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समकालीन भारत में दलित राजनीति पर प्रकाश डालें । (Throw light on the Dalit Politics in Contemporary India.)

परिचय(Introduction)Throw light on the Dalit Politics in Contemporary India.)




दलित राजनितिक की कुटिल चाल की शुरुआत पुणे शहर से होती है The devious trick of dalit politics starts from Pune city


दलित उद्धार का इतिहास 1870 के बाद से शुरू होता है जब पूना में महात्मा ज्योतिबा गोविन्द फूले ने सत्यशोधक समाज की स्थापना की। उन्होंने दलितों को सन्देश दिया कि वे ऊँची जातियों की गुलामी छोड़ दें। उनके सहयोगी गोपाल बाबा कालंगकर ने बहुजन समाज नामक संगठन बनाया। बीसवीं शती में यह आन्दोलन मद्रास व बम्बई प्रान्तों में तजी से चला । मद्रास प्रान्त में डॉ. टी. एम. नायर तथा जी. एन. मुदालियर ने जस्टिस पार्टी (Justice Party) बनाकर ब्राह्मण विरोधी अभियान चलाया। फिर रामास्वामी नायकर ने वहीं दलितों को संगठित करने हेतु स्वाभिमान आन्दोलन (Self Respect Movement) चलाया। ऐसा प्रयास बम्बई में डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने किया। दिसम्बर 1927 में उन्होंने महाड़ में दलितों के सम्मेलन का आयोजन किया और फिर अनुसूचित जाति संघ (Scheduled Castes Federation) की स्थापना की।



25 दिसम्बर, 1927 को माहड़ के दलित सम्मेलन में अम्बेडकर ने मनुस्मृति को जलाया 1 उपस्थित लोगों ने शपथ ली कि-

1. मैं जन्म पर आधारित चतुर्वर्ण व्यवस्था को नहीं मानता हूँ। 

2.मैं जातियों के बीच भेद को नहीं मानता हूँ।

3. मैं यह मानता हूँ कि अस्पृश्यता हिन्दू धर्म के लिए अभिशाप है और मैं इसे मिटाने का सम्भव प्रयास करूँगा ।

4. यह सोचकर कि कोई असमानता नहीं है, मैं कम से कम सभी हिन्दुओं के बीच खान-पान के किसी प्रतिबन्ध का पालन नहीं करूँगा । 

5. मैं यह मानता हूँ कि अछूतों को मन्दिरों, जल संसाधनों, स्कूलों तथा अन्य सुविधाओं में बराबर अधिकार मिलने चाहिए।

आरक्षण युग की शुरुआत यहां से शुरू होती है Reservation era begins from here


1932 में प्रधानमन्त्री मैकडोनाल्ड के साम्प्रदायिक निर्णय के अनुसार दलित जातियों को प्रान्तीय विधान परिषदों में स्थानों का आरक्षण मिल गया।

स्वतन्त्रता से पूर्व मद्रास में दलित जातियों को शिक्षा संस्थाओं में स्थानों का आरक्षण प्राप्त था। 1950 में भारत का संविधान लागू हुआ जिसने कानून के समक्ष समानता स्थापित की तथा धर्म, जाति, नस्ल आदि के आधार पर भेद-भाव को वर्जित किया। मद्रास उच्च न्यायालय के निर्णयानुसार मद्रास के मेडिकल कॉलेजों में दलितों के लिए स्थानों के आरक्षण की व्यवस्था अवैध घोषित की गई। ऐसी स्थिति में वहाँ दलित आन्दोलन शुरू हुआ। प्रधानमन्त्री नेहरू की सरकार ने तुरन्त संविधान में पहला संशोधन करके अनुच्छेद 15 (4) के तहत यह व्यवस्था की कि राज्य अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों तथा सामाजिक व शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े के हितार्थ भेद-भाव की नीति अपना सकता है। इसी के तहत 1951 में अनुसूचित जातियों को 15 प्रतिशत तथा अनुसूचित जनजातियों को 7.5% स्थानों के आरक्षण की व्यवस्था की गई।


अमेरिका में ऐसी व्यवस्था को राज्य की सकारात्मक क्रिया (affirmative action of state) कहते हैं जिसके तहत वहाँ नीग्रो बच्चों को राज्य की ओर से सहायता दी जाती है। इसे 1963 में राष्ट्रपति कैनेडी ने स्वीकृति प्रदान की।

लेकिन अन्य पिछड़े वर्गों को इसका लाभ नहीं मिल सका। ऐसे वर्गों की पहचान करने हेतु 1955 में कालेलकर आयोग (Kalelkar Commission) की रिपोर्ट आई जिसे सर्वसम्मति से न लिखे जाने के कारण नेहरू सरकार ने अस्वीकार किया। फिर 1980 में मण्डल आयोग (Mandal Commission) की रिपोर्ट आई जिसे 1990 में प्रधानमन्त्री वी. पी. सिंह की सरकार ने लागू कर दिया। अब ऐसी जातियों या वर्गों के लोगों को लोक सेवाओं, सार्वजनिक उद्यमों तथा सरकारी सहायता प्राप्त शिक्षा संस्थाओं में 27% स्थानों के आरक्षण की व्यवस्था की गई। सर्वोच्च न्यायालय ने मण्डल केस (1992) के निर्णय में इसे वैध ठहराया ।


1967 के आम चुनावों से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के पतन का इतिहास शुरू होता है। बम्बई प्रान्त में अम्बेडकर की रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इण्डिया काम कर रही थी जिसे कांग्रेस के प्रभाव के कारण उल्लेखनीय सफलता न मिल सकी। लेकिन अब कांग्रेस के गिरते नेतृत्व के कारण 1 स्थानीय, क्षेत्रीय व वर्गीय संगठन उभरने लगे। 1966 में महाराष्ट्र में शिवसेना करो तो 1972 में दलित पैंथर्स पार्टी का जन्म हुआ। इसने दलित लोगों के उभरते हुए कार दिया।


1981 में कांशीराम ने डी. एस-4 बनायी जिसे उन्होंने 1984 में बहुजन समाज पार्टी का नाम दिया। दलित जातियों के शोषण व उत्पीड़न का दुहाई देकर बिहार में लालू प्रसाद यादव ने राष्ट्रीय जनता पार्टी तथा राम विलास पासवान ने लोक जनशक्ति नामक संगठन बना लिये।

यहां पर आंबेडकर की एक कुटिल राजनितिक वक्तिगत स्वार्थ उभर कर सामने आता है Here a crooked political selfishness of Ambedkar emerges.


यह प्रश्न उठता कि दलित कौन है ?The question arises that who is a Dalit?   इसका शाब्दिक अर्थ है दमित या कुचले हुए लोग जो शोषण व उत्पीड़न का शिकार होते हैं। डॉ. अम्बेडकर के शब्दों में, “दलित तत्व जीवर की दशाओं का एक रूप है जिसमें ब्राह्मण विचारधारा से प्रभावित उच्च जातियों के सामाजिक स आर्थिक, सांस्कृतिक व राजनीतिक आधिपत्य के कारण दलितों का शोषण, दमन व हाशियाकरण परिलक्षित होता है ।" इसका सरल अर्थ यह है कि समाज की उच्च जातियों (जैसे— ब्राह्मण, हे क्षत्रिय, वैश्य आदि) को छोड़कर अन्य सभी जातियाँ दलित हैं जो सवर्णों के हाथों शोष व उत्पीड़न सहती हैं तथा समाज में उन्हें छोर पर रख दिया गया है। किन्तु इस पदबन्ध को कई मानक परिभाषा उपलब्ध नहीं है। 

आंबेडकर ने अपने लोकप्रियता को यह सिद्ध करने में युप्योग किया की ब्र्हामन और क्षत्रिय हमेशा तानाशाह रहा है और हमेशा रहेगा/इन तथाकथित बुद्धिजीवी ने आज तक वैदिक ग्रन्थ नहीं पढ़े यह लोग वास्तविकता जानने की कोशिश कभी नहीं करि लेकिन अपने अनपढ़ समर्थकों को यह बात दिमाग तक पहुंचने में अम्बेडकर सफल हुए आंबेडकर को नहीं जन समर्थन था , और नहीं ब्रह्मणो के अलावा कोई लोक विषय

काका साहब कालेलकर कमीशन रिपोर्ट (1955) में भारत न की सभी महिलाओं को दलित वर्ग में रखा गया। मण्डल आयोग ने अपना काम चलाने हेतु 1931 को जनगणना रिपोर्ट में वर्णित 3.743 जातियों को अन्य पिछड़े वर्गों में मान लिया, जबकि उनमें आधी से ज्यादा जातियों का अस्तित्व ही मिट चुका है तथा कुछ जातियाँ अपना विकास करके बहुत अगड़ी हो चुकी हैं।


एक ओर जातिवाद को मनुवाद कहकर उसका खण्डन करना लेकिन दूसरी ओर जातिवाद के नाम पर आरक्षणों को वैध ठहराना दलित राजनीति का विरोधाभासी लक्षण कहा जा सकता है। ऐसी पार्टियाँ दलितों के शोषण व उत्पीड़न के उदाहरणों से उनकी भावनाओं को उकसा कर चुनावों में सफलता पाती हैं तथा गठबन्धन सरकारों में शामिल होकर अपने कार्यक्रम के बिन्दुओं को अमली जामा पहनाने का प्रयास करती हैं। अपने हित साधन की खातिर ऐसे संगठन साम्प्रदायिक संगठनों से तालमेल बिठाकर देश की राजनीतिक स्थिति को संकट पैदा करते हैं।

चुनावी व गैर-चुनावी क्षेत्रों में दलित राजनीति (Dalit Politics in Electoral and Non-Electoral Areas)


दलितों की राजनीति की भूमिका चुनावी व गैर-चुनावी दोनों क्षेत्रों में देखी जा सकती है। पहले हम इसे चुनावी क्षेत्रों में देखेंगे। संविधान के अनुसार लोक सभा, राज्यों को विधान सभाओं तथा स्थानीय स्वशासी निकायों ( नगरपालिकाओं व ग्राम पंचायतों) में अनुसूचित जातियों व अनुसूचित जनजातियों को स्थानों का आरक्षण दिया गया है। ऐसी व्यवस्था अन्य पिछड़े व के लिए नहीं है। लेकिन जब चुनावों से पूर्व पार्टियाँ अपने उम्मीदवारी की सूचियाँ बनाती हैं या जब मन्त्रिपरिषदों का गठन होता है तो यह तत्व अपनी प्रभावी भूमिका निभाता है। जिन क्षेत्रों में ऐसी जातियों की बहुसंख्या होती है, उसी आधार पर उम्मीदवार का चयन होता है। गुप्त रूप से जातिवाद की दुहाई देकर उम्मीदवार को विजयी बनाने का प्रयास किया जाता है मन्त्रिपरिषद् के गठन के समय भी यह ध्यान रखा जाता है, अन्यथा कुछ असन्तुष्ट तत्व विद्रोह करके सरकार को गिरा सकते हैं। चुनाव से पूर्व कुछ जातियाँ अपने लिए आरक्षणों की माँग करती हैं जिन्हें पूरा करने के लिए किसी जाति को अन्य पिछड़ी जातियों की सूची में शामिल किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, राजस्थान में कांग्रेस के बलराम झाखड़ ने जाटों के आग्रह को न मानकर अपनी पराजय का मार्ग खोला, लेकिन भाजपा के नेतृत्व ने कुछ जातियों (जैसे—जाट, विश्नोई, मेव आदि) को अन्य पिछड़ी जातियों में शामिल करा दिया।

ऐसी राजनीति को गैर-चुनावी क्षेत्रों में भी देखा जा सकता है। दलितों के संगठन आग्रह करते हैं कि अमुक विश्वविद्यालय का नाम बदलकर अम्बेडकर विश्वविद्यालय किया जाए या न उनके किसी नेता के नाम पर किसी सार्वजनिक मार्ग या पार्क या स्मारक बनाए जायें। शिक्षा संस्थाओं तथा निजी या गैर-सरकारी संस्थाओं में भी उन्हें आरक्षण का लाभ दिया जाए। उदारीकरण के दौर में राज्य का कार्य क्षेत्र सिमट रहा है, सरकारी सेवाओं की संख्या घट रही है, अतः दलित संगठन माँग कर रहे हैं कि गैर-सरकारी या निजी क्षेत्र में भी उनके लिए स्थानों ग का आरक्षण किया जाए।


जनवरी 2002 में भोपाल में दलितों का सम्मेलन हुआ जहाँ 21वीं शती में दलितों के लिए मार्ग का निरूपण सम्बन्धी प्रस्ताव पास हुआ। इसके मुख्य बिन्दु हैं— 

1. अपने सामाजिक-आर्थिक अस्तित्व के लिए हर दलित परिवार को पर्याप्त कृषि भूमि दी जाए 

2. कृषि में लगे दलित श्रमिकों को लैंगिक भेद-भाव के बिना पर्याप्त मजदूरी दी जाए। 

3. दलित महिलाओं को विशेष कोटि में रखकर उनके विकास हेतु प्रयास किया जाए। 

4. 1976 के बन्धुआ श्रम उन्मूलन कानून को कठोरता से लागू किया जाए।

5. जीवन के अधिकार सम्बन्धी वस्त्र, भोजन, पेयजल, सामाजिक सुरक्षा, आवास आदि विषयों
को मौलिक अधिकारों की सूची में शामिल किया जाए।

6. सभी दलितों को अनिवार्य व निःशुल्क उच्च शिक्षा सुनिश्चित की जाए तथा उन्हें छात्रवृत्तियाँ

एवं व्यवसायोन्मुख शिक्षण व प्रशिक्षण दिया जाए। 

7. 1989 के हरिजन कानून को कठोरता से लागू किया जाए, ताकि दलितों पर होने वाले अत्याचारों को रोका जा सके।

8. निजी, गैर-सरकारी या अर्द्ध-सरकारी संस्थाओं व निकायों में दलितों को स्थानों का आरक्षण दिया जाए। 

9. उच्च-स्तरीय न्यायपालिका तथी सैनिक बलों में भी दलितों को पर्याप्त आरक्षण की व्यवस्था
की जाए।

10. दो वर्षों के भीतर सरकार अपना श्वेत पत्र छापकर बताए कि पिछले 25 वर्षों में दलितों के कल्याण हेतु क्या काम किया गया है जिस पर संसद व विधान सभाओं में बहस हो । दलितों के लिए आरक्षित रिक्त स्थानों को दलितों से तुरन्त भरा जाए।

अब दलित संगठनों ने अपना विस्तृत कार्यक्रम घोषित कर दिया। ऐसे कार्यक्रम को लागू करने के लिए कानून बनाना चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि सर्वोच्च न्यायालय उसे असंवैधानिक कर रद्द कर दें, अतः 2006 में मनमोहन सिंह की सरकार ने संविधान में संशोधन में 93 किया जिसने अनुच्छेद 15(5) में यह व्यवस्था की है कि राज्य गैर-सरकारी, निजी या सरकारी सहायता न पाने वाली उच्च-स्तरीय शिक्षा संस्थाओं में अन्य पिछड़े वर्गों के लिए 27% स्थानों का आरक्षण कर सकता है। इसे लागू करने हेतु संसद ने कानून बना दिया। ।


लेकिन निजी व सरकारी सहायता प्राप्त न करने वाली मान्य शिक्षा संस्थाएँ ऐसी व्यवस्था का विरोध कर रही हैं। उनका कहना है कि इस व्यवस्था से गुणवत्ता व कार्यकुशलता के तत्वों की हानि होगी । सब कुछ सामाजिक न्याय के नाम पर किया गया है। लेकिन यह न्याय है या अन्याय, इसका निर्णय न्यायपालिका ही कर सकती है। जब मानव संसाधन विकास मन्त्री अर्जुन सिंह ने इस सम्बन्ध में घोषणा की थी, तभी से उनका विरोध चल रहा है। लेकिन इसका समाधान न्यायालय ही कर सकती है।

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