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विजयनगर और बहमनी काल तथा पुर्तगालियों का आगमन (1350- 1565) सुध्य हिंदी भाषा मे। Vijayanagara Empire,

विजयनगर  सम्राज्य  (Vijanagra Empire)  साम्राज्य  भारतीय इतिहास के सुनहरे अध्यायों में से एक है,  
इस लेख के माध्यम से मैं कोशिश करूंगा, जो भी तथ्य प्रमाण,हो प्रमाणिकता के साथ आपके समक्ष्य प्रस्तुत कर पाऊ, 

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संस्कृत में ,विजयनगरसम्राज्यम्  कहकर पुकारा जाता है।
जहाँ विघटन की शक्तियों धीरे-धीरे उतर भारत को ग्रस्त कर रही थी,

वही दक्षिण  भारत और दकन में स्थिर  सरकारों का लंबा दौर चला!  भारत के विंध्याचल से दक्षिण भूभाग पर दो सौ वर्षों से अधिक समय तक विजयनगर और बहमनी साम्राज्यों का वर्चस्व रहा, उन्होंने न सिर्फ शानदार  राजधानियों और नगरों को बसाया और उन्हें अनेक भव्य भवनों से सजाया , कानून  और व्यवस्था का भी ध्यान रखा,। वाणिज्य एवं दस्तकारियो का विकास भी हुआ।


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vijayanargar empire fort; pixabey


बहमनी सम्राज्य का विघटन और विजयनगर का विघटन साथ हुआ था बहमनी सम्राज्य के विघटन के लगभग 50 वर्ष बाद बननिहट्टी के युद्ध मे 1565 में उस युद्ध मे विजयनगर साम्राज्य का अंत हो गया था,

इस समय तक दक्षिण भारत पर पुर्तगालियों का आगमन हो चुका था, इस कारण और भारतीय समुद्री क्षेत्रों पर उनकी वर्चस्व जमाने की कोशिश के कारण ,और दूसरी तरफ उतर से मुगलों के आक्रमण, उनके आगमन के कारण भारत का दृश्य ही बदल गया।
विजयनगर - मुगल- पुर्तगाली इनके टकराव की जमीन धीरे धीरे तैयार होने लगी थी, 


◆ • विजय नगर सम्राज्य की स्थापना और बहमनी सम्राज्य के साथ टकराव।

विजयनगर साम्राज्य की स्थापना हरिहर और बुक्का ने की , जो पांच भाइयों के परिवार के अंग थे, अर्थात 5 भाई थे,  

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brothers Harihar and Bukka; pixabay 


  एक कथा के अनुसार वे पहले तो वारंगल के काकितेयो सामंत रहे ओए फिर आधुनिक कर्नाटक में स्थित कंपीली राज्य में मंत्री रहे,

एक मुश्लिम विद्रोही को शरण देने के कारण जब कंपीली  को  मुहम्मद तुगलक ने रौंद दिया तब ये दोनो भाई ( हरिहर बुक्का) कैद हुए, इन्होंने इश्लाम अपनाया और विद्रोहियों से निबटने के लिए वहां नियुक्त किये गए,

इस समय  मदुरै का मुस्लिम सूबेदार ने खुद को स्वतंत्र घोषित कर लिया,  और मैसूर का होयसला शासक और  वारंगल का शाशक भी स्वतंत्र होने का प्रयत्न कर रहे थे,   इस तरह की बगावत अंगड़ाइयां ने हरिहर और बुक्का को अंधेरे कोठरी में एक रोशनी नजर आया,  हरिहर और बुक्का  अपनाया हुआ इश्लाम धर्म   को त्याग दिया, ( सम्भवतः भय ,डर कारण इश्लाम अपनाए होंगे, )

हरिहर बुक्का के अपने गुरु विद्यारण्य के कहने पर वे फिर से हिन्दू धर्म मे शामिल हो गए, आए उन्होंने विजयनगर को अपनी राजधानी बनाया।

हरहिर के राजतिलक को 1336 की घटना बताया जाता है,  इस समय  होयसला और मदुरै दोनो विजयनगर के प्रतिद्वंद्वी/ दुश्मन थे एक दूसरे से टकराव की वजह मदुरै शासक के अत्यंत महत्वकांक्षी सोच, इसने होयसला को हराया तथा उसे निर्ममता से मार डाला।

चुकी इतिहास गावह है एक सम्राज्य का रिक्त स्थान जयदा दिन तक नही रहता, यही वह कारण था, होयसला के हत्या के तुरंत बाद हरिहर और बुक्का ने मिलकर उसके राज्य को अपने मे कर लिया 1346 तक सम्पूर्ण  होयसला  राज्य विजयनगर का अंग बन गया,   हरिहर और बुक्का ने अपने भाइयों के सहयोग भी लिया, जो   विजयनगर साम्राज्य के क्षेत्रीय विस्तार के बाद अलाग अलग क्षेत्रों को संभाल लिया।


इस समय तक विजयनगर का रामेश्वरम तक विस्तार हो चुका था।  1377 तक मदुरै की सल्तनत का सफाया हो चुका था, तमिल प्रदेश चेर ( केरल) प्रदेश भी शामिल थे।
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vijanagara empire ,Bukka Dynasty

उतर से विजयनगर साम्राज्य का सामना बहमनी सम्राज्य से हुआ
● बहमनी सम्राज्य  1347 में अस्तित्व में आया
अफगानिस्तान के रहने वला अलाउद्दीन हसन उसका संस्थापक था,।

यह अफगानी ,भारत के एक गंगू नामक ब्राह्मण की सेवा में रहकर ऊपर उठा, इश्लिये उसे हसन गंगू भी कहलाता था।

सता संभालने के बाद इसने हसन बहन शाह की उपाधि धारण की, कहा जाता है,ईरान के एक पौराणिक कथा का नायक, बहमन शाह का वंसज था।

● चुकी अपना नाम बहमन शाह करने के पीछे उसका उद्देश्य ब्राह्मणों के प्रति अपनी श्रद्धा दिखाना था,  जो भी हो इसी आधार  पर इस सम्राज्य को बहमनी सम्राज्य कहा गया।

विजयनगर और बहमनी सम्राज्य का टकराव  नियमित रूप से हो ही जाती थी,  और यह टकराव तक तक  होते रहे ,जब तक इन दोनों साम्राज्यों का अस्तित्व रहा।

विवाद की मुख्य वजहों में,  किसी का किसी क्षेत्र और अधिकार करना, विवादित मुद्दे में  घुसना, किसी प्रकार,एक दूसरे पर विजय प्राप्त करने की होड़ लगी रहती थी,  और इसमें सवार्धिक नुकसान आम लोगो का हुआ,जैसे उदाहरण,
1367 में बुक्का प्रथम ने विवादित तुंगभद्रा दोआब में मुदुकल किले पर हमला किया, कहा जाता है, बुक्का ने उसमे से एक आदमी जो छोड़ सभी को पूरी छावनी के लोगो को मौत के घाट उतार दिया।।
बुका प्रथम जो एक शक्तिशाकि सम्राट था, थल से लेकर जल तक उसकी सम्राज्य की अधिपत्य फैल चुका था, इशीलए बुक्का प्रथम को ( सागरों की स्वामी कहा जाता है)

जब यह बात बहमनि सम्राज्य तक पहुची, तो बहमनी के सुल्तान आग बबूला हो गया, उसने कसम खाई 1 लाख हिंदुओ को नरसंघार न कर  दु तक तक अपने तलवार को म्यान में नही रखूंगा।

इस युद्ध  में पहली बार  बड़े  पैमाने पर तोप के प्रयोग के प्रमाण मिलते है।
विजयनगर  में  पहली बार बहमनियों ने कत्लेआम किया, विजयनगर सम्राट जंगल  में भाग कर जान बचाया। इस युद्ध मे पुरुष स्त्रियों का वध जारी रहा।

अंततः दोनों तरफ में शासक थक चुके थे, निढाल हो चुके थे, लड़ते मरते, औऱ कोई नतीजा नही निकलता, अन्ततः दोनो ने संधि करने का निर्णय लिया।

बात हुई कि, अब युद्धों में इसतरह से जघन्य, नरसंहार, बर्बरता नही होगी दोनो पक्षो की ओर से,
चुकी, यह संधि 100% तो लागू नही हो पाया लेकिन, अब हर्ष  नरसंहार ,निर्ममता,नही हुई,।बहमनियों के साथ टकरावो में भी कमी आई,




मदुरै की सल्तनत को समाप्त कर दक्षिण भारत मे अपनी इश्थिति और मजबूत कर लिया।उसके बाद का कार्यभार ने संभाला

हरिहर द्वितीय (1377- 1404)

में पूर्वी तट की ओर प्रसार करना सुरु किया इसमें अनेक राजवाड़े जिनमे उलेखनीय  कृष्णा, गोदावरी, कछार, के ऊपरी भाग में रेड्डी तथा निचले भाग में वारंगल के शासक थे।

उतर के शाशक बहमनी और उड़ीसा के शाशक भी इस क्षेत्र में उनकी काफी दिलचस्पी थी,

बात है जब ,दिल्ली पर बहमनी शासक हसन गंगू के संघर्ष में वारंगल शासक ने हसन गंगू की सहायता की, लेकिन बाद में  हसन गंगू के उत्तराधिकारी ने वारंगल पर हमला करके कौलस के दुर्ग और गोलकुंडा के पहाड़ी पर कब्जा कर लिया,
विजयनगर का राज दक्षिण में इतना व्यस्त था कि।वह हस्तक्षेप नही कर पाया,

फिर बहमनी के शाशक ने गोलकुंडा को अपना सीमा घोषित कर दिया, 

वारंगल और बहमनी के शासकों पर न हमला करने की किसी तरह संधि हुई, लगभग 50 वर्षों तक यह संधि चली

विजयनगर और बहमनी सम्राज्य के संघर्षों  का वर्णन काफी विस्तार से है, परीक्षाओं की  दृष्टि से हमारे लिए उतनी महत्वपूर्ण  नही है

हरिहर द्वितीय, बहमनी सम्राज्य से, बेलगाम, और गोवा छीनना उसकी बहुत बड़ी उपलब्धि।थी , हरिहर द्वितीय ने श्रीलंका में भी अपनी मुहिम भेजी थी।

● देवराय प्रथम (1404 - 1422) 

देवराय का समय काल कष्ट भर रहा, इसके कार्यकाल में पुनः तुंगभद्रा दोआब को लेकर युद्ध प्रारंभ हो गया,, बहमनी  सुल्तान, फ़िरोजशाह के हाथों हार  के कारण उसे बहुत से धन भी देने पड़े,   अपनी बेटी का ब्याह, फ़िरोजशाह से करानी पड़ी,

जिस दोआब को लेकर संघर्ष हुआ, तुंगभद्रा दोआब में इश्थित , फ़िरोजशाह को बाँकापुर देने  का वादा करना ।


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tungabhadra doab south india :-magadhias;  

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विवाह में ढोल झाल नाच गाना हुए, सुल्तान के  लिए देवराय द्वितीय, अपने सर्वश्रेष्ट स्वागत समारोह किये, ऊपर के ही मन से था,

लेकिन दक्षिण भारत मे अपनी तरह का पहला राजनीतिक विवाह था 
इस समय तक बहमनी सम्राज्य अपनी शिखर पर था विस्तार लगातार जारी था,

 देवराय प्रथम ने तुंगभद्रा पर एक बांध बनवाया ताकि जल की कमी दूर की जाय नहरों तक पानी पहुचे किसानों के खेत तक जिसे कर सँग्रह बढ़े, कहा जाता है इस बांध से 350000   परादो की वृद्धि हुई,
उसने हरिद्र नदी पर भी एक बांध बनवाया था,

कुछ कारणों के वजह से देवराय द्वितीय (1425-1466) गद्दी पर बैठा

● देवराय द्वितीय (1425-1466)    इस वंश का सबसे प्रतापी एवं महान शासक था,
इसने बखूबी समझा, एक सम्राज्य को कैसे आक्रांताओं से बचाया जा सकता है, सेना को पुनर्गठन किया, दुश्मन के अच्छे गुण अपनी सेना में इस्तेमाल किया, देवराय द्वितीय घोड़े की  महत्व को भली भांति समझता था, बहमनी सेना, में मजबूत पक्ष, तेज  घोड़े ,तीरंदाज, देवराय द्वितीय   अपनी सेना में भी यह बड़े पैमाने पर भर्ती सुरु कर दिया  2000 मुश्लामन तीरंदाजी  भर्ती किये गए, ताकि अन्य सैनिक भी सिख सके। देवराय एक धर्मनिरपेक्ष और सभी धर्मों को स्मामन करने वला शसक था, तो कोई अचरज की बात नही थी, देवराय की सेना में 10000 मुश्लामन सैनिक थे,

देवराय द्वितीय एक संगठित और सशक्त सेना का निर्माण किया।

• उसके अभिलेखों में उसके लिए गजबेतेकर  उपाधि अर्थात हाथियों के सीकरी का उल्लेख  प्राप्त होती है

अपनी सेना कब  साथ देवराय द्वितीय ने 1443 में तुंगभद्रा को पार किया, और मुदुकल, बाँकापुर को पुनः पाने का प्रयास किया,  लेकिन फिर वही दोनो पक्षो में से किसी का निष्कर्ष नही निकला,  मौजूदा सीमाओं के साथ ही सहमत होना पड़ा


पुर्तगाली  लेखक नूनीज का कहना है,  क्वीलोन। (श्रीलंका) पुलिकट, बर्मा,तथा पेंगु्  तेननसेरिम के राजा उन्हें, खिराज  देते थे,

यह उपहार भी हो सकता है, नही तो क्या देवराय द्वितीय की  नोसेना इतनी ताकतवर बन चुका था, लेकिन यह तथ्य ,  श्रीलंका और कई बार आक्रमण हुए बिना एक मजबूत नौसेना के यह असम्भव है।

देवराय द्वितीय के समय विदेशी यात्री वृतांत।

इटली  के यात्री ,निकोलो कोंती ने 1420 में भारत आया था इसने कुछ इस प्रकार वर्णन किया है:---  नगर का घेरा 60 मील है। ,उसकी दीवारों पहाड़ों तक चली गई है,  इस नगर में शस्त्र धारण करने योग्य 90000 हजार लोगों की होने की अनुमान है, राजा  भारत के अन्य राजाओं से अधिक शक्तिशाली है,

 फरिश्ता यात्री :-- बहमनी  राज घराने के  राजकुमार अपनी वीरता और बल पर अपनी श्रेष्ठता बनाये रखा है,  क्योंकि, शक्ति, संपति, और देश के  विस्तार में  विजयनगर के  देवराय द्वितीय उनसे बहुत आगे है


ईरानी यात्री,अब्दुर्रज्जाक 

:--इसने भारत और  बाहर भी दूर दूर तक यात्रा किया था, देवराय के बारे में  कहता है:---   इस राजा के पास  300 बंदरगाह है  जिनमे हर एक कालीकट बंदरगाह के जितनी बराबर है, 

उसका  प्रादेशिक, विस्तार इतना अधिक है कि थलमार्ग से उसकी यात्रा करने  में तीन महीने लग जाते,  इस राज्य में 11 लाख की सेना थी,  अधिकांस भाग कृषि एवं अधिक उपजाऊ है,

  अब्दुर्रज्जाक  कहता है, उसने अभी तक मे जितनी भी राज्य ,सम्राज्य देखे है उसमे सबसे बेहतर है , राज्य जी बनावट बेजोड़ थी इस बनावट से बहुत प्रभावित था, विषेस जाती के लोग खास जगह  पर रहते थे, विजयनगर के राजा बहुत ही संपतिशाली राजाओं के रूप में मशहूर थे।।अब्दुर्रज्जाक कृष्णदेव राय के बारे मे बहुत से महान औऱ अच्छी बातें कही है जो एक  महान राजा के गुण को दर्शाते हैं।

● विजयनगर साम्राज्य के राजवंश तथा विदेशी यात्री विवरण:--


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● बहमनी सम्राज्य का प्रसार और विघटन।

देवराय द्वितीय की मृत्यु (1446) में हुई 
बहमनी सम्राज्य के सबसे उलेखनीय वेक्ति फ़िरोजशाह बहमनी (1397-1422) था फ़िरोजशाह अपनी धार्मिक ज्ञान से इश्लामिक परिचित था,विज्ञान का प्रेमी था,

फ़िरोजशाह बहमनी का संकल्प ,दकन को भारत की सांस्कृतिक राजधानी बनाने का था।

देवराय द्वितीय की मृत्यु 1446 में हो गई थी,

बहमनी सम्राज्य में एक धका तब लगा जब देवराय प्रथम ने फ़िरोजशाह बहमनी को हरा दिया

● महमूद गाँवा :-

महमूद गाँवा सुल्तान का खास बन गया, सुल्तान ने इसे, मलिक उल तुज्जार की उपाधि दी गई  गाँवा  का आरंभिक जीवन किसी को पता नही है, लेकिन जन्म से वह ईरानी और आरंभ में एक व्यापारी था, 

जल्द ही  महमूद गाँवा बहमनी सम्राज्य के प्रधानमंत्री बन गया ,उसके नेतृत्व में पूरब में और अधिक कब्जा करके बहमनी सम्राज्य को फैलाया

महमूद गाँवा  ने बहुत से आंतरिक सुधार किये, उसने सम्राज्य को  आठ प्रान्तों ( तरफो) में बांटा हर तरफ का शासन एक तरफदार चलाता था,

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 महमूद गाँवा  कला का महान संरक्षक था, उसने राजधानी बीदर में एक शानदार मदरसा बनवाया।

रँगीन खपरैलों से सुसज्जित यह इमारत तीन मंजिल ऊंची थी,तथा इसमें एक हजार अध्यापक और छात्र रह सकते थे।

अमीरों और कुलीनों का आपसी टकराव बहमनी सम्राज्य के सामने मौजूद सवसे दुरूह समस्याओं में से एक था,    गाँवा के पीठ - पिछे उसकी कान भरने

1482 को गाँवा को मरवा डाला इस समय तक गाँवा की उम्र 70 साल थे
गाँवॉ के मरने  के बाद बहुत से राज्य थे उन्होंने अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दिया, जिसमे, गोलकु डा, बीजापुर, अहमदनगर बरार और बीदर, इनमें से अहमदनगर, बीजापुर,और गोलकुंडा के राज्यो ने सत्रहवीं सदी में मुगल साम्राज्य शामिल किए जाने तक दकन की राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई,

बहमनी सम्राज्य ने उत्तर और दक्षिण के बीच सांस्कृतिक सेतु का काम किया, इस तरह विकसित होने वाली सँस्कृति की अपनी विशेषताए थी
जो उत्तर भारतीय संस्कृति से अलग थी उत्तराधिकारी राज्यो ने इन सांस्कृतिक परम्पराओ को जारी रखा और उन्होंने इस काल मे मुगल सँस्कृति के विकास को भी प्रभावित किया। 

● . विजयनगर साम्राज्य का चरमोत्कर्ष और विघटन।।।

जैसा कि हमने बताया, देवराज द्वितीय की मृत्यु (1446) के बाद सम्राज्य में अंदर ही कलह, अफरातफरी रही,  क्योको विजयनगर के ज्येष्ठ पुत्र के उत्तराधिकार का नियम स्थापित नही हुआ था,
समझा जा सकता है कि सम्राज्य में कैसी इश्थिति रही होगी गृहयुद्ध का सिलसिला चल पड़ा था,

विजयनगर की मंत्री  सालुवा ने अफरातफरी में मौका देखकर गद्दी हड़प ली इसके बाद ही पुराने राजवंश की समाप्ति हो गई, और मंत्री सालुवा  ने एक नया राजवंश की स्थापना की, लेकिन महत्वकांक्षी और बड़े  खुदगर्ज की भावनारहित विचारों की वजह से इस राजवंश का भी अंत हो गया।

● विजयनगर पर शासन करने वाले प्रमुख राजवंश एवं उनके संस्थापक

● तुलुवा वंश:--

आखिरकार एक नया राजवंश के आरंभ हुआ, जिसे तुलुवा वंश  कहते है।।इसका संस्थापक वीर नरसिंह को जाता है जिसने 1505 में इस वंश का प्रारम्भ किया  कृष्णदेवराय (1509- 30) , और तुलुवा वंश के सबसे महान सम्राट था,  मैं पहले भी बता चुका हूं विदेशी यात्री से लेकर भारतवर्ष के भूमि पर उपलब्ध साक्ष्य ,विजयनगर और कृष्णदेवराय के बहादुरी और महानता का गुणगान करता है,

गद्दी संभालने के बाद कृष्णदेवराय को अपने विरोधियों और पड़ोसियों से संघर्ष करना पड़ा, अपने राज्य ने कानून व्यवस्था बहाल  करना पड़ा,  बहमनी  से विजयनगर की शत्रुता  बहुत पुरानी थी और इन दोनों के बीच आप तौर पर संघर्ष देखने को मिल जाते है। बहमनी द्वारा कब्जाए गए इलाके लेने में अत्यंत संघर्ष करना पड़ा,
कृष्णदेव राय को पुर्तगालीयो का भी सामना करना पड़ा, पुर्तगाली धीरे धीरे अपनी शक्तियों में इजाफा करना सुयू कर दिए थे,

चुकी कृष्ण देव एक बहादुर सम्राट था, रायचूर औऱ बीजापुर को तहस नहस कर दिया,   इस प्रकार अनेक लड़ाइयां और युद्ध के बाद   

कृष्णदेवराय के काल ने  विजयनगर दक्षिण भारत सबसे बडी सकती बनकर उभरी।

,यहां पर कृष्णदेव राय ने अपने दुश्मनों और विरोधियों से कुछ जयदा ही चेष्टा कर बैठे थे, कुछ जयदा ही नरमी बरती, पुर्तगालियों को नजरअंदाज किया, krishndevray अपने नौसेना पर जयदा काम ही नही किया, आधुनिकीकरण ही नही कि दूसरी तरफ  चोल  वंश अपनी नौसेना ताकत के बदौलत ही  इंडोनेशिया श्रीलंका तक के कब्जे में ले लिया था, 

कृष्णदेवराय एक महान निर्माताआ भी था उसने विजयनगर के  पास एक नया नगर स्थापित किया, कृष्णदेवराय तेलगू और संस्कृत में विद्वान था,

★ कृष्णदेवराय के शाशन काल को तेलगू साहित्य का स्वर्ण युग कहा जाता है।

★ विजयनगर के शाशको को हिन्दू धर्म के महान संरक्षक माना जाता है, उसकी देखरेख ।के बहुत से मंदिर और मठ बनाया गया
विजयनगर साम्राज्य के दौरान सैकड़ो मंदिरों का निर्माण कराया गया, उसमे अधिकांश मंदिर  राजधानी हम्पी में इस्थित है


1530 में कृष्णदेवराय की मृत्यु उसके  सबन्धियों में उत्तराधिकार का संगर्ष चल पड़ा, क्योकि अभी बेटे अभी कम उम्र के थे ,वयस्क नही थे,

अंततः, 1543 में सदाशिव गद्दी पर बैठा औऱ  1567 तक शाशन किया,    सदाशिव भले ही विजयनगर का सम्राट थे लेकिन वास्तविक शक्ति एक त्रिमूर्ति के पास थी, जिसमे सबसे प्रमुख वेक्ति  रामराजा था  

रामराजा विजयनगर के हित में अनेक, युद्ध मे भाग लिया कूटनीतिक चाल से बढ़त हासिल की , बीजापुर ,गोलकुंडा, अहमदनगर को करारी  शिकस्त दी थी  इसमें राम राजा का प्रमुख योगदान था, इनमें सायद ही रामराजा का कोई लालच रहा होगा।

गोलकुंडा का शासक बहुत क्रूर था जहाँ भी उसकी जीत होती थी, वहां नरसंहार करना उसकी फितरत बन चुकी थी,  गोलकुंडा के युद्ध मे कृष्ण देवराय ने  कुली कुतुबशाह  करारी  शिकस्त दी,

बीजापुर, गोलकुंडा,अहमदनगर इन तीनो के शासकों ने सुलतानों से सायद विजयनगर से अपने अपमान का बदला लेने की सोचे होंगे, 
आखिर कर इन तीनों मिलकर 1565 में तालिकोटा के पास बननिहट्टी में विजयनगर को एक करारी शिकस्त दी, इसे टालोकोट की लड़ाई या फिर राक्षसतगड़ी की  लड़ाई भी कहते है,   इस युद्ध मे रामराजा। दुश्मन के  चारों और घेर गया रामराजा तुरंत मारा डाला गया,

इन युद्ध मे एक  लाख से ऊपर हिन्दू मारे गए, विजयनगर के लिए एक turning point था, इस युद्ध के बाद  विजयनगर को लूट कर एक खंडहर बना दिया गया।

बननिहट्टी की लड़ाई को सामान्यतः विजयनगर  साम्राज्य का अंत माना जाता है, यू तो विजयनगर जैसे तैसे 100 साल तक चला , लेकिन सम्राज्य सिमट कर रह गई, अब विजयनगर  की गिनती उन महान सम्राज्य में दूर दूर तक नही था।जिसकी  वर्चस्व हो, एक समृद्ध सम्राज्य हो,  जैसे तैसे शासन  चलता रहा।

विजयनगर के शासक में सम्राज्य सर्वोपरी की भावना बहुत ऊची थी, राज्य व्यवस्था पर अपनी पुस्तक में ,कृष्णदेवराय राजा को सलाह देता है कि, जो कुछ तुम देखो या सुनोआ, उसे नजरअंदाज किये बिना, बहुत सावधानी के साथ और अपनी क्षमता के अनुसार तुम्हे( (सज्जनों की) रक्षा और (दर्जनों को) को दंड के काम पर ध्यान देना चाहिए,        उसने राजा को सलाह दी कि,  अपनी प्रजा से हल्का कर वसूल  करें।

विजयनगर साम्राज्य की शाशन व्यवस्था।।

विजयनगर सम्राज्य में राजा को सलाह एक मंत्रिपरिषद देती थी, जिसमे सम्राज्य के सबसे बड़े एवं कुलीन वर्ग के लोग शामिल होते थे, सम्राज्य को  मंडलम ( प्रान्तों)  में बाटा गया था, उसके नीचे नाडू( जिला)  उसके निचे स्थल (उप-जिले) और ग्राम ( गाँव) होते थे।

मंडलम ( प्रांत)
नाडू ( जिला)
स्थल ( उप जिला)
ग्राम ( गांव)

कृष्णदेवराय के दरबार मे आठ तेलगु कवि रहते थे, जिन्हें अष्टदिगज कहा जाता था,,

● विजयनगर साम्राज्य में किसानों की आर्थिक दशा।

इस विषय पर इतिहासकारो का एक मत नही है क्योंकि अधिकांस यात्रियों को ग्रामीण जीवन का बहुत कम ज्ञान था, और इश्लिये वे बहुत, सधे शब्द में इस पर बात करते  है, सामान्यतः ऐसा माना जाता है जा सकता है, की जनता का आर्थिक जीवन कोमोबेस अपरिवर्तनीय ही रही होगी, सामान्यतः लोगों के घर फुस के छोटे दरवाजे वाली मिट्टी के घर होते थे, आप तौर पर नंगे पैर ही चलते थे, यह  परंपरा और इश्थिति तो पिछले आधुनिककाल में भी देखने को मिलते थे,   और पहनावे में अधिकतर पुरूष लोग कमर के ऊपर सायद ही कुछ पहनते थे, हा अपनी सान शौकत और बड़े लोग पगड़ी जरूर पहने रहते थे, उच्य वर्ग के लोग कीमती जूट भी पहनते थे, फिर भी चाहे वो धनी हो या निर्धन। कमर के ऊपर सायद ही अपने आपको ढकते थे,  कमर के ऊपर नही खुद को नही ढकना यह मजबूरी नही थी सँस्कृति थी,
बड़े एवं उच्य वर्ग के लोग बाजूबंद, कुंडल  था गले मे स्वर्ण आभूषण पहना करते थे,
किसानों के फसल का कितनां भाग कर देना पड़ता था इस विषय मे भी जयदा जानकारी हमारे पास उपलब्ध नही है।

एक अभिलेख के अनुसार। करो कि दर इस प्रकार थी,

• जाड़ो में कुरुवई (धान)  की फसल का एक तिहाई
• चना, तिल रागी का एक चौथाई
असिंचित भूमि पर उपजे, ज्वार- बाजरे और दूसरी फसल का छठा भाग

करो के दर से किसानों के प्रति राजा का उचित जिमेदारि का भाव आता है।

भू कर ,संपति कर,  फ़सक बिक्री कर, विवाह कर आदि  अन्य कर लगाए जाते थे,
विषमता यहां भी हमे देखने को मिलते है ,सोलहवीं सदी के यात्री निकितिन कहता है, धरती लोगो से भरी  पड़ी है पर गाँव के लोग बहुत बदहाल है जबकि कुलीन (उच्य वर्ग) अत्यंत समृद्ध है और विलासिता का सुख लूटते है।

कुल मिलाकर, यह निष्कर्स निकाला जा सकता है कि ,विजयनगर साम्राज्य की वित्तिय व्यवस्था , भू राजस्व पर आधारित थी

विजयनगर साम्राज्य में नगरीय जीवन का विकास हुआ, और व्यापार फला फुला नगर बढ़े और अनेक तो मंदिरों के इर्द गिर्द बढ़े, क्योकि मंदिर ,आध्यात्मिक ,सांस्कृतिक  स्थल तो है ही एक आर्थिक समृद्धि भी लाती है,  कृष्णदेवराय के कार्यकाल में बहुत से मंदिरों का निर्माण कराया गया, इस समय मंदिर काफी बड़े बड़े होता थे उनमें पुजारी होते थे ,प्रसाद बनाने वाले कारीगर होते थे,  मंदिर अत्यंत समृद्ध थे, यही कारण है कि विदेशी मुश्लिम आक्रांताओं ने मंदिर को निशाना बनाया, मंदिर समृद्ध थे तथा आंतरिक एवं विदेशी दोनो व्यापर में भाग लेते थे,

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