गांधीजी के दर्शन के नैतिक व आध्यामिक आधार की विवेचना करें।
उत्तर- विश्वकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर ने गाँधी जी के विषय में लिखा है- "मुझे गाँधी जी के विषय में महत्वपूर्ण बात यह जान पड़ती है-यद्यपि वे राजनीतिज्ञ, संगठनकर्ता, लोक-नेता एवं नैतिक सुधारक के रूप में श्रेष्ठ हैं, तथापि वे मनुष्य के रूप में इन सबसे श्रेष्ठतर हैं, क्योंकि इनका कोई भी पक्ष एवं कार्य-कलाप उनकी मानवता को मर्यादित नहीं कर पाता है। इस मनुष्य के गुण महान् हैं, पर यह मनुष्य अपने गुणों से अधिक महान् जान पड़ता है ।
( 1 ) धर्म (Religion) — गाँधी जी की धर्म में अडिग आस्था थी। वे इसको मानव-जीवन एवं मानव-समाज का आधारभूत तत्व मानते थे, जिसके अभाव में इन दोनों का शून्य एवं निष्प्राण हो जाना अनिवार्य है। इसीलिए, धर्म उनके प्रत्येक कार्य एवं प्रत्येक शब्द का प्रधान प्रेरक था। इस सम्बन्ध में स्वयं गाँधी जी ने कहा था—"जब से मैंने यह जाना है कि सार्वजनिक जीवन क्या है, तब से मेरे प्रत्येक कार्य एवं शब्द के मूल में पूर्ण धार्मिक भावना रही है।"
धर्म से गाँधी जी का अभिप्राय संकुचित, औपचारिक या साम्प्रदायिक धर्म से नहीं है। धर्म से उनका जो अभिप्राय है, उसका स्पष्टीकरण स्वयं गाँधी जी के शब्दों में इस प्रकार किया जा सकता है- "धर्म से मेरा अभिप्राय औपचारिक या रूढ़िगत धर्म से नहीं है, वरन् उस धर्म से है, जो सब धर्मों की बुनियाद है। धर्म का अर्थ-सम्प्रदायवाद नहीं है। यह विश्व के व्यवस्थित नैतिक शासन में विश्वास है। यह हिन्दुत्व, इस्लाम, ईसाईयत आदि से परे है। यह मानव-समाज का शाश्वत तत्व है, जो अपनी सम्पूर्ण अभिव्यक्ति के लिए कोई भी मूल्य चुकाने के लिए तैयार रहता है।"
(2) नैतिकता (Morality)- गाँधी ने धर्म एवं नैतिकता में कोई अंतर नहीं माना है। उनका विश्वास है कि धर्म ही व्यक्ति की समस्त क्रियाओं को नैतिक आधार प्रदान करता है, जिसके अभाव में उसका जीवन एक निरर्थक चीत्कार बनकर रह जायेगा। अपने इसी विश्वास के कारण उन्होंने अपने चिन्तन एवं आचरण को धर्म एवं नैतिकता पर आधारित किया है। धवन के शब्दों में- "गाँधी जी अपने समस्त चिन्तन एवं आचरण को धर्म एवं नैतिकता के सिद्धांतों पर आधारित करते हैं। ये उनके जीवन के प्राण हैं।
(3) ईश्वर (God) -गाँधी जी की ईश्वर के प्रति अगाध श्रद्धा थी। अपनी श्रद्धा को व्यक्त करते हुए गाँधी जी ने एक स्थान पर लिखा है "मेरी दृष्टि में ईश्वर परम सत्य एवं प्रेम है; ईश्वर नीति एवं सदाचार है; ईश्वर निर्भीक है; ईश्वर प्रकाश एवं जीवन का स्रोत है और वह इन सबसे परे एवं ऊपर भी है। ईश्वर अन्तःकरण है। वह नास्तिक की नास्तिकता है, क्योंकि वह अपने निस्सीम प्रेम के कारण उसे रहने देता है। ईश्वर वाणी एवं बुद्धि से परे है जिनको उसके स्पर्श की आवश्यकता है, उनके लिए वह साकार है। वह शुद्धतम मूल तत्व है। वह केवल उनके लिए है, जिन्हें उस पर विश्वास है।
स्वयं गाँधी जी को ईश्वर की सत्ता में अटूट विश्वास था। उनका मत था कि ईश्वर पर विश्वास किये बिना, कोई व्यक्ति न तो अपने ऊपर विश्वास कर सकता है और न दूसरों के ऊपर। उनका कहना था कि यद्यपि ईश्वर निराकार है, तथापि उससे प्रत्यक्ष सम्बन्ध रखना सम्भव है। इस विषय में अपना स्वयं का अनुभव बताते हुए गाँधी जी ने लिखा है-उत्तर देने में मैंने ईश्वर को कभी भी पीछे नहीं पाया। जब-जय क्षितिज मुझे अन्धकारमय दिखायो दिया तब तब ईश्वर मुझे निकटतम दिखायी दिया। मुझे ऐसा एक भी क्षण याद नहीं आता. है, जब मैंने यह अनुभव किया हो कि ईश्वर ने मुझे छोड़ दिया है। मेरो सभी आध्यात्मिक परीक्षाओं में ईश्वर ने मेरी रक्षा की है।
गाँधी जी सत्य एवं ईश्वर में कोई भेद नहीं मानते थे। वे इस बात पर बल देते थे कि यह करने के बजाये कि "ईश्वर, सत्य है।" यह कहना चाहिए कि "सत्य, ईश्वर है", क्योंकि ईश्वर- सत्य होने के साथ-साथ कुछ और भी है। इस सम्बन्ध में गाँधी जी के निम्नांकित शब्द अवलोकनीय हैं—''सत्य' शब्द का मूल सत् है। सत् का अर्थ है होना अथवा सत्य, अर्थात् होने का भाव। सत्य के अतिरिक्त और किसी बात का अस्तित्व नहीं है। अतः ईश्वर का सच्चा नाम-सत् अर्थात् सत्य है। इसलिए, ईश्वर सत्य है, कहने के बजाय सत्य ईश्वर है, यह कहना अधिक उचित है।
Gandhiji's philosophy, ethics, spirituality, thoughts, non-violence is the ultimate religion
(4) आत्मा (Soul)—गाँधी जी का आत्मा में असीम विश्वास था। उनके विचार से आत्मा, ईश्वरीय तत्व है, जिसका अस्तित्व जड़ शरीर पर निर्भर नहीं है। उनका कहना था कि आत्मा की शक्ति सबसे महान् शक्ति है, जिसकी तुलना में समस्त भौतिक शक्तियाँ तुच्छ हैं। उनके सत्याग्रह का सम्पूर्ण सिद्धांत इस धारणा पर आश्रित है कि आत्मा अमर एवं अजेय है और सृष्टि के अधमतम् प्राणी में भी ईश्वर का यह अंश कुछ न कुछ मात्रा में अवश्य होता है, जो दयापूर्ण एवं प्रेमपूर्ण व्यवहार के द्वारा प्रकट हो सकता है।
(5) कर्म व पुनर्जन्म (Duty and Rebirth)- गाँधी जी की हिन्दु धर्मशास्त्रों में वर्णित कर्म एवं पुनर्जन्म के सिद्धांतों में पूर्ण आस्था थी और वे इनको नैतिकता एवं सद्-आचरण का नियम मानते थे। धर्म के सिद्धांत के अनुसार, व्यक्ति जो कर्म करता है, उनके फलों का संक्रमण पुनर्जन्म में भी होता है। गाँधी जी का कहना है कि यद्यपि कर्मानुसार फल प्राप्ति का नियम अटल है तथापि इसका अभिप्राय यह कदापि नहीं है कि व्यक्ति का जीवन एवं कार्य-पूर्व-निर्धारित होते हैं, उनके विचार से कर्म का सिद्धांत स्वतंत्रता का सिद्धांत है, जो व्यक्ति को अच्छे और बुरे कार्यों में चुनाव करने की स्वतंत्रता देता है और इस प्रकार उसे अपने भाग्य का निर्माण करने का अवसर देता है। अतः गाँधी जी का मत है कि व्यक्ति स्वयं अपने भाग्य का निर्माता है।
पुनर्जन्म के सिद्धांत के अनुसार, व्यक्ति का विकास मृत्यु के साथ समाप्त नहीं होता है, वरन् एक के बाद दूसरा जन्म उसके विकास के लिए और उसे पूर्णता की ओर ले जाने के लिए होता है। गाँधी जी का विश्वास था कि पुनर्जन्म, व्यक्ति को पूर्णता प्राप्त करने का अवसर प्रदान करता है, जिसे प्राप्त करने का उसे पूरा पूरा प्रयास करना चाहिए। अतः पुनर्जन्म के सिद्धांत में अपना विश्वास प्रकट करते हुए, गाँधी जी ने लिखा है―"मैं पुनर्जन्म में उतना ही विश्वास करता हूँ जितना अपने वर्तमान शरीर के अस्तित्व में।
(6) आत्मानुभूति (Self-realisation)— गाँधी जी के विचार में मानव जीवन का चरम लक्ष्य – आत्मानुभूति है, जिसका अर्थ है-ईश्वर से साक्षात्कार अथवा निरपेक्ष सत्य का ज्ञान । गाँधी जी की धारणा है कि व्यक्ति इस लक्ष्य को समाज से पृथक् एकान्त में रहकर प्राप्त नहीं कर सकता है। वह इसको समाज में रहकर, इस शर्त पर प्राप्त कर सकता है कि उसमें आत्म-त्याग की भावना हो, क्योंकि यही भावना उसे समाज के हित के लिए व्यक्तिगत हित का बलिदान करने की प्रेरणा दे सकती है। इस प्रकार, गाँधी जी ने समाज अथवा सब व्यक्तियों के अधिकतम हित को व्यक्ति के जीवन का परम लक्ष्य, ध्येय या साध्य माना है।
(7) साध्य व साधन की पवित्रता (Purity of End and Means) - गाँधी जो ने साध्य एवं साधन दोनों की श्रेष्ठता अथवा पवित्रता पर अत्यधिक बल दिया है। फासीवादों एवं साम्यवादी आदि व्यावहारिक राजनीतिज्ञों का विचार है- "साध्य, साधन के औचित्य को दर्शाता है।" उनके विचार का अभिप्राय यह है कि यदि साध्य उचित है, तो उसे प्राप्त करने, के लिए प्रयोग किया जाने वाला किसी भी प्रकार का साधन उचित है।
गाँधी जी ने इस विचार की घोर निन्दा की है। उनका कहना है कि साधन हो साध्य का निर्माण करता है। अतः यदि साधन पवित्र नहीं है, तो साध्य भी पवित्र नहीं हो सकता है। गाँधी जी की मान्यता है कि साध्य एवं साधन का वही सम्बन्ध है, जो चोलो और दामन का है। इसलिए, यदि इनमें से एक अपवित्र है, तो दूसरे का पवित्र होना अनिवार्य है। अपनी में साधन स मान्यता के कारण उन्होंने साध्य एवं साधन, दोनों की शुद्धता अथवा पवित्रता पर अतिशय बल दिया है। इस सम्बन्ध में, स्वयं गाँधी जी ने लिखा है-"जिस अनुपात का अनुष्ठान होगा, बिल्कुल उसी अनुपात में साध्य की प्राप्ति होगी। यह नियम निरपवाद है ।
(8) साध्य-प्राप्ति के साधन (Means of Ends)— पतंजलि के अनुसार, आत्म शुद्धि के के मुख्य साधन निम्नलिखित पाँच यम हैं—
(1) सत्य,
(2) अहिंसा
(3) ब्रह्मचर्य
(4) अस्तेय
(5) अपरिग्रह।
गाँधी जी का विश्वास था कि इन नैतिक साधनों, नियमों अथवा सिद्धांतों का पालन करने में व्यक्ति का चित्त निरंतर निर्मल होता चला जाता है और उसकी आत्मा को बल प्राप्त होता है। अतः इन नियमों का पालन करके, वह मानव-जीवन के चरम लक्ष्य अथवा साध्य (आत्मानुभूति) की प्राप्ति कर सकता है। गाँधी जी ने इन नैतिक नियमों में निम्नलिखित छः नियम और जोड़ दिये थे-
(1) अस्वाद
(2) निर्भीकता
(3) शारीरिक श्रम
(4) सर्व-धर्म-समानता
(5) स्वदेशी का व्रत और
(6) अस्पृश्यता का निवारण।
गाँधी जी इन नियमों को नैतिक व्रत कहते थे और सत्याग्रही एवं अपने आश्रम-वासी को इन 11 व्रतों का पालन करने का उपदेश देते थे। हम इन नैतिक व्रतों का संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित पंक्तियों में कर रहे हैं; यथा
(i) सत्य (Truth)–गाँधी जी ने सत्य एवं ईश्वर के मध्य कोई अंतर नहीं किया है। उनके लिए सत्य ईश्वर है और ईश्वर सत्य है। अतः उन्होंने अपने नैतिक व्रतों में सत्य को शीर्षस्थ स्थान दिया है। उन्होंने सत्य के निम्नलिखित दो भेद किये हैं—(1) व्रत या साधन रूपी सत्य, आंशिक या सापेक्ष सत्य और (2) साध्य रूपी सत्य या निरपेक्ष सत्य निरपेक्ष सत्य, देश एवं काल से परे होता है और इसको जान लेने के बाद और कुछ जानना शेष नहीं रह जाता है।
गाँधी जी ने निरपेक्ष सत्य को ईश्वर के साथ समीकृत किया है। उन्होंने इस सत्य की प्राप्ति को मानव-जीवन का चरम लक्ष्य बताते हुए कहा है कि इससे साक्षात्कार करना प्रत्येक व्यक्ति का परम धर्म है। यह साक्षात्कार–सत्य का शोध एवं ज्ञान प्राप्त करके ही किया जा सकता है। किन्तु, सत्य क्या है ? यह प्रश्न बहुत कठिन है। इस प्रसंग में गाँधी जी ने लिखा है- "यह प्रश्न बहुत कठिन है, पर मैंने स्वयं अपने लिये इसका समाधान कर लिया है। तुम्हारी अन्तरात्मा जो कहती है, वही सत्य है ।"
परंतु, सब व्यक्तियों की अंतरात्मा सत्य बात नहीं कहती है। दुष्ट व्यक्ति को अन्तरात्मा बुरी और अनुचित बात को भी अच्छी और उचित अथवा सत्य बताती है। अतः दुष्ट एवं अपूर्ण व्यक्ति द्वारा निरपेक्ष सत्य से साक्षात्कार किया जाना असम्भव है। इसके लिए अन्तरात्मा की शुद्धि आवश्यक है। यह शुद्धि तभी सम्भव है, जब व्यक्ति अपनी वाणी, विचार और व्यवहार में सत्य का आचरण करे। तभी वह सापेक्ष सत्य के माध्यम से निरपेक्ष
सत्य पर पहुंच सकता है। इस प्रकार, गाँधी जी ने 'सत्य' शब्द का व्यापकतम अर्थ लिया। है और बारम्बार दृढ़तापूर्वक कहा है कि मनसा, वाचा, कर्मणा में सत्य का होना ही सत्य है। (ii) अहिंसा (Non-violence)- गांधी जी का सम्पूर्ण दर्शन, सत्य एवं अहिंसा के पवित्र स्तम्भों पर टिका हुआ है। उन्होंने अहिंसा को सत्य की भाँति शाश्वत, सर्वशक्तिमान और ईश्वर का पर्यायवाची माना है।
अत: उन्होंने सत्य एवं अहिंसा को एक अविभाज्य जोड़ा, एक सिक्के के दो पहलू और अन्योन्याश्रित बताया है। उनका विश्वास है कि प्रत्येक व्यक्ति की आत्मा में सत्य का अस्तित्व होता है और वह स्वयं इसकी खोज कर सकता है। किन्तु, इस खोज में सफलता तभी प्राप्त हो सकती है, जब अहिंसा को साधन के रूप में प्रयोग किया जाय। इस प्रकार, गाँधी जी ने सत्य एवं अहिंसा में साध्य एवं साधन का सम्बन्ध माना है। यह उनका स्वयं का अनुभव है। इसका उल्लेख करते हुए गाँधी जी ने लिखा है..
"अहिंसा रूपी रत्न की खोज, सत्य के अन्वेषण एवं चिन्तन की अवधि में हुई थी।" गाँधी जी ने अहिंसा की व्याख्या करते समय इसके निम्नांकित तीन रूप बताये हैं
(1) वीरों की अहिंसा
(2) दुर्बलों की अहिंसा
(3) कायरों की अहिंसा ।
वीरों की अहिंसा, शक्तिशाली पुरुषों की सक्रिय एवं स्वाभाविक अहिंसा है। वे इसे नीति या आवश्यकता के कारण नहीं, वरन् नैतिकता एवं आन्तरिक विचारों की उत्कृष्टता के कारण स्वीकार करते हैं। यह अहिंसा केवल व्यक्तियों में पायी जाती है, समूहों में नहीं। यह जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में बिना किसी अपवाद के लागू होती है। गाँधी जी का कहना है कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का स्वतंत्रता आंदोलन इस प्रकार की अहिंसा पर आधारित नहीं था।
दुर्बलों को अहिंसा, असहायों की निष्क्रिय अहिंसा है। इसका कोई नैतिक आधार नहीं है और यह जीवन के किसी विशेष क्षेत्र में नीति के रूप में स्वीकार की जाती है। व्यक्ति केवल अपनी शक्तिहीनता के कारण इसको ग्रहण करते हैं। अतः इसमें यह भय रहता है। कि यह किसी भी समय हिंसा का रूप धारण कर सकती है। इसे सामान्यतया व्यावहारिक अहिंसा कहा जाता है। गाँधी जी ने इस अहिंसा को "निष्क्रिय प्रतिरोध" की संज्ञा दी है। उनका विचार है कि ईमानदारी से प्रयोग किये जाने पर इस अहिंसा द्वारा वांछित लक्ष्य की प्राप्ति की जा सकती है। इसीलिए, भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में इसका प्रयोग किया गया। था।
कायरों की अहिंसा, भय पर आधारित होने के कारण वास्तव में अहिंसा नहीं है। इसे केवल भ्रमवश अहिंसा कहा जाता है। गाँधी जी ने इस अहिंसा को "निष्क्रिय हिंसा" (Passive) की संज्ञा दी है। उनका कहना है कि यदि हमारे हृदय में हिंसा है, तो अपनी नपुंसकता को अहिंसा के आवरण से ढकने के बजाय हिंसक होना कहीं अधिक अच्छा है।
गाँधी जी की अहिंसा की दो मुख्य विशेषताएँ हैं-अहिंसा के सामान्य अर्थ में परिवर्तन और अहिंसा के क्षेत्र का विस्तार। अहिंसा का सामान्य अर्थ है-किसी जीवधारी को किसी प्रकार का शारीरिक कष्ट न देना और उसकी हत्या न करना। गाँधी जी अहिंसा के इस अर्थ को स्वीकार अवश्य करते हैं, पर वे इस अहिंसा का पूर्ण अर्थ न मानकर, आशिक अर्थ मानत हैं। उनका विचार है कि अहिंसा का अर्थ किसी की हिंसा न करना अवश्य है, पर इसका अर्थ इसके अतिरिक्त कुछ और भी है। अपने इसे विचार के कारण उन्होंने अहिंसा के अर्थ को उसके निषेधात्मक पक्ष तक सीमित न मानकर, उसके विधेयात्मक पक्ष को भी मान्यता दी है।
अहिंसा के सामान्य, प्रचलित एवं परम्परागत अर्थ में परिवर्तन करके, गाँधी जी ने अहिंसा के क्षेत्र को व्यापक एवं विस्तृत बनाया है। उन्होंने दृढतापूर्वक यह विचार अंकित किया है कि अहिंसा केवल वैयक्तिक या पारिवारिक क्षेत्र की संकीर्ण परिधि में ही सौमित नहीं है, वरन् सम्पूर्ण मानव-समाज उसके परिवेश में समाविष्ट है। उन्होंने अहिंसा की परिधि को विस्तृत करके, उसे सामाजिक, राजनीतिक, सार्वजनिक आदि सभी क्षेत्रों में अन्याय एवं अत्याचार का प्रतिकार करने का शक्तिशाली अस्त्र बनाकर, सीमा रहित एवं सार्वभौमिक रूप प्रदान किया है। इस सन्दर्भ में निम्नांकित अवतरण अवलोकनीय है/
गाँधी जी के अनुसार, "जब कोई मनुष्य अहिंसक होने का दावा करता है, तब उससे आशा की जाती है कि वह उस मनुष्य पर भी क्रोध नहीं करेगा, जिससे उसे चोट पहुँची है। वह उसकी कोई बुराई नहीं चाहेगा और उसकी कल्याण-कामना करेगा। वह गलती करने वाले द्वारा दी जाने वाली सब प्रकार की यंत्रणा सहन करेगा। पूर्ण अहिंसा समस्त जीवधारियों के प्रति दुर्भावना का पूर्ण अभाव है। इसलिए, यह मानवेतर प्राणियों, यहाँ तक कि विषधर कीड़ों और हिंसक पशुओं तक का आलिंगन करती है।"
(iii) ब्रह्मचर्य (Brahmacharya)— गाँधी जी ने सत्याग्रही के नैतिक अनुशासन में ब्रह्मचर्य को महत्वपूर्ण स्थान दिया है। साधारणत: ब्राह्मचर्य व्रत का पालन करने वाले से अपनी काम वासना पर नियंत्रण रखने और विवाह बंधन में न बँधने की आशा की जातो है। गाँधी जी ने ब्रह्मचर्य की इस धारणा को पूर्ण रूप से स्वीकार नहीं किया। यद्यपि उन्होंने ब्रह्मचर्य का विवेचन, नैतिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि से किया है तथापि उन्होंने मानव-दुर्बलताओं की उपेक्षा नहीं की है। उनका मत है कि यद्यपि पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करना प्रत्येक व्यक्ति के लिए सम्भव नहीं है तथापि उसके द्वारा ब्रह्मचर्य के सामान्य नियमों के अनुसार आचरण किया जाना असम्भव नहीं है। अतः उन्होंने इन नियमों का पालन करने वाले के लिए विवाह का निषेध नहीं किया है। इस सम्बन्ध में उनका तर्क यह है कि यदि सब मनुष्य अविवाहित जीवन व्यतीत करने लगेंगे तो सृष्टि समाप्त हो जायेगी।
(iv) अस्तेय (Non-Stealing) - अस्तेय का अर्थ है-चोरी न करना (non stealing)। गाँधी जी ने अपने आर्थिक विचारों में इसे नैतिक सिद्धांत के रूप में मान्यता दी है। उन्होंने इसकी विस्तृत व्याख्या भी की है। उनकी धारणा है कि अस्तेय का अर्थ केवल यह नहीं है कि किसी व्यक्ति की किसी वस्तु की चोरी न की जाय, वरन इसका अर्थ यह भी है कि हमें जिस वस्तु की आवश्यकता नहीं है, उसे अपने पास रखना चारी है। इस प्रकार, अस्तेय से गाँधी जी का अभिप्राय है- आवश्यकता से अधिक या आवश्यकता न होने पर भी किसी वस्तु को प्राप्त करना चोरी के समान है।
इस नैतिक नियम अथवा सिद्धांत के द्वारा गाँधी जी ने केवल उन्हीं वस्तुओं पर व्यक्ति के स्वामित्व को स्वीकार किया है, जिनकी उसको वास्तव में आवश्यकता है। यदि वह उनसे अधिक वस्तुओं को प्राप्त या संचय करने का प्रयास करता है तो उसका यह प्रयास चोरी के तुल्य है। गाँधी जी का विश्वास है कि अस्तेय व्रत का पालन करने वाला व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं को धीरे-धीरे कम कर लेता है और उसे भविष्य में प्राप्त की जाने वाली वस्तुओं की चिन्ता नहीं रहती है। उनका यह भी विश्वास है कि संसार का अधिकांश दु:खदायी दारिद्र, व्यक्तियों द्वारा अस्तेय व्रत का पालन न करने से उत्पन्न हुआ। है/
(v) अपरिग्रह (Non-Possession) — अपरिग्रह का अर्थ है-संग्रह न करना। गाँधी जी ने अपने आर्थिक विचारों में अस्तेय की भाँति अपरिग्रह को भी नैतिक सिद्धांत के रूप में मान्यता दी है । उनका कहना है कि हमें उन वस्तुओं का संग्रह नहीं करना चाहिए, जिनकी हमको भविष्य में आवश्यकता नहीं है। यदि हम इस प्रकार का संग्रह करते हैं, तो यह सर्वथा अनुचित कार्य है।
गाँधी जी ने सविश्वास कहा है कि वर्तमान समाज में अपरिग्रह (भविष्य के लिए संग्रह न करना) का स्थान, परिग्रह (भविष्य के लिए संग्रह करना) ने ले लिया है। परिग्रह ने समाज में आर्थिक विषमता को जन्म दिया है। एक ओर तो धनवानों ने ऐसी वस्तुओं का संग्रह कर लिया है, जिनकी उनको तनिक भी आवश्यकता नहीं है, और दूसरी ओर लाखों व्यक्ति, जिनको इन वस्तुओं की आवश्यकता है, इनके अभाव के कारण कष्ट भोग रहे हैं। इस आर्थिक विषमता का निवारण करने का सरल उपाय यह है कि धनी व्यक्ति, परिग्रह से अपना संम्बन्ध विच्छेद कर लें। पर क्योंकि गाँधी जी जानते थे कि वे ऐसा नहीं करेंगे, इसलिए उन्होंने सम्पत्ति के समान वितरण पर बल न देकर, सम्पत्ति के औचित्यपूर्ण वितरण का अनुमोदन किया।
(vi) अस्वाद (Control of Palate)- अस्वाद का अर्थ है- स्वाद की वृत्ति से छुटकारा पाना । गाँधीजी ने अपने दर्शन में अस्वाद को स्वतंत्र व्रत का स्थान दिया है। उनका मत है कि अधिक और स्वादिष्ट भोजन, आत्म-संयम में बाधक है। अतः व्यक्ति का भोजन कम और सादा होना चाहिए। उसे खाने के लिए नहीं जीना चाहिए, वरन् जीने के लिए खाना चाहिए ।
(vii) निर्भीकता (Fearlessness)— गाँधी जी ने सत्य एवं अहिंसा के पालन के लिए निर्भीकता को अनिवार्य माना है। उनका कहना है कि व्यक्ति निर्भय होकर ही सत्य एव अहिंसा के गुणों का विकास कर सकता है। अतः उसे ईश्वर के अतिरिक्त किसी अन्य से भयभीत नहीं होना चाहिए। गाँधी जी के विचारानुसार, भय—कायरता का द्योतक है और कायरता सबसे बड़ी हिंसा है।
(viii) शारीरिक श्रम (Physical Labour)—गाँधीजी ने व्यक्ति के नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास के लिए शारीरिक श्रम को आवश्यक माना है। उनका विचार है कि प्रत्येक व्यक्ति को कम से कम अपनी रोटी के लिए शारीरिक श्रम करना अपना कर्तव्य समझना चाहिए। उनका विश्वास है कि यदि व्यक्तियों में कर्तव्य की यह भावना उदय हो जायेगी, तो आज के समाज में दिखायी देने वाला ऊँच-नीच का अन्यायपूर्ण भेद-भाव समाप्त हो जायेगा। गाँधी जी ने अपने आर्थिक विचारों में शारीरिक श्रम को महत्वपूर्ण स्थान दिया है।
(ix) सर्व धर्म समानता (Equality of all Religions)— गाँधी जी ने नैतिक, अनुशासन में सर्व-धर्म समानता के सिद्धांत पर विशेष बल दिया है। इस सिद्धांत से उनका अभिप्राय यह है कि व्यक्ति को सब धर्मों को समान समझना चाहिए और सबका समान रूप से आदर करना चाहिए। इस सम्बन्ध में गाँधी जी का तर्क यह है कि क्योंकि ईश्वर एक है, इसलिए सम्पूर्ण संसार के व्यक्तियों का धर्म भी एक होना चाहिए। पर क्योंकि व्यवहार में सब व्यक्ति एक से नहीं होते हैं, इसलिए उनकी ईश्वर-सम्बन्धी धारणा भी एक नहीं हो सकती। यही कारण है कि संसार में विभिन्न धर्म रहे हैं और रहेंगे। इस प्रकार, गाँधी जी ने विभिन्न धर्मों के अस्तित्व को तो स्वीकार किया है, परंतु इस बात पर बल दिया है कि धर्म के कारण व्यक्तियों में पारस्परिक द्वेष एवं संघर्ष न होकर, एक-दूसरे के प्रति सद्भाव एवं सहिष्णुता की भावना होनी चाहिए।
अतः गाँधी जी ने अपने सर्व-धर्म समानता के सिद्धांत द्वारा यह विचार प्रतिपादित किया है कि सब व्यक्तियों को सब धर्मों को समान मानकर, सबका समान रूप से सम्मान करना चाहिए। यदि व्यक्ति में इस भावना का अभाव है, तो उसके व्यक्तिगत एवं सामाजिक विकास में बाधा उपस्थित हो सकती है। गांधीजी के शब्दों में, "यदि एक हिन्दू अच्छा और ईश्वरप्रिय व्यक्ति है, तो एक ईसाई को उससे असन्तुष्ट नहीं होना चाहिए। यदि धर्म का किसी व्यक्ति के आचार-विचार से कोई सम्बन्ध न हो, तो चर्च, मस्जिद या मंदिर में एक विशेष प्रकार से उपासना करना एक खोखली बात है। यह व्यक्तिगत एवं सामाजिक विकास में बाधक हो सकती है।
(x) स्वदेशी का व्रत - गांधीजी के दर्शन में स्वदेशी का व्रत अत्यन्त महत्वपूर्ण है। स्वदेशी का अर्थ है-वह वस्तु जो अपने देश को हो, या अपने देश में बनी हो। गांधी जो ने स्वदेश का अर्थ बताते हुए लिखा है-"स्वदेशी हमारे अंदर की वह भावना है जो हम पर यह प्रतिबन्ध लगाती है कि हम अधिक दूर के वातावरण के बजाय पास के वातावरण का उपयोग करें और उसकी सेवा करें।" इससे गांधी जो का अभिप्राय यह है कि हमें निकटवर्ती पड़ोसी को विस्मृत करके, दूर के पड़ोसी की सेवा नहीं करनी चाहिए।
गांधी जी की सम्पूर्ण विचारधारा, स्वदेशी के सिद्धांत से ओत-प्रोत है और उन्होंने इसे उच्च कोटि की आध्यात्मिक देशभक्ति का स्थान दिया है। इसका विस्तृत विवेचन करते हुए, धवन (Dhawan) ने लिखा है-"स्वदेशी का अर्थ यह है कि हमें अन्य देशों की अपेक्षा अपने देश की सेवा करनी चाहिए और अपने देश में दूर के स्थानों की अपेक्षा अपने निकटवर्ती पड़ोसी की सेवा करनी चाहिए। स्वदेशी के सिद्धांत की यह भी माँग है कि हम अपने देश के आदेशों एवं संस्थाओं को स्वीकार करें। किन्तु इसका अभिप्राय यह नहीं है कि हममें सुपरिचित आदर्शों एवं संस्थाओं के प्रति अन्य-भक्ति होनी चाहिए। इसके विपरीत, इसका अभिप्राय यह है कि हमें उनके प्रति ऐसा प्रेम होना चाहिए, जो अच्छाई और बुराई को परख सके, जो आवश्यकता पड़ने पर उनका सुधार एवं विकास करे और जो अन्य व्यक्तियों की स्वस्थ एवं हितप्रद विशेषताओं को स्वीकार कर सके ।"
(xi) अस्पृश्यता का निवारण (Discarding of Untouchability)-
गांधी जी ने अपने दर्शन में अस्पृश्यता के निवारण को महत्वपूर्ण स्थान दिया है और हिन्दू समाज में प्रचलित छुआछूत की प्रथा का घोर विरोध किया है। उन्होंने इस प्रथा को हिन्दू समाज के लिए भयंकर कलंक और राष्ट्रीय एकता के लिए महान् बाधा बताया है।
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