही लगाई थी, और सायद  ऐसा इरादा भी उस समय तक नही था,  वो कहते है न जब बात से ही बात बन जाय फिर लाठी क्यों निकालनी'


लेकिन अब यह लाठी निकलने वाली थी, क्योकि , लॉर्ड वेलेजली के समय मे आरम्भ हुआ 1799 ई. में फ्रांसीसी आक्रमण के भय के कारण लॉर्ड वेलेज़ली ने तत्कालीन समाचार पत्रों पर कुछ प्रतिबंध लगा दिए  थे, उसने आदेश दिया कि प्रत्येक सामाचार - पत्र की प्रतिलिपि पर उसके स्वामी ,सम्पादक और मुद्रक का नाम दिया जाय और उसके वितरण से पूर्व उसकी एक प्रति सरकार के सचिव को उसकी स्वीकृति के लिए दिए जाय।

1870ई. में इस कानून के अंतर्गत पुस्तको मैगजीन, पोस्टर ,आदि को भी सम्मिलित कर लिया गया।


लॉर्ड हेस्टिंग्ज समाचार-पत्रों की स्वतन्त्रता के पक्ष में था। 1813 ई. में उसने लॉर्ड इलेजली द्वारा समाचार-पत्रों पर लगाये गये प्रतिबन्धों को ढीला कर दिया और 1818 ई. में अभी प्रतिबन्ध हटा दिये यद्यपि उनसे यह अवश्य कहा गया कि वे न्यायाधीशों और बिशपों के व्यक्तित्व पर कोई आक्रमण न करें, कम्पनी के सम्मान पर आघात न करें, किसी की धार्मिक भावनाओं को ठेस न पहुँचायें और जन साधारण के दिमाग में सरकार के प्रति कोई सन्देह जाग्रत न करें। सरकार की इस उदार नीति के परिणामस्वरूप समाचार-पत्रों की संख्या में वृद्धि हुई। 1818 ई. में जे. एस. कनिंघम ने 'कलकत्ता जनरल' और 1821 ई. में सेमुअल जेम्स ब्राइस ने 'जान बुल इन दी ईस्ट' नामक समाचार-पत्र को आरम्भ किया ।

19वीं सदी के आरम्भ में भारतीयों ने भी समाचार-पत्रों के प्रकाशन- क्षेत्र में प्रवेश किया । 1816 ई. में गंगाधर भट्टाचार्य ने 'बंगाल गजट' नामक एक साप्ताहिक समाचार-पत्र आरम्भ किया। 1818 ई. में मार्शमेन ने बंगाली के प्रथम समाचार पत्र 'दिग्दर्शन' को आरम्भ किया यद्यपि वह अधिक समय न चल सका। परन्तु उसी वर्ष उसी के द्वारा आरम्भ किया गया साप्ताहिक - पत्र 'समाचार दर्पण' अधिक सफल रहा और उसका प्रचलन पर्याप्त समय तक रहा। 1821 ई. में राजा राममोहन राय के प्रोत्साहन से एक साप्ताहिक - पत्र 'संवाद कोमुदी' आरम्भ हुआ। स्वयं उन्होंने फारसी में 'मिरात-उल-अखवार' और अंग्रेजी में 'ब्रह्मानिकल मैगजीन' को आरम्भ किया। उनके विचारों का विरोध करने के लिए कुछ व्यक्तियों ने एक अन्य समाचार पत्र 'समाचार - चन्द्रिका' को आरम्भ किया। आरम्भ में इन समाचार-पत्रों के विषय, धर्म और समाज रहे परन्तु बाद में इनमें राजनीतिक समस्याएँ और सरकारी कर्मचारियों से सम्बन्धित चर्चाएँ भी उपनी आरम्भ हुई। सरकार उनकी इस गतिविधि को पसन्द कर कर सकी। 1823 ई. में उसने समाचार-पत्रों पर पुनः प्रतिबन्ध लगाये इनके द्वारा यह निश्चित किया गया कि प्रत्येक समाचार-पत्र को प्रकाशन के लिए सरकार से स्वीकृति लेनी होगी। ऐसा न करने वाले पर 400 रु. जुर्माना और उसके प्रेस को सरकार जब्त किये जाने की व्यवस्था की गयी। गवर्नर जनरल को यह अधिकार भी दिया गया कि किसी भी समय वह किसी भी समाचार-पत्र के प्रकाशन को बन्द कर सकता था ।



1826 ई. में पं. जुगलकिशोर शुक्ल व मनु ठाकुर ने हिन्दी की देवनागरी लिपि में प्रकाशित होने वाले प्रथम समाचार पत्र 'उदन्त मार्तण्ड' को आरम्भ किया। उन्होंने सरकार को आवश्वासन दिया कि वे सरकार-विरोधी कोई समाचार नहीं छापेंगे। इससे सरकार ने उस समाचार पत्र के वितरण पर होने वाले डाक खर्च से भी उसे मुक्त कर दिया । परन्तु तब भी वह समाचार-पत्र सफल न हो सका और 1827 ई. में उसे बन्द करना पड़ा ।

*1835-37 ई. के मध्य सर चार्ल्स मेटकाफ ने गवर्नर-जनरल के पद पर कार्य किया। उसने समाचार-पत्रों पर लगे हुए सभी प्रतिबन्धों को हटा दिया। इससे 1856 ई. तक समाचार-पत्रों की संख्या में वृद्धि होती गयी। इस समय में बम्बई से गुजराती में दो प्रमुख समाचार-पत्र आरम्भ हुए—'रफ्त—गोफ्तार' और 'अखबारे सौदागर' । इनमें से 'रफ्त-गोफ्तार' का सम्पादन उदार राष्ट्रीय नेता दादाभाई नौरोजी ने किया था ।

1 विद्रोह के कारण 1857 ई. में सरकार ने समाचार-पत्रों पर पुनः प्रतिबन्ध लगाये। समाचार-पत्रों को प्रकाशन के लिए सरकार से अनुमति प्राप्त करना आवश्यक कर दिया गया । सरकार उस अनुमति को किसी भी समय वापस भी ले सकती थी । परन्तु यह कानून केवल एक वर्ष के लिए बनाया गया था। 1867 ई. में सरकार ने समाचार-पत्रों द्वारा अनुमति प्राप्त करने की इस व्यवस्था को स्थाई कर दिया। यह भी निश्चित किया गया कि प्रत्येक समाचार पत्र की एक प्रति प्रधान स्थानीय सरकारी अधिकारी को उसकी अनुमति प्राप्त करने के लिए प्रदान की जायेगी। 1870 ई. में प्रेस सम्बन्धी कानूनों को अधिक कठोर बनाया गया और इसी हेतु उन्हें इण्डियन पैनल कोड में सम्मिलित कर दिया गया। इसके अतिरिक्त इसी समय में सरकार के समर्थन में अंग्रेज व्यक्तियों के द्वारा कुछ समाचार-पत्र आरम्भ किये गये। इन्हीं में 1861 ई. में बम्बई से आरम्भ किया गया 'टाइम्स ऑफ इण्डिया'; 1865 ई. में इलाहाबाद से आरम्भ किया गया 'पायनियर'; 1868 ई. में मद्रास से आरम्भ किया गया 'मद्रास रेल' और 1875 ई. में कलकत्ता से आरम्भ किया गया 'स्टेट्समैन' थे।

1857 ई. के विद्रोह का एक परिणाम नस्लवाद की भावना का तीव्र होना था। उसका प्रभाव समाचार-पत्रों में स्पष्ट रूप से उभर कर आया। अंग्रेजों द्वारा आरम्भ किये गये। समाचार-पत्रों ने सरकार का समर्थन आरम्भ किया जबकि भारतीयों द्वारा प्रकाशित समाचार-पत्रों ने, जो अधिकांशतया प्रादेशिक भाषाओं में थे, सरकारी अधिकारियों की तीव्र आलोचना करना प्रारम्भ किया। इसके अतिरिक्त, भारतीय समाचार-पत्रों में वृद्धि हुई तथा भारतीयों ने अंग्रेजी में भी समाचार-पत्रों को आरंभ किया। भारतीयों द्वारा अंग्रेजी में छापा गया प्रथम और प्रमुख समाचार-पत्र 'हिन्दू पैट्रियट' था। बंगाली भाषा के समाचार-पत्रों में 'अमृत बाजार पत्रिका', 'शोमप्रकाश', 'बंगवासी' और 'संजीवनी' प्रमुख रहे। 1878 ई. में 'अमृत बाजार पत्रिका' को अंग्रेजी में भी छापना आरम्भ किया गया। मद्रास में 'हिन्दू' अंग्रेजी में छपने वाला प्रमुख


History : EC-2

समाचार-पत्र रहा। 1878 ई. में ही लाहौर से 'ट्रिब्यून' का प्रकाशन आरम्भ हुआ। 1879 हूं में 'इण्डियन हेराल्ड' को आरम्भ किया गया जो उत्तर प्रदेश का मुख्य समाचार-पत्र बना । महाराष्ट्र में मराठी भाषा में 'इन्दुप्रकाश', 'नेटिव ओपीनियन', 'दीनबन्धु' और लोकमान्य तिलक द्वारा आरम्भ किया गया 'केसरी' तथा अंग्रेजी में आरम्भ किया गया साप्ताहिक 'समाचार पत्र 'मराठा' अत्यन्त लोकप्रिय हुए। हिन्दी भाषा में उत्तर प्रदेश का साप्ताहिक समाचार पत्र 'हिन्दुस्तान' प्रमुख बना जिसे मनमोहन मालवीय और प्रतापनारायण मिश्र का सहयोग प्राप्त हुआ। अखिल भारतीय काँग्रेस की स्थापना और 1905 ई. में बंगाल विभाजन के कारण उत्पन्न असन्तोष ने भी समाचार-पत्रों को लोकप्रिय बनाने और उनकी संख्या में वृद्धि करने में सहायता प्रदान की। महात्मा गाँधी ने गुजराती में 'नवजीवन' और अंग्रेजी में 'यंग इण्डिया' को आरम्भ किया। इनके अतिरिक्त भी विभिन्न प्रादेशिक भाषाओं तथा अंग्रेजी में अनेक समाचार-पत्रों का प्रकाशन आरम्भ हुआ। 'हिन्दुस्तान टाइम्स' को 1923 ई. में आरम्भ किया गया।

सरकार ने भारतीय भाषाओं में प्रकाशित समाचार पत्रों पर निरन्तर प्रतिबन्ध लगाने आरम्भ किये। 1878 ई. में लॉर्ड लिटन के समय में पारित 'वर्नाक्यूलर प्रेस कानून' इस दिशा में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण था । इस कानून के द्वारा प्रत्येक मजिस्ट्रेट को यह अधिकार दिया गया कि वह किसी भी समाचार-पत्र के प्रकाशक से एक निश्चित धनराशि सुरक्षा- धनराशि के रूप में जमा करा सकता था और यदि कोई समाचार-पत्र कोई ऐसा समाचार प्रकाशित करता, जिससे भारत की शान्ति भंग होने की आशंका हो या भारत सरकार की हानि हो तो वह उसकी सुरक्षा धनराशि (Security) को जब्त कर सकता था। मजिस्ट्रेट की इस कार्यवाही के विरुद्ध कोई भी कानूनी सुरक्षा सम्भव न थी। इस कानून से अंग्रेजी में प्रकाशित समाचार मुक्त थे। इस कानून की कटु आलोचना हुई परन्तु उसका कोई लाभ न हुआ । इस कानून के अन्तर्गत कई समाचार-पत्रों को दण्डित किया गया। अब समाचार-पत्र स्वतन्त्रतापूर्वक समाचार छापने की स्थिति में नहीं रह गये लॉर्ड रिपन ने 1882 ई. में इस कानून को समाप्त किया। 1908 ई. में सरकार ने 'समाचार पत्र कानून' बनाकर पुनः समाचार-पत्रों पर प्रतिबन्ध लगाये। यह भारत में उग्रवाद और आतंकवाद की विचारधारा पर अंकुश लगाने के आशय से किया गया था। इसके द्वारा — (i) प्रत्येक मजिस्ट्रेट को अधिकार दिया गया कि यदि कोई समाचार-पत्र हिंसात्मक कार्यवाहियों को बढ़ावा देने वाला समाचार छापे तो वह उस समाचार-पत्र के प्रकाशन को बन्द कर दे और उसकी सम्पूर्ण सम्पत्ति को जब्त कर लें; (ii) स्थानीय सरकारों को ऐसे समाचार-पत्रों के प्रकाशन को रोकने का अधिकार दिया गया; (iii) समाचार-पत्र के स्वामी को मजिस्ट्रेट की कार्यवाही के विरुद्ध 15 दिन के अन्दर ही न्याय की माँग का अधिकार दिया गया। इस कानून के द्वारा सरकार ने


• सात समाचार-पत्रों की सम्पत्ति को जब्त किया और नौ के प्रकाशन पर अंकुश आरोपित किये। 1910 ई. में एक अन्य भारतीय प्रेस कानून के द्वारा समाचार पत्रों से लेने और उसे जब्त करने की व्यवस्था को पुनः आरम्भ किया। प्रत्येक समाचार-पत्र को अपने प्रकाशन की दो प्रतिलिपियाँ स्थानीय सरकारी अधिकारी के पास भेजने के लिए, बाच्य किया गया । विदेशों से आने वाले समाचार-पत्रों और पुस्तकों पर भी प्रतिबन्ध लगाया गया। समाचार पत्रों को दो माह के अन्तर्गत सरकारी अधिकारी की कार्यवाही के विरुद्ध उच्च न्यायालय ने न्याय मांगने का अधिकार अवश्य दिया गया था। परन्तु वह अधिक लाभदायक सुरक्षा पन

न था। सरकार ने इस कानून के अन्तर्गत 286 समाचार-पत्रों को धमकी दी, 705 समाचार-पत्रों से सुरक्षा-धन की माँग की और कई समाचार पत्रों की धनराशि को जब्त किया। तब भी 20वीं सदी के दूसरे और तीसरे दशक में समाचार-पत्रों की संख्या में वृद्धि हुई।

इनमें से कई समाजवादी अथवा साम्यवादी विचारधारा से प्रभावित थे। समाजवादियों ने 'कांग्रेस सोशलिस्ट' का प्रकाशन आरम्भ किया, जबकि साम्यवादी विचारधारा का नेतृत्व 'न्यू स्मार्क', 'नेशनल फ्रंट' और 'प्यूपिल्स वार' आदि ने किया। 1921 ई. में तेजबहादुर सप्पू के नेतृत्व में समाचार-पत्रों की स्थिति पर विचार करने के लिए एक समिति नियुक्त की गयी। उसकी रिपोर्ट के आधार पर 1908 ई. और 1910 ई. के प्रेस कानून समाप्त कर दिये गये।

परन्तु जब महात्मा गाँधी ने सविनय अवज्ञा आन्दोलन को प्रारम्भ किया तब सरकार ने समाचार-पत्रों की स्वतन्त्रता पर पुनः प्रतिबन्ध लगाये। 1930 ई. में इस सम्बन्ध में एक अध्यादेश जारी किया गया और 1931 ई. में एक 'भारतीय प्रेस कानून' बनाया गया। इससे समाचार-पत्रों की स्वतन्त्रता को काफी सीमित कर दिया गया। द्वितीय महायुद्ध के आरम्भ होने पर सरकार ने 'भारतीय रक्षा कानून' के अन्तर्गत अन्य विशेष अधिकार प्राप्त कर लिये और समाचार-पत्रों की स्वतन्त्रता को पूर्णतया नष्ट कर दिया गया। समाचार-पत्रों को स्वतन्त्रता, 1947 ई. में भारत के स्वतन्त्र हो जाने पर ही पुनः प्राप्त हो सकी।

इस प्रकार भारत में समाचार-पत्रों के विकास और स्वतन्त्रता का इतिहास पर्याप्त संकटपूर्ण रहा विदेशी सरकार की उपस्थिति में ऐसा होना स्वाभाविक भी था परन्तु तब भी भारतीय पत्रकारों ने अपने उत्तरदायित्व की पूर्ति की। उनका प्रमुख कर्तव्य विदेशी सरकार के विरुद्ध दृढ करने में भारतीय प्रेस ने बहुत सहायता दी। इस दृष्टि से भारतीय

को अन्यायपूर्ण नीतियों और कार्यों से भारतीय नागरिकों को अवगत कराना था। इस कार्य की पूर्ति उन्होंने अनेक बाधाओं के होते हुए भी की। भारतीय जनमत को विदेशी सरकार स्वतन्त्रता संग्राम में भी प्रेस का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा। स्वतन्त्रता के पश्चात् 1948 ई. में प्रेस ट्रस्ट ऑफ इण्डिया (P.T.L.) की स्थापना हुई अन्तर्राष्ट्रीय एजेन्सी 'रायटर' के सहयोग से भारत तथा भारत से बाहर भी समाचार भेजता है ।।



आधुनिक भारत में प्रेस पर्याप्त स्वतन्त्र है और जनमत के निर्माण में उनका बहुत योग है। वर्तमान समय में तो प्रेस ने सरकार के वरिष्ठतम सदस्यों को भी आलोचना और अपवादों से मुक्त नहीं छोड़ा है और साहसपूर्ण कदम उठाकर जनमत को ऐसी बातों से भी परिचित कराया है जो पूर्णतया गोपनीय थीं। यह एक ऐसा प्रगतिशील कदम है जो भारतीय प्रेस को एक नवीन दिशा प्रदान कर रहा है और जिसके अनुसार प्रेस का उत्तरदायित्व केवल समाचारों को छापने तक सीमित नहीं रह जाता अपितु जन-जागरण और सामाजिक तथा राष्ट्रीय हित की पूर्ति करना भी उसमें सम्मिलित कर लेता है। परन्तु भारतीय प्रेस की एक कमी भी है अनेक समाचार-पत्र पूँजीपतियों द्वारा ही चलाये जा रहे हैं और इस कारण वे वर्तमान अर्थव्यवस्था पर आक्रमण करने की स्थिति में नहीं हैं, जबकि वस्तुतः स्थिति यह है कि भारत में सम्पन्नता की वृद्धि के साथ-साथ आर्थिक असमानताओं में भी वृद्धि हो रही है जो अन्यायपूर्ण है। इस कारण यह आवश्यक है कि भारतीय प्रेस धन की शक्ति से अपने को मुक्त करके आर्थिक और सामाजिक न्याय की स्थापना के लिए भी जन-जागरण को और उनके पक्ष में एक दृढ़ जनमत बनाये ।

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